काशी के घाट बुलाते हैं...
काशी यानी बनारस से मेरा थोड़ा अजीब सा नाता है....
वैसे मैं पैदाइशी बनारसी यानी काशीवाला नहीं हूँ....लेकिन काशी जनपद का तो हूँ....जीवन में पहलीबार किसी शहर गया तो वह था बनारस......बनारस के घाट नदी का चौड़ा पाट...पतली गलियाँ....और उनमें सुहाग और पूजा के सामानों की दुकाने ....अपने लिए चूड़ियाँ और सिंदूर खरीदती सुहागिनें और उन्हें ताकती विधवाएँ....और बिसाती...नदी के तट से बँधी हिलती डोलती नावें....जैसे मोक्ष के लिए छटपटाता संन्यासी संसार के बंधन से छूट जाने को व्याकुल हो....।
यह सब मैं बालपन से देखता निरखता आया हूँ....लेकिन पिछले बीस सालों से काशी से दूर हूँ....फिर भी काशी की यही छवि मेरे मन में छपी है......
मैंने ठीक से तैरना काशी की गंगा में सीखा....मैंने जीवन के कई सारे विकट अनुभव बनारस की सीढ़ियों पर पाए....इसलिए काशी जाने और वहाँ सीढ़ियों पर बादलों की छाँव में बैठने और नदी के गंदले प्रवाह को देखने का मन करता है...और जैसे ही मौका मिलता है मैं काशी का रुख कर लेता हूँ....।
कहने को तो कहा जा सकता है कि काशी में क्या रखा है.....मैं कहूँगा कि यदि काशी में कुछ नहीं रखा है तो दुनिया में ही क्या रखा है....पतन किसका नहीं हुआ है....काशी का भी हुआ होगा....समय और बदलाव का दबाव काशी पर भी पड़ा है....लेकिन काशी का नशा मेरे मन से तनिक भी कम नहीं हुआ है.....।
मुझे सबसे अधिक आनन्द काशी की गंगा में नाव से भटकने में आता है....मैं काशी की गंगा का आनन्द लेने के लिए भादौं में जाना पसंद करता हूँ...तब गंगा में खूब पानी होता है....और भीड़ कम....नाव से भटकने के बाद बाद काशी के घाटों पर परिक्रमा करना अच्छा लगता है........वहाँ के घाटों में मणिकर्णिका घाट मुझे बहुत प्रिय है....वहीं पर मेरे बाबा की अंत्येष्ठि हुई....वहीं मेरी आजी भी जलाई गईं....इसलिए भी मैं वहाँ घंटों बैठा करता था....अब भी जब भी बनारस जाता हूँ और कही जाऊँ न जाऊँ...मणिकर्णिका घाट जरूर जाता हूँ....।
बचपन से ही बनारस के घाटों पर जाना और माथे पर चौड़ा तिलक लगाना और पूजा में चढ़ाई गई इलायची और नारियल मिला कर खाना एक नित्य क्रिया थी....घरवालों का दबाव न होता तो भाँग खाने की भी आदत पड़ी ही होती...यह सोचना बड़ा अच्छा लगता है कि अगर मैं भंगड़ होता तो कैसा होता मेरा जीवन.....आज भी पूजा का प्रसाद हो या वैसे ही इलायची और नारियल खाना अच्छा लगता है....यह बनारस को जीना है बनारस को अपने साथ रखना है....।
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6 comments:
बहुत उम्दा गोता लगाया है. हम भी डूबे आपके संग संग, आनन्द आ गया. अच्छा ही हुआ, आप भंगेड़ी नहीं हुए. बस, ऐसे ही याद करते रहें.
सही भैया - काशी की कितनी आलोचना कर लें, कुछ तो है जो उससे जोड़े रहता है!
Banal rahe Banaras !
काशी और बनारस दोनों नाम एक शहर का क्यों है ? या दोनों अलग हैं ?" काशी का सिंदूर बनारस की चूड़ी " नामक नाटक का मंचन करके भी नही जान पाया .
सहमति दर्ज हो ! पतन किसका नही हुआ है . लोग ख़ुद तो यहाँ वहाँ लबरई का बाज़ार गरम करता फिरता हैं .
काशी के कंठ में कालकूट और नाभि में अमृत है .
बनारस के जोड़ का शहर मिलना मुश्किल है
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