कहाँ जा रहे हैं साहित्यकार और ब्लॉगर
मेरा दिल बहुत साफ है.....इतना साफ है कि आर पार दिखता है....पर दर्पण बनने के लिए आर-पार देखना बंद करना पड़ता है तो क्या करूँ....बंद करूँ या संन्यासी सा बना रहूँ.....कम से कम अभी इस वक्त मेरे मन में कोई कामना या महत्वाकांक्षा या लालसा नहीं है.....मुझे पाठक नहीं चाहिए...मुझे लोकप्रियता नहीं चाहिए, मुझे शास्त्रीयता से बेहद प्यार है.....जहाँ-जहाँ शास्त्र या शास्त्रीयता देखता हूँ.....बलखाने लगता हूँ.....लांगूल हिलाने लगता हूँ.....वहीं... लोकप्रियता के प्रत्यक्ष होते ही इतना डर जाता हूँ कि आँखे बंद कर शास्त्रीयता-शास्त्रीयता का जाप करने लगता हूँ....
क्यों न करूँ....बंद आँखे.....जब शास्त्रीयता का लोकप्रियता से इतना बड़ा बैर साबित कर दिया गया है....तब तो सावधान होकर ही जीना पड़ेगा......क्योंकि हमें तो कहीं जाना है....जहाँ सिर्फ शास्त्रीय हो कर ही मैं जा सकूँगा.....लोकप्रिय हो कर नहीं.....मैं वह परम् पद इस ससुरी लोक प्रियता के झाँसे में कैसे कुर्बान कर दूँ.....लोकप्रियता का भी कोई चरित्र होता है.....
लोकप्रियता तो एक दिन की लाली है....शास्त्रीयता तो सार्वकालिक है...कुछ नए साहित्यिक साधु और साध्वियों से सुनते हैं जो मजा शास्त्रीयता का है वह लोकप्रियता में कहाँ है......हाँ गाहे बगाहे दोनों का मजा लेने में गुरेज नहीं....बस सावधानी जरूरी है...
अब गार्गी, व्यास, बाल्मीकि, कालीदास, तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, मीर,गालिब, भारतेंदु, इकबाल, प्रसाद, पंत, महादेवी, निराला, परसाई, श्रीलाल शुक्ल क्या खाक शास्त्रीयता के पद का मजा पा सकेंगे....भूल से लोक प्रिय जो हो लिए....कितना पछता रहे होंगे सब अनाड़ी, छाती पीट रहे होंगे कि काश पहले पता चल गया होता तो लोकप्रिय होने की चिरकुटई से बच लिए होते.....इतना ओछा काम क्यों करें जिससे जीवन भर की कमाई खाक हो जाए....धिक्कार है लोकप्रियता धिक्कार है....सब वहीं से लौट आते जहाँ से लोक प्रियता की गंदी गली शुरू होती है....गली के कोने पर भले ही मजार बन जाता या समाधि पर उस गली में दाखिल न होते....पर क्या करें.....अब पछताने से क्या होता है.....हाथ मचते हैं और रोते हैं....इश्क पर समझाते थे साले सब लोकप्रियता....पर चुप रह जाते थे...
आज के सच्चे उपदेशक तब कहाँ थे....गलती हो गई....तो हो गई...।
पाठकों की चिट्ठियों का न सही तो साधुओं के सिर हिलने का इंतजार किया.....इसका ध्यान रखा कि जो कह रहा हूँ वह सब समझ तो रहे हैं न.....यहीं तो महान अपराध हुआ...... जिस पाठक की बुद्धि संकुचित है उसकी परवाह करोगे तो क्या रचोगे.....
