Friday, June 13, 2008

वैशाली जाने का मन है....


पहली बीड़ी की याद और यायावर मन

कितनी बार सोचा और तय किया कि बिहार और उत्तर प्रदेश के एक-एक गाँव और छोटे बाजारों और कस्बों तक जाऊँगा...लेकिन जाना नहीं हो पाया....कितनी-कितनी मुश्किल से बिहार में पटना, गया, हजारीबाग, मुजफ्फरपुर और एकाध शहरों के आगे नहीं जा पाया । उत्तर प्रदेश के 15 से 20 जिलों तक ही गया होऊँगा...जिनमें बलिया, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, मऊ, मीरजापुर, सोनभद्र, गोरखपुर, बस्ती, अकबरपुर, फैजाबाद, सुल्तानपुर, सिद्धार्थनगर, कौशांबी, इलाहाबाद, बाँदा, चित्रकूट, जौनपुर और प्रतापगढ़ शामिल है..। हो सकता है कि एकाध और जिलों में गया होऊँ...पर इससे क्या मैं कह सकता हूँ कि मैं हिंदी इलाके को जानता हूँ......।

मध्य प्रदेश राजस्थान के कई जिले तो मेरे लिए इतने अपरिचित हैं जैसे वे भारत में नहीं कहीं अफ्रीका या अरब में हो...हम लोग देश के राष्ट्रीय एकता की बात करते हैं...और करना भी चाहिए...लेकिन क्या यह नहीं होना चाहिए कि हमें अपने देश के सब नहीं तो कुछ इलाकों तक तो पहुँच ही लेना चाहिए....।

मेरा मन बार-बार वैशाली जाने को करता है...मैं....सच में वैशाली जाना चाहता हूँ....क्या वहाँ आम्रपाली के होने का कोई निशान मिलता है ... सुनता हूँ कि अभी वैशाली बिहार में नहीं है...अगर हो तो भी न हो तो भी वैशाली जाना है....वैसे मैं झूमरी तलैया भी जाना चाहता हूँ....कभी रेडियो पर रोज वहाँ से फरमाइशें होती थीं...वे गाने सुनने वाले अभी भी वहाँ होंगे क्या...

राजगीर भी जाना चाहता हूँ....देखना चाहता हूँ कि क्या वहाँ अभी भी पांडव पर्वत है जहाँ सिद्धार्थ और बिंबिसार की पहली मुलाकात हुई थी....जहाँ मगध नरेश ने सिद्धार्थ को अपना सेनापति बनने के प्रस्ताव रखा जिसे...सिद्धार्थ ने ठुकरा दिया था...क्या वह गड्ढा अभी भी वहाँ के राजपथ पर होंगे जिसे ह्वेन सांग ने अपने यात्रा विवरण में दर्ज किया था...

फुलवारी शरीफ यह नाम मुझे बहुत पुकारता है....पलामू....डाल्टनगंज....कभी जा पाऊँगा क्या....गोमो स्टेशन कितनी बार गुजरा ....पर एक बार चाय पीने भर का समय ही यहाँ बिता पाया हूँ...यही वह स्टेशन है जहाँ से नेता जी अंग्रेजों की पकड़ से निकल भागे थे...ऐसा याद आता है कि इसी स्टेशन से मैंने चंपा नाम की पहाड़ी को देखा था... कोहरे पेड़ों और भाफ से ढंकी पहाडी ....उसी पहाड़ी को देखते हुए मैंने पहली बार बीड़ी पी थी...और फूट-फूट कर रोया था...बीड़ी का नाम था हिंद सवार . सामने की सीट पर बैठे एक दढ़ियल से माँग कर पी थी ....और मेरी रुलाई पर वह बुड्ढा बहुत परेशान हो गया था....एक बार गोमो की तरफ वहाँ जहाँ ऐसे पहाड़ हैं..जाना चाहता हूँ...

अगले दो-तीन महीने में देशांतर की संभावना है.......लेकिन उसके पहले..एकबार न बिहार अपने बनारस तो जा ही सकता हूँ....जाऊँगा....

13 comments:

Udan Tashtari said...

