Friday, March 27, 2009

बहुत कठिन है अकेले रहना


बिन बच्चों घर भूत का डेरा

सालों बाद ऐसा हुआ है कि घर में अकेला हूँ। तीन दिन से प्रेत की तरह इस कमरे से उस कमरे में घूम रहा हूँ। लगातार किसी ना किसी से फोन पर बात कर रहा हूँ। या फोन का, किसी के आने की राह देख रहा हूँ। आभा और बच्चे गाँव गए हैं । इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ वे सब मुझे घर में अकेला छोड़ कर निकल गए हों। अक्सर हम साथ ही बाहर गए हैं। यहाँ तक कि शादी के बाद यदि आभा दो दिन के लिए भी मायके गई हो तो मैं घंटे दो घंटे बाद बिन बुलाए बताए वहाँ हाजिर हो जाता रहा हूँ।

बच्चों को गाँव मिला है। सब वहाँ मस्त हैं। कल फोन पर आभा ने बताया कि भानी ने गाँव पहुँचने के बाद से मुझे पूछा तक नहीं है। उसे मुझसे बात तक करने की फुरसत नहीं है। यही हाल बेटे मानस का भी है।
तीन दिनों में ही मुझे समझ में आ रहा है कि अकेला रहना एक अभिशाप की तरह है। हालाकि यह कैद ए तनहाई ३० को खत्म हो जाएगी। अकेलेपन का रचनात्मक क्या विनाशात्मक प्रयोग भी नहीं कर पा रहा हूँ। हाँ इतना जरूर किया है कि घर से थोड़ा कूढा हो गई किताबों को हटाया है। और एक तुलसी का पौधा लगाया है । उसे देख कर लग रहा है कि वह लग गई है। दिन में जब भी घर में होते हैं उसे पानी दे आते हैं देख आते हैं। याद आ रही है इलाहाबादी कथाकार केशव प्रसाद मिश्र की कहानी और तुलसी लग गई। आप में से किसी के पास होतो पढ़ाने का उपाय करें।

12 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

ये anubhaw hona भी jaruri है

P.N. Subramanian said...

अभी ये हाल है तो बुढापे में क्या करोगे.

अनिल कान्त said...

जिंदगी के दौर में मैंने लगातार २ साल अकेले १ कमरे में बिठाये हैं ...जानता हूँ कि अकेले रहना क्या होता है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

ये कहिए न मार्च में 15 अगस्त मना रहे हैं.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

जेखे पाँव न फटी बिवांई, वा का जानै पीर पराई!

ghughutibasuti said...

नववर्ष की आपको भी शुभकामनाएँ।
देखिए आप आभा व बच्चों के बिना इतने दुखी हैं और चुटकुले बनाने वाले सदा से हमें यही बताते आए हैं कि पति पत्नियों से कितने दुखी रहते हैं व उनके मायके जाने की ही प्रतीक्षा में दिन बिताते हैं। आप अपने ब्लॉग लेखन में नियमित हो जाएँ और भविष्य के लिए भी कुछ रचनाएँ बना कर तैयार कर लीजिए ताकि अगले महीने भी आपका ब्लॉग हमें नियमित नजर आता रहे।
घुघूती बासूती

Rajeev (राजीव) said...

बच्चों के बिना एकाकीपन तो लगता है, परन्तु यह भी अपने आप में अच्छा अनुभव है। सच मानिये, एकांत का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है। स्व-चिंतन, मनन का सुअवसर है और फिर कुछ ही दिनों की बात है। आपके निम्न वाक्यांश को पढ़कर गोस्वमी तुलसीदास की घटना याद आ गयी -
यहाँ तक कि शादी के बाद यदि आभा दो दिन के लिए भी मायके गई हो तो मैं घंटे दो घंटे बाद बिन बुलाए बताए वहाँ हाजिर हो जाता रहा हूँ
एक और तुलसीदास बनने का अवसर भी हो सकता है यह!

दिनेशराय द्विवेदी said...

मनुष्य समूह में रहने वाला प्राणी है। अकेलापन तो अखरेगा। वैसे बच्चे मानसिक रूप से आप के साथ ही हैं।

पारुल "पुखराज" said...

post acchi hai...tippaniyan rochak :)

अनूप शुक्ल said...

कट जायेंगे ये दिन भी। इंतजार करो!

मीनाक्षी said...

सोलह आने सच है यह बात ... हमारा परिवार मुक्तभोगी है..

प्रदीप कांत said...

चलिये आप तो अकेलेपन में अकेलेपन की बात कर रहे हैं। लोग तो भीड़ में भी अकेलेपन से डरते हैं जैसा कि किसी ने कहा भी है -

ज़िन्दगी की राहों में रंज़ो ग़म के मेले हैं
भीड़ है क़यामत की और हम अकेले हैं