Saturday, March 28, 2009

तेरी किताब की ऐसी तैसी



रहूँगा न मैं घर के भीतर

घर किताबों से भर सा गया है। हर तरफ मेरी किताबें...मेरे लिए किताबें। थक रहा हूँ किताबों से। ऊब सी न हो जाए उसके पहले सोच रहा हूँ कि किताबों की खरीद पर रोक लगा दूँ। मेरे पास जिनकी किताबें हैं उन्हें बजिद लौटा रहा हूँ। प्रकाशकों के यहाँ से गलत आ गई किताबें उन्हें वापस कर रहा हूँ। कई आकर्षक शीर्षकों वाली किताबें छल गईं हैं। पहली बार ऐसा हो रहा है कि कुछ नए कवियों कहानीकारों के संग्रहों को भी वापस कर रहा हूँ। प्रकाशक पता नहीं क्या सोच कर किताबें छाप देते हैं। कोई अजीब आलोचक न समझ में आने वाली भाषा और वाक्यों में उस किताब के बारे में कुछ लिख देगा। बस हो गया काम तमाम।


नई किताबों के लिए सच में घर में कोई जगह ही नहीं बची है। मन खट्टा सा हो रहा है। टांड तक पर किताबें लदी है। आज निर्णय ले रहा हूँ कि 2010 के मार्च तक किसी किताब को घर में घुसने नहीं दूँगा। तेरी किताब की ऐसी तैसी। किताबों से बैर नहीं है । यह वाक्य छापकर दुखी हूँ लेकिन दशा ऐसी ही है। पढ़ने का अवसर कम होता जा रहा है और किताबें गंजती जा रही हैं। किसी भी बात की हद होती है। मेरे यहाँ किताब की हद हो गई है। एक अभिनेता मित्र के यहाँ 300 किताबें कल पहुँचा चुका हूँ। वे खुद उलझन में हैं कि उन किताबों का क्या करेंगे।


घर है कोई लाइब्रेरी नहीं। बच्चे संकोची हैं बोलते नहीं इसका मतलब यह तो नहीं कि भानी के तकिए में मैं किताबों को भर दूँ। अपनों पर यह भी तो एक तरह का टार्चर है कि उन्हें किताबों से लाद दो। हाँ सचमुच में अति हो गई है।

किताबों की छंटनी के समय सोचता रहा कि क्या यह केवल मेरा घर है। और दुखी हो रहा हूँ । अगर यही हालात रहे तो घर अपना नहीं रह जाएगा केवल किताबें रह जाएगीं। निराला कि एक पंक्ति याद आ रही है-

रहूँगा न मैं घर के भीतर
जीवन मेरे मृत्यु के विवर।

24 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

मैने दो साल पहले अपने संग्रह में कुछ (१५%) छंटनी की थी। बिल्कुल सर्जरी की तरह।
खैर मेरा किताबघर इतना ठसा ठस नहीं भरा है। अभी घर में भी जगह है और दिल में भी!

अनूप शुक्ल said...

किताबें पढ़ पाने का समय न मिल पाना दुखद है। लेकिन किताबें वापस कहां भेज रहो हो? कुछ हमें भी भेज दो भाई!

बोधिसत्व said...

ज्ञान भाई दिल में तो मेरे भी जगह है लेकिन उसे खेल कर किताब नहीं रख सकता।
अनूप जी पता छापें. किताबें पहुँच जाएँगी

pallav said...

kash main mumbaikar hota aur aapke ghar ke bahar raddiwala bankar aa pata.

बोधिसत्व said...

पल्लव जी
कोई किताब आज तक किसी कबाड़ी को नहीं बेंची है। मैं तो साहित्यिक पत्रिकाएँ भी कबाड़ या रद्दी में नहीं देता।

Yunus Khan said...

आपकी बात समझ में आती है, आपका किताबों से ठुंसा कमरा देखा भी है । पर मैं नहीं चाहूंगा कि आप किताबों से मुक्ति पा लें । छंटनी का विचार अच्‍छा है । नई किताबें ख़रीदने पर तदर्थ रोक भी ठीक है । पर मुझे लगता नहीं है कि आप आगे खुद को रोक पायेंगे ।

Waterfox said...

अरे पल्लव जी। एक किताब खरीदी नाम था: बीसवीं सदी की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कहानियां। इतनी घटिया किताब की दुःख हो गया!

Bahadur Patel said...

aapaki chinta vajib hai.
kitaben kharidane se ham apane apako rok nahin payenge.
kitaben raddi me benchana to hamare khoon me nahin.

Rajeev (राजीव) said...

