मेरी पत्नी आभा चुपचाप अपना पोस्ट टाइप कर रही थीं...मैंने कहा लाओ मैं टाइप कर देता हूँ...उसने कहा कि तुम बहुत टोका-टाकी करते हो टाइप कम करते हो दिमाग ज्यादा खाते हो..मुझे करने दो...और ....बात दूसरी दिशा में चली गई...उसके बाद जो बातें हुईं...सब यहाँ जस का तस दर्ज है....एक दो पंक्तियों के बाद बात एकालाप सी हो गई....मैं चुप रहा और रंज सी मेरी पत्नी बोलती रही...फिर चली भी गई....बिना उसकी इजाजत के उसकी बातें छाप रहा हूँ....छपना तो इसे अपना घर में था लेकिन अभी विनय पत्रिका में छाप रहा हूँ...जो हो देखा जाएगा...।
सब दिखावा है....
कुछ भी सच नहीं है....
दिखावे पर दुनिया कायम है...
तो क्या हम भी दिखावा कर रहे हैं...
सच्ची....बक्क
मत करो न
मिटाओ सब....बंद करो बंद करो इसको मिटाओ....मिटाओ
इसे मिटा दो...मिटा दो यार....
(एक लंबी हंसी)
क्या यार मेरी पोस्ट लिखने दो छोड़ो की बोर्ड
लिखने दो या जाने दो
इतने दिन बाद लिखने आई हूँ तो बोर कर रहे हो....
तुमने मेरा हाथ दर्र दिया.....
(एक न रुकने वाली हँसी)
मैं जाऊँ....
अब जाऊँगी तो हाथ मत पकड़ना
मैं कह देती हूँ...ठीक नहीं होगा
देख लो लाल पड़ गया
हाथ है कि लकड़ा है...
हाथ....मत पकड़ना...
अच्छी मुसीबत है...कमाल हो
मैं की बोर्ड पकड़ कर ....समझ लो...
ये कबाड़खाने पर क्या बज रहा है...
अब न बजाओ श्याम....बंद करो
बच्चे सो रहे हैं...
ये तुम्हारी पोस्ट है क्या ....कुछ भी...छाप दोगे
हिंदी कविता है क्या...
कुछ भी चार लाइन लिख दिया
कैसी गंदी आत्मा हो तुम यार
मैं सोने जाऊँ...
मुझे सबेरे उठ कर बहुत सारा काम करना है...
नल खुला है...बंद करो....पानी बह रहा है...
पानी मत बरबाद करो....तुम तो नहाने जा रहे थे...जाओ...चलो.....
यह आदमी न जीने देता है न मरने देता है...
ये सब क्या लिख रहे हो....
(फिर हँसी)
अब या तो मैं खुद से टाइप करूँगी या कभी ब्लॉग नहीं लिखूँगी
चाहे साल भर हो जाए
अपने या
फिर तुम ही टाइप करो...अब मैं जाती हूँ...
लिखो ब्लॉग....
तुम क्यों अपना टाइम बरबाद कर रहे हो...जाओ पढ़ो...
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20 comments:
मज़ा आ गया । इसमें ठुमरी भी थी, कबाड़खाना भी था। शब्दों का सफ़र तो खैर आदि से अंत तक था। कुछ बातें ऐसीं जो आगे बढ़ती तो कहानी भी बनती पर...एक अलग तरह का रूमान तारी हो गया...
कविता चूंकी शीर्षकहीन है इसलिए इसका शीर्षक होना चाहिए था -
एक गंदी आत्मा की सौजन्यता !!!
या -हाथ है कि लकड़ा है...
या -हटाओ, मिटाओ ....बंद करो
या- ....मैं सोने जाऊं!
या- मत करो न !
काफी शीर्षक-संभावी कविता है (आभाजी चाहे जो कहें , कविता तो इसे हमने मान ही लिया है)
घर घर की कहानी। हम शायद अपने घर वाली कहानी इतनी बढ़िया प्रस्तुत न कर सकें - बस यही फर्क है।
कमाल है ।
यानी आप असंभव जगहों से भी कविता निकाल लेते हैं भई
आभा जी आप बोलते रहें बोधि लिख रहे हैं ।
बहुत खूब ! पढकर आनन्द आ गया , बेहतरीन प्रस्तुतीकरण । इन क्षणॉ को इससे बेहतर नही सहेजा जा सकता था !
शानदार पोस्ट है...वाह!
रविवार की शुरुआत कमल की रही...वाह वाह वाह.
bahut hi badhiya,roj marra ki zindagi ki khushiyan aur aap dono ka pyar basa hai si mein,bhagwan isse barkarar rakhe.
aabha ji dekhiye:):) apke kahe ki kavita likhi hai:):),jawab aapki taraf se bhi hona chahiye "apna ghar par ",just kidding,bahut khubsurat post hai.
