सिर्फ चाहने से क्या होता है
हममें से बहुत सारे लोग इस गलत फहमी में जी रहे होते हैं कि दुनिया अच्छाई की कद्र करती है...भले मानुष का बहुत महत्व होता है......नेकदिल लोगों की इबादत की जाती है.....साधुता एक बहुत जरूरी गुण होता है .....दया माया ममता स्नेह सौहार्द्र सौम्यता सब की बडी आवश्कता होती होगी....पर किसी और समाज में ....आज तो टुच्चई ही पूज्य है वरेण्य है....। जो सीधा और शान्त है लोग उसे कायर और नाकारा समझते हैं....किसी ने कहा है-
बड़ो बड़ो कह त्यागिए छोटे ग्रह जप दान
यहाँ भी छोटे का अर्थ वही है टुच्चा। यानी अगर आप सीधे सरल हैं तो आप पिसने के लिए, लात खाने के लिए तैयार रहे.....कोई आप की सिधाई और सरलता को माला फूल लेकर पूजने नहीं आ रहा है....।
इलाहाबाद की याद बुरी तरह आती है....रोज ही या कहें कि हर पल याद करता हूँ....आजकल वहाँ के एक लेखक की जिंदगी साहित्य के इतर कारणों से चर्चा में है.... जीवन भर जम कर हिंदी की सेवा करनेवाले एक शानदार लेखक अमरकांत आर्थिक तंगी से जूझ रहे है....लेकिन उनकी दिक्कतों की किसे पड़ी है....जितने साल इस महालेखक ने साहित्य में दिए हैं उतने राजनीति में दिए होते तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि और कुछ होता या न होता अर्थ का अभाव तो शायद न होता....।
तो क्या अमरकांत जी यह आर्थिक बदहाली उनकी सिधाई और सरलता का परिणाम है.....अगर नहीं तो दर्जनों किताबों से हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध बनाने वाला एक लेखक किन्हीं भी कारणों से परेशान क्यों है....।
मेरा दृढ़ मत है कि हाँ अमरकंत जी ही नहीं किसी भी लेखक कलाकार की बदहाली उसकी सरलता का कुपरिणाम है....वैसे भी हिंदी समाज में लेखक का मतलब ही है फालतू जीव.....एक लेखक की कौन सुनता है...उसके कहे से कितनों को नौकरी मिल जाती है....कितनों का रुका हुआ काम बन जाता है....मन माफिक शहर में दबादला हो जाता है....वह एक ऐसा प्राणी होता है जो पैदा होते ही बोझ सा हो जाता है....
क्या होगा अमरकांत जी का कुछ लोग थोड़े दिनों तक हूँ....हाँ करेंगे....फिर चुप हो जाएँगे.....क्यों कि एक लेखक की मुश्किल कभी समाज की मुख्य चिंता नहीं बन पाती है.....और
उसके विचार उसे समाज में फैली लूट में शामिल नहीं होने देते और वह अपनी सैद्धान्तिक पिनक में समाज को सही दिशा में लाने के लिए कलम घिसता रहता है....व्यास, बाल्मीकी, कालिदास, तुलसी, कबीर , सूर, मीरा, निराला, प्रेमचंद, त्रिलोचन, नागार्जुन, मुक्तिबोध......सब ने यही किया उचित अनुचित का सवाल खड़ा किया...लूट में टूट कर शामिल नहीं हो गए.....और बिललाते रहे....रोते रहे....
जो भी बदलाव चाहेगा.....बहुत विचार-विचार करेगा....रोएगा....जिसे तर माल खाना हो.....दारोगा बनो....एक पंक्ति ठीक ने लिखना जानते हुए किसी चैनल या अखबार के संपाजक बनो....सत्ता की गलियों में पूछ हिलाने का अभ्यास करो.....विचार से बचो.....दुविधा से दूर रहो......न्याय का मान न लो....साधुता को दूर से सलाम करो.......फिर चाहे कहानी लिखो चाहे कविता....हर मंजिल पूछ से बधी रहेगी.....हर समारोह में जयकार होगी....
मैं निजी तौर पर हमेशा फालतू की सज्जनता को खारिज करता रहा हूँ....क्योंकि आज मेरा या हमारा समाज बहुतायत में बेइमान है.....अभय भाई का कहना सही है कि ऑटो रिक्शा वाले बेइमान है....पर वे अकेले नहीं है जो दाएँ-बाएँ से अपनी झोली भरना चाह रहे है...आज लूट एक राज धर्म है......और पकड़े न जाना एक सामाजिक कला.....जो पकड़ा नहीं गया वह चोर नहीं है....