इसलिए हे ब्लॉगरों अगर साहित्यकारों वाले महान स्थान पर या उसके आगे का मुकाम, ऊँचाई, मंजिल, पाना चाहते हो वहाँ अपना झंडा गाड़ना या फहरना चाहते हो तो पाठकों की प्रतिक्रिया, उनकी राय पर लात मारो और अपने मन की लीद बिखेरो.....वह कागज के पन्नों ब्लॉग पर छपते ही प्रसाद हो जाएगी....तो लीद करो और मस्त रहो....जैसे साहित्य की दुनिया में आज कवि-कथाकार मस्त है.....
बस एक काम करो....कुछ कविता कथा नुमा लिखो....किसी प्रकाशक को साधो और उनके एकाध बूढ़े मालिकान को बाकी तो सध ही जाएगा....
भाइयों मैं भी वहीं जाना चाहता था जहाँ सब साहित्यकार ब्लॉगर जा रहे थे...पर साहित्यकार भी कहाँ पहुचे हैं समझ नहीं पा रहा हूँ......उसके आगे कहाँ जाऊँ....कोई है जो राह दिखाए.....कहाँ जाऊँ....क्या करूँ....कोई साधू-साध्वी हो तो बताए.....कहाँ पहुँचे हैं....ब्लॉगर या जो साहित्यकार ब्लॉग कर रहे हैं वो जहाँ पहुँच गये हैं......और वह पवित्र स्थान कहाँ हैं जहाँ हम सब जाना चाहते हैं और उसके आगे भी
Thursday, May 22, 2008
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14 comments:
उड़नतस्तरी के पास कनाडा उड़ जाइए. हवाई जहाज का भाड़ा परमोद जी से ले लीजिये. हाहाहा!
दो वाक्य भले लगे-
1.अपने मन की लीद बिखेरो...
2.लीद करो और मस्त रहो...
हमारी ब्लागिंग की शुरूआत भी ऐसे ही कुछ लीद-वीद टाइप के आशीर्वचनों से हुई थी, तबसे ही भले लगते हैं वो वाक्य जिनमें लीद शब्द होता है :)
अभी आता हूँ कुछ देर में. :)
सुप्रभात
लोकप्रियता और शास्त्रीयता अलग अलग ही हैं... बोधिसत्व जी... कबीर तुलसी को कोट करते तो सुनाई देते हैं लोग... बाल्मीकि कालिदास भर्तृहरि शूद्रक को कितने कोट करते हैं... कबीर और तुलसी ज्यादा कन्वे होते हैं... पर कला की शास्त्रीयता, शिल्प आदि इन शास्त्रीय कवियों में ज्यादा है... मतभेद हो सकता है... दोनों का ही महत्व है...
लेकिन आप लोकप्रियता के पक्षधर हैं तो एक काम कीजिए, बच्चन साहिर फैज की तरह कविताएं लिख दीजिए... आप शास्त्रीय भी हो जाएंगे... लोकप्रिय भी...
या एक काम और... ब्लॉग पर जो टिप्पािणयां आप करते हैं... पत्नी की पोस्ट पति के नाम... या साहित्यकार दुर्दशा आदि... उसको पहल वागर्थ वसुधा हंस में प्रकाशित करवा के दिखा दीजिए... या इन्हें अपने गद्य संग्रह के रूप में प्रकाशित करवा लीजिए...
नहीं कर पायेंगे ऐसा... क्योंकि ब्लॉग पर लिखी हल्की फुल्की पोस्टों की कीमत दो दिन बाद, एक साल बाद कुछ नहीं होती... उसे हल्के फुल्के रूप में ही याद रखेगा कोई, अगर रखेगा तो... लेकिन एक अच्छी कविता अलग असर करती है... आप ऐसे लिख रहे हैं जैसे आप साहित्यकार हैं ही नहीं...
साहित्य और ब्लॉगिंग को क्यों जोड रहे हैं आपस में... दोनों अलग अलग चीजें हैं... साहित्यकार इस माध्यम को भी अपने पास रखता है तो क्या ऐतराज हो किसी को... हल्का फुल्के हास्य व्यंग्य तक ठीक है.... हल्के फुल्के विषय को विमर्श बनाना ठीक नहीं...
