मनीष जोशी को मैं लगातार पढ़ता रहा...लेकिन पिछले १८ अप्रैल से हरी मिर्च पर कुछ नया तीखा नहीं छप रहा है...मुझे उनकी यह कविता बहुत अच्छी लगी थी...वे ऐसी और इससे भी अच्छी कविताएँ लिखें इसी निवेदन के साथ उनकी यह कविता विनय-पत्र पर छाप रहा हूँ....।
आशा का गीत : आशा के लिए
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
वह संग चलते मरमरी अहसास के दिन
जो अंत से होते नहीं भी ख़त्म होकर सच
ठीक वैसे मृदुल के परिहास के दिन
हल्के कदम की धूप के, टुकड़े रहें जी
सरगर्म शामों के धुएँ, जकड़े रहें जी
राजा रहें साथी मेरे, जो हैं जिधर भी
बाजों को अपनी भीड़ में, पकड़े रहें जी
हो मनचले नटखट, थोड़े बदमाश के दिन
बस ना धुलें, अच्छे समय के वास के दिन
दूब हरियाली मिले, चाहे तो कम हो
रोज़े खुशी में हों, खुशी बेबाक श्रम हो
राहें कठिन भी हों, कभी कंधे ना ढुलकें
पावों में पीरें गुम, तीर नक्शे कदम हो
मैदान में उस रोज़ के शाबाश के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
कारण ना बोलें, मुस्कुरा कंधे हिला कर
झटक कर केशों को, गालों से मिला कर
पानी में मदिरा सा अनूठा भास दे दें
हल्के गुलाबी रंग से भी ज़लज़ला कर
कुछ अनकही, भरपूर तर-पर प्यास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
दीगर चलें, चलते रहें राहे सुख़न में
प्यारे रहें, जैसे जहाँ में, जिस वतन में
जो आमने ना सामने हों, साथ में हों
क्लेश के अवशेष बस हों तृप्त मन में
मिलते रहें, चम-चमकते विश्वास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन।।
नोट-हो सकता है कि कुछ पंक्तियाँ ऊपर नीचे हो गई हों....जोशिम जी के अपनों माफ करना।
आशा का गीत : आशा के लिए
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
वह संग चलते मरमरी अहसास के दिन
जो अंत से होते नहीं भी ख़त्म होकर सच
ठीक वैसे मृदुल के परिहास के दिन
हल्के कदम की धूप के, टुकड़े रहें जी
सरगर्म शामों के धुएँ, जकड़े रहें जी
राजा रहें साथी मेरे, जो हैं जिधर भी
बाजों को अपनी भीड़ में, पकड़े रहें जी
हो मनचले नटखट, थोड़े बदमाश के दिन
बस ना धुलें, अच्छे समय के वास के दिन
दूब हरियाली मिले, चाहे तो कम हो
रोज़े खुशी में हों, खुशी बेबाक श्रम हो
राहें कठिन भी हों, कभी कंधे ना ढुलकें
पावों में पीरें गुम, तीर नक्शे कदम हो
मैदान में उस रोज़ के शाबाश के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
कारण ना बोलें, मुस्कुरा कंधे हिला कर
झटक कर केशों को, गालों से मिला कर
पानी में मदिरा सा अनूठा भास दे दें
हल्के गुलाबी रंग से भी ज़लज़ला कर
कुछ अनकही, भरपूर तर-पर प्यास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
दीगर चलें, चलते रहें राहे सुख़न में
प्यारे रहें, जैसे जहाँ में, जिस वतन में
जो आमने ना सामने हों, साथ में हों
क्लेश के अवशेष बस हों तृप्त मन में
मिलते रहें, चम-चमकते विश्वास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन।।
नोट-हो सकता है कि कुछ पंक्तियाँ ऊपर नीचे हो गई हों....जोशिम जी के अपनों माफ करना।
5 comments:
अभी दो चार दिन पहले ही देखे गये थे टिप्पणी करते, शायद आपकी पुकार सुन आ ही रहे होंगे. कविता उम्दा चुन कर निकाली है उनकी. वैसे तो वो हमेशा उम्दा ही लिखते हैं.
मनीष भैया, तारे गिन चुके हों तो आकर जवाब दीजिये....:-)
बिल्कुल! मनीश जोशी(म) हाजिर हों!
बोधि भाई, अपन तो उनसे ई-मेल पर पहले ही अनुरोध कर चुके हैं. वैसे उनकी 'बाजा बजाते हुए आना' वाली कविता भी बहुत अच्छी लगी थी.
आओ, आओ , आओ,
मनीष भाई आओ...
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