जय श्री गुरुवे नमःसोचो जिसने तुम्हें सुंदर सृष्टि दी , जो किसी भी प्रकार से स्वर्ग से कम नहीं है , आश्चर्य ! वहां नर्क (Hell) भी है । क्यों ? नर्क हमारी कृतियों का प्रतिफलन है । हमारी स्वार्थ भरी क्रियाओं मैं नर्क को जन्म दिया है । हमने अवांछित कार्यों के द्वारा अपने लिए अभिशाप की स्थिति उत्पन्न की है । स्पष्ट है कि नर्क जब हमारी उपज है , तोइसे मिटाना भी हमें ही पड़ेगा । सुनो कलियुग में पाप की मात्रा पुण्य से अधिक है जबकि अन्य युगों में पाप तो था किंतु सत्य इतना व्यापक था कि पापी भी उत्तमतरंगों को आत्मसात करने की स्थिति में थे । अतः नर्क कलियुग के पहले केवल विचार रूप में था , बीज रूप में था । कलियुग में यह वैचारिक नर्क के बीजों को अनुकूल और आदर्श परिस्थितियां आज के मानव में प्रदान कीं। शनै : शनैः जैसे - जैसे पाप का बोल-बालहोता गया ,नर्क का क्षेत्र विस्तारित होता गया । देखो । आज धरती पर क्या हो रहा है ? आधुनिक मनुष्यों वैचारिक प्रदूषण की मात्रा में वृद्धि हुयी है । हमारे दूषित विचार से उत्पन्न दूषित ऊर्जा ( destructive energy ) , पाप - वृत्तियों की वृद्धि एवं इसके फलस्वरूप आत्मा के संकुचन द्वारा उत्त्पन्न संपीडन से अवमुक्त ऊर्जा , जो निरंतर शून्य (space) में जा रही है , यही ऊर्जा नर्क का सृजन कर रही है , जिससे हम असहाय होकर स्वयं भी झुलस रहे हैं और दूसरो को भी झुलसा रहे हें । ज्ञान की अनुपस्थिति मैं विज्ञान के प्रसार से , सृष्टि और प्रकृति की बहुत छति मनुष्य कर चुका है । उससे पहले की प्रकृति छति पूर्ति के लिए उद्यत हो जाए हमें अपने- आपको बदलना होगा । उत्तम कर्मों के द्वारा आत्मा के संकुचन को रोकना होगा , विचारों में पवित्रता का समावेश करना होगा । आत्मा की उर्जा जो आत्मा के संपीडन के द्वारा नष्ट होकर नर्क विकसित कर रही है उसको सही दिशा देने का गुरुतर कर्तव्य तुम्हारे समक्ष है ताकि यह ऊर्जा विकास मैं सहयोगी सिद्ध हो सके । आत्मा की सृजनात्मक ऊर्जा को जनहित के लिए प्रयोग करो । कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा । नर्क की उष्मा मद्धिम पड़ेगी और व्याकुल सृष्टि को त्राण हासिल होगा । आत्म - दर्शन (स्वयं का ज्ञान ) और आत्मा के प्रकाश द्वारा अपना रास्ता निर्धारित करना होगा । आसान नहीं है यह सब लेकिन सृष्टि ने क्या तुम्हें आसन कार्यों के लिए सृजित किया है ? सरीर की जय के साथ - साथ आत्मा की जयजयकार गुंजायमान करो । सफलता मिलेगी । सृष्टि और सृष्टि कर्ता सदैव तुम्हारे साथ है । प्रकृति का आशीर्वाद तुम्हारे ऊपर बरसेगा । *****************जय शरीर । जय आत्मा । । ******************
हैं!!!!!!!!!!!!!!!!!?????????????!!!!!!!!!!!!!!!!
मिसिरवा , पगलाई गावे हाउ
चेहरे पर एक मुस्कान के साथ पढ़..
सच कहूँ तो सुबह से यह पहली सच्चे दिल वाली मुस्कान थी, बनावटी नहीं.. :)
अच्छी लगी आप की यह कविता ओर यह बाते, एक गीत याद आ गया आप की यह शरारते पढ कर... छोड दो आंचल जमाना क्या कहे गा...
आप बड़े वो हैं जी..!
कवि मिज़ाज़, आपसी नोकझोंक या चुहलबाजी मे भी कविता निकाल ही ली आपने!
पसंद आया!!
इस पोस्ट की अहमियत हम कोई नही समझ पाएंगे सिवाय आप दोनों के. आज भी, एक हफ्ते बाद भी, एक महीने बाद भी और एक साल बाद भी यह हमेशा ताजा बना रहेगा, आप दोनों जब भी इसे पढेंगे... बहुत ही खूबसूरत पोस्ट :)
पहली बार लगा कि अभी नोंकझोंक और चलना चाहिये थी. मजा आया :)
kitnaa sahaj!!
भई हमे तो मजा आया। अजित वडनेरकरजी का आग्रह रखने के लिये शीर्षक रखा जा सकते है लेकिन पारिवारिक पोस्ट बिना शीर्षकै रहे तो बढ़िया। ई कविता आगे कुछ और लिखी जाये तो और बातें सामने आयें। ई अंदाज बना रहे यही कामना रहे है।
जिन्दगी (इसी ) जिन्दादिली का नाम है। जुग-जुग तक कायम रहें ये शरारतें।
एक बात कि अगर टिप्पणियां वीडियो में होतीं इस वक्त - तो आपको दुनिया भर से मुस्कानें, कहकहे, निर्मल वाह वाहियाँ - यहीं, इस पन्ने पर, इसी जगह मिले होते - और बड़े दिन ताजे रहते - दूसरी कि वाह वाही के नाम पर मिट्टी से मोहन गढ़ने की कला पर कुछ कहने का अपना मुंह ही नहीं है - तीसरी आशा कि पिटाई नहीं हुई (और हुई भी तो परदे में रहे और कि कोई बात नहीं)- और चौथी कि मैंने भी दो लाईनें सहेज रखी हैं अपनी पत्नी के नाम की - "बे रोक टोक टोकती, मेरी सुघड़ अर्धांगिनी / सुर-सर उसी के नाम का, बजती उसी की रागिनी " लेकिन पूर्ति का समय नहीं मिल रहा - अभी उत्साह के लिए ठिकाना मिल गया - देर से आने की माफ़ी - सही में सतरंगी की एक और छटा देखी - साभार - मनीष
p.s. - मिश्र जी को मिश्रित नमन भी
इसके आगे की कहानी मैं लिखूं क्योंकि अब तो हम भी शादीशुदा हैं. लेकिन बोधि भाई आप कमाल हैं. शशि भूषण द्विवेदी
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