ऐसा मेरा विचार है... आप लोग पढे लिखे ज्ञानी हैं... हो सकता है... इसमें आपको बचपना या नासमझी दिख जाये... तो क्षमा करेंगे...
आदर के साथ
नंदिनी
तुलसी अज्ञेय से बहुत जलते थे....:-)
मैं अपनी सभी कविताऐं पहले अपने मित्रों को पढाता हूं फिर चिट्ठा पर छपता हूं.. अगर कोई कविता मेरे मित्रों को समझ में नहीं आता है तो बस उसे दबाकर बैठ जाता हूं.. ये सोचकर डर लगने लगता है कि कहीं साहित्यकार तो नहीं बन रहा हूं.. :)
बाबा तुलसी तो हिन्दी ब्लॉगिंग के आइकॉन हैं। कितना लखेदा उन्हे काशी के पण्डितों ने!
वही हाल हम लोगों का है - महंतमण्डली हमें ***टोली का निवासी मानते हैं। दोयम दर्जे के हम लोग साहित्य की वर्ण व्यवस्था से भी बहिष्कृत हैं। पर मजे की बात है कि न तो हमने इस व्यवस्था में आने का आवेदन किया है, न आशा की है।
महापण्डित रहें अंगूठे पर, हम तो मनमौजी अभंग गायेंगे। जहां हैं, वहीं रहेंगे - ***टोली में।
पर तुलसी पर काशी के महापण्डितों को या ***टोली वालों पर महंतमण्डली को गौर करने की जरूरत क्यों हुई? कोई शोध करेगा इसपर?!
जनवरी ०८ मे ज्ञान पाण्डेय जी की सीधी सपाट खिचडी को टेढी खीर करने वाली साहित्यकार आज सीधी बात लेकर प्रत्यक्ष हुई है .
मैं आपकी एक बाद से तो सहमत हूं कि आज ब्लॉगरों को अपने पाठकों की चिंता किए बगैर लिखते रहना चाहिए। मैंने अपना ब्लॉग इसीलिए शुरू किया कि कोई पढ़े या न पढ़े मैं अपनी मनमर्जी का लिखूंगा और शायद अधिकांश ब्लॉगर यही सोचकर ब्लॉग शुरू करते हैं। हो सकता हू कुछ बहुत ही महत्वाकांक्षी हों औऱ इसके जरिये अपना और दोयम दर्जे के रचनाकार मित्रों का प्रचार करना चाहते हों। लेकिन आपकी इस पोस्ट्स में कहीं न कहीं ब्लॉगरों से जलन की बू भी आती है।
रवींद्र व्यास
ज्ञान जी से सहमति है . ब्लॉग के लोकतंत्र में सबको अपनी मौज में अपने-अपने अभंग गाने की छूट है .
आपकी एक किताब पढ़ी थी और कुछ और कविताएं। उसके बाद आपका लेखन बहुत पसन्द करने लगा था। अब जब से आपका ब्लॉग पढ़ना शुरु किया है, अपनी पसंद पर पुनर्विचार करने का मन हो रहा है।
प्रत्यक्षा जी ने आपके ख़िलाफ़ कहाँ कुछ कहा, वो बिल्कुल जायज़ बात थी और आप इस भाषा में पीछे पड़ गए हैं।
कुछ दिनों से ऐसा लगने लगा है कि तथाकथि ब्लॉगीय लोकप्रियता पाने के लिए शास्त्रीयता को आपने बक्से में बन्द करके रख दिया है।
कुछ ज्यादा नहीं कहूंगा, बस इतना ही कि आप जैसे प्रतिभाशाली कवि को ऐसी बातों पर ख़ुद को ज़ाया करते हुए देखना कष्टदायक है। कुछ कीजिए।
गौरव जी
मैं कुछ करता हूँ....
कुछ आप भी करें...
बिल्कुल। मुझे जो भी आज्ञा देंगे, मैं करूंगा।
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