बोधि जी, अनूप जी ने तो कह ही दिया है। हम भी कतार में हैं, पढ़ना तो पसन्द हम भी करते थे, पर अब तो अंतर्जाल पर पढने की सामग्री सभी वक्त ले लेती है। आप ऐसा करें कि निकालने वाली किताबों की फहरिस्त प्रकाशित कर दें। फिर पहले आओ, पहले पाओ अथवा विवेकानुसार / रुचि अनुसार आवंटन कर दें।

संगीता पुरी said...

आजकल छोटे घरों मे और बढती धूल धक्‍कड से पढने लिखने के शौक में भी दिक्‍कतें आती हैं ... किताबे संभाल पाना मुश्किल हो जाता है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

जिस पुस्तक को आप समझें कि आप दुबारा नहीं पढ़ेंगे और वह एक संदर्भ भी नहीं हो सकता उन्हें अलग रखें और विवाहादि अवसरों पर भेंट करना शुरू कर दें।

बोधिसत्व said...

दिनेश जी विवाहादि पर क्या मैं तो वैसे भी किताबें ही भेंट करता हूँ किंतु किताबें पाकर कम ही लोग खुश होते हैं।

दर्पण साह said...

Sir please ho sake to kuch kitabein mujhe pahunch dijiyega(main serious hoon).

Darpan Sah
c/o Ramkrishna Niwas
Gangola Mohalla
Almora-263601
Uttarakhand.

दर्पण साह said...

Sir please ho sake to kuch kitabein mujhe pahunch dijiyega(main serious hoon).

Darpan Sah
c/o Ramkrishna Niwas
Gangola Mohalla
Almora-263601
Uttarakhand.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

मेरी आलमारी में अभी बहुत जगह बाकी है।
मेरा पता: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, कलेक्ट्रेट इलाहाबाद-२

Ashok Kumar pandey said...

गुरु जी पता लीजिये

508' भावना रेसिडेन्सी, सत्यदेवनगर, गान्धी रोड,ग्वालियर 474002

सन्गठन की लाईब्रेरी मे काम आयेन्गी।

Unknown said...

....kash aap allapur jitne najdik hote to ye naubat nahi aati....aalmariya bhrne se pahle hi khali ho jati.....

Unknown said...

बहुत बाड़िया...

मे कुछ जान ना चाहता हूँ वो ये हे की.. आप कौनसी टाइपिंग टूल यूज़ करते हे…?

रीसेंट्ली मे यूज़र फ्रेंड्ली टूल केलिए डुंड रहा ता और मूज़े मिला “क्विलपॅड”…..आप भी इसीका इस्तीमाल करते हे काया…?

सुना हे की “क्विलपॅड” मे रिच टेक्स्ट एडिटर हे और वो 9 भाषा मे उपलाभया हे…! आप चाहो तो ट्राइ करलीजीएगा…

http://www.quillpad.in

Sanjeet Tripathi said...

अफसोस!

देखो भैया, अपन अभिनेता तो क्या नेता भी नईं है लेकिन ऐसे तो हैं कि किताबें तो आप हमें दे ही सकते हो ;)

प्रदीप कांत said...

किताबों पर आपकी चिन्ता से मुझे मज़रूह का एक शेर याद आ गया-

मजरूह लिख रहे हैं वो अहले वफ़ा के नाम
हम भी खड़े हुऐ हैं गुनाहगार की तरह

किताबें पाने वालों की कतार में!!!

यद्यपि समय नहीं मिलता पूरी नहीं तो कुछ तो पढ़ ही लेंगे।
कहिये तो पता बता दें

प्रदीप कान्त
सी-26/5, आर आर केट कॉलोनी
इन्दौर - 452 013
म प्र

Bahadur Patel said...

abhi tak to aapake ghar par daka pad jana chahiye tha.

shashi said...

boss mere pas bhi kitabe bahut ho gai hain. ye alag bat hai ki mujhe jyadatar kora lagati hain. kisi ko chahiye to bole. aap sakriya hain, is bat ki khushi hai mere pyare kavi.
shashi bhooshan dwivedi

बोधिसत्व said...

तुम्हारी टीप पाकर अच्छा लगा। किताबें किसी गुणग्राही को दे दो। और कोई उपाय नहीं है।

बसंत आर्य said...

ये मुम्बई की समस्या है भाई. यहाँ तो पुस्तकालय वाले भी किताबे लेने से इनकार कर देते है. मैने खुद कई किताबें लाईब्रेरी मे जाकर छोड आया हूँ जैसे कोई बच्चे को अनाथालय मे छोड आता है कि शायद उनका लालन पालन ठीक ठाक हो जाये