इसीलिए कहता हूँ कि आज सारी नैतिकताएँ बोझ हैं.....जो सीधा सरल है वह दरअसल आत्म घाती है....सरलता शत्रु है.....सिधाई दुशमन है........समय है अपनी कोहनियों में खंजर बाँध कर दौड़ने का.....अगल-बगल वालों को न सिर्फ घायल कके पीछे छोड़ने का बल्कि लंगी मार कर गिराने का वक्त है...यह क्योंकि सिर्फ चाहने से कुछ नहीं होता.....साहित्य के विचारों को लागू करने वाले लेखक जब तक नहीं आएँगे.....तब तक यही होगा....विचार विचारणीय और सोचनीय बन कर रह जाएँगे....और लोग कहेंगे कि आदमी अच्छा था लेकिन बड़ा सीधा और विचारक टाइप का था....कुछ-कुछ साधुता से भरा.....
तो साधुता का नाश हो
सिधाई का नाश हो
सज्जनता का नाश हो.......
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13 comments:
aसांडत्व जिन्दाबाद! धूर्त्तता अमर रहे!
भाई, निदा साहब का एक शेर है:-
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता,
मुझे गिराके अगर तुम संभल सको तो चलो.
ऐसा न कहो भाई.. आदमी में आस्था बनाए रखो!
सही मन्थन है। कुछ न कुछ निकल कर आयेगा। अमृत या हलाहल।
नहीं नहीं सज्जनता बनी रहे । साधुता बनी रहे ।
सहजता बनी रहे । आप तो बोधिसत्व हैं आप इतने निराश कैसे हो सकते हैं ।
उद्वेलित मन पोस्ट मे झाँक रहा है ।
अपनी पकैजिंग न आती हो तो तो साहित्य -संस्कृति की मंडी में भी टिकना मुश्किल हो जाता है ।
चिंतन चालू आहे !
बोधि भाई,
डगमगाता विश्वास है. स्थिरता आ जायेगी. ऐसी दुनियाँ से अमरकांत जी को कुछ मिल भी जाए, तो स्वीकार नहीं करेंगे....ये मेरा विश्वास है.
महत्वपूर्ण चिंतन है, जी सोचेंगे।
आजकल यही हो रहा है. सच्ची बात.
सिगरेट के धुएँ से दिल को काला करने की नाकाम कोशिश करता हूँ
हर मरती हुई सांस में इक जिंदगी तलाशने की कोशिश करता हूँ
सोचता हूँ क्या मिला अच्छा इन्सान बनकर इसलिए
हर पल इक बुरा इन्सान बनने की कोशिश करता हूँ
अपनों के दिए जख्म में दर्द उभर आता है
जब किसी गैर को मरहम लगाने कि कोशिश करता हूँ
बरास्ते आँखों के खून का सैलाब उमड़ आया है
रगों में बहते लहू को पानी बनाने कि कोशिश करता हूँ
हो ना जाऊँ कहीं मैं बेखौफ इतना कि खुदा भी डरने लगे
रोज-ब-रोज यूं ही खुद को डराने कि कोशिश करता हूँ
उठ ना जाये भरोसा कहीं खुदा कि खुदाई से
हर इबादतगाह में सज्दा करने कि कोशश करता हूँ
कबीर ने तो पहले ही चेता दिया था - जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।
तो फ़िर घर जल जाने का रोना क्या...
और बहरों की बस्ती में इस रोने का होना क्या?
मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ| एक दिन यह करना ही पड़ेगा हम सभी को बाहें चढा बाहर निकलना ही पड़ेगा|
आह से निकला गान आन पड़ा- एक अच्छे निर्णय की परिणिति सुख में हो ऐसा किसी ने नहीं कहा - लेकिन लम्पट धूर्त हो कर मोती सोना खाने की चाहत ही हो वो भी ज़रूरी नहीं - क्या बदहाली केवल सरलता का कुपरिणाम होती है? कितना चतुर? कितना सरल ? - चातुर्य ऐसा न हो कि बच्चे नाम से कतराएं और सरलता ऐसी न हो कि मुंह कुत्ता चाटे - रात में एक नींद सो पाना भी हज़ार नियामत - नैतिकताएं रोज़ रात नींद में ही तो ये बोझ हल्का करती हैं ! अभय जी और यूनुस से सहमति - [वैसे ऐसी पीड़ा / या खीज निकाल लेनी चाहिए] - मनीष
[पुनश्च - हमारे देश का सबसे अमीर शख्स भी अपने लिए उतनी ज़िंदगी और खुशी नहीं खरीद सका जितनी (ज़िंदगी और खुशी) बड़े लेखक कवि बगैर साधनों के लूट ले गए ]
bahut sundar
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