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ।

-बनारस तो तुरत फुरत हो आईये, फिर जब जब जैसा जैसा मौका पड़े, घूमते रहिये. अनेकों शुभकामनाऐं.

Gyan Dutt Pandey said...

यहां जाइये। पर भूत खोजने के पहले यहां का वर्तमान आपके पीछे लग लेता है।

पारुल "पुखराज" said...

आप झुमरी तिलैया ज़रूर जाइये- मन खुश हो जायेगा- नक्सलवाद के कारण ये इलाका उपेक्षित है वरना दिसंबर महीने मे यहां की "उरवन" झील और आस पास पहाड़ियों से घिरा महौल बहुत मनोरम लगता है ।वैशाली अभी भी बिहार मे है परन्तु जिसआम्रपाली का वैशाली आप देखना चह्ते हैं वहा से शायद निराशा ही हाथ लगे । आपने रोने का कारण नही लिखा वैसे गोमो मे आज भी वैसे ही पेड़ व पहाड़िया हैं । आपका लेख पढ़कर खुशी हुई कि हमारे प्रदेश भी कोई घूमने आना चाहता है :)

बालकिशन said...

हमे इंतजार रहेगा आपके जाकर लौटने का.
तब आपके अनुभव के खजाने मे से दो चार मोती हमे भी मिल सकते हैं.
अनेकानेक शुभकामनाएं.

Rajesh Roshan said...

हजारीबाग, झुमरीतिलैया, गोमो.... झारखण्ड का हू... नाम देखकर ही रोम रोम खिलने जैसा हो जाता है. ८ महीने से ऊपर हो गए, घर नही गया हू. बड़ी याद आ रही है

अभय तिवारी said...

ऐसी कुछ इच्छाएं मेरे भी मन में दबी पड़ी हैं..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ऐसी ही तमन्ना हरेक के मन मेँ दबी रह जातीँ हैँ !
हमेँ, समय और परिश्रम करके, ऐसे सपनोँ को साकार करना चाहीये--
Life is too short, otherwise..
- लावण्या

अनूप शुक्ल said...

अब निकल्लो गुरू।

Arun Aditya said...

एक वैशाली और है, जो गाजियाबाद में हमारे पड़ोस में है, जहाँ कवि-कथाकार उदय प्रकाश जी रहते हैं। कभी उधर आइये तो हमसे भी मिलियेगा।

बोधिसत्व said...

दिल्ली दूर है भाई....अगर आया तो बिना आपसे मिले कैसे लौट पाऊँगा....अ..आ..को आगे बढ़ाएँ...

L.Goswami said...

फिर कभी गोमो से गुजरे जरुर बताइयेगा ..यहाँ से कुछ ही किलोमीटर दूर मेरा पुस्तैनी घर है..मैं आपसे मिलना चाहूंगी.

बोधिसत्व said...

लवली जी
कितना पछतावा होता है। वह सुबह बहुत बादलों से भरी सी थी। मैं वहाँ जहाँ नेताजी का भित्ति चित्र है काफी देर खड़ा रहा। लेकिन कोई फोटो नहीं खींच पाया। ऐसा आगे भी दो तीन बार हुआ। मैं आपसे वादा करता हूँ कि जब भी कोलकाता जाना होगा मैं आपको पहले से बता कर निकलूँगा। लेकिन एक उलझन सी हो गई है। समय बचाने के चक्कर में हम उड़ कर जाने लगे हैं। फिर भी हम एक यात्रा आपके पुश्तैनी घर तक जाने के लिए जरूर करेंगे। आपने मेरी इतनी पुरानी पोस्ट पढ़ी अच्छा लगा।
आभारी हूँ।
आपका
बोधिसत्व

L.Goswami said...

मैं अक्सर शब्दों को हिंदी में ढूंढ़ कर पढ़ती हूँ ..इसी क्रम में यहाँ आई थी वैसे आपका पूरा ब्लॉग पढ़ चुकी हूँ. :-)
अभी मैं कोल्कता में नही हूँ धनबाद में हूँ, जब आयें अवश्य बताएं उत्तर का धन्यवाद.