Saturday, May 30, 2009

दीना की याद

लगता नहीं कि दीना नहीं है

हम और दीना नाथ ज्ञानपुर में एक साथ पढ़ते थे। जब हम मिडिल स्कूल बनकट में पढ़ते थे तब दीना नाथ दुबे और दीना नाथ पाल ये दो दीना हमारे अच्छे मित्रों में से थे। आज मैं दीना नाथ पाल को याद कर रहा हूँ। मेरे सहपाठियों में दीना पाल सब से सुलझे और सामाजिक थे। यदि किसी मित्र को बुखार हो तो उसे अपनी सायकिल पर बिठा कर उसके घर छोड़ना और कई दिनों तक उसे स्कूल ले जाना दीना नाथ का कर्तव्य बन जाता था। पढ़ने में तमाम विद्यार्थियों से बेहतर होने पर भी दीना नाथ बहुत आगे तक नहीं पढ़ पाए। किसी-किसी तरह बारहवीं की परीक्षा देकर दीना नाथ मुंबई चले आए। यह बात 1986 की है।

दिना नाथ से बिछड़ना मेरे लिए एक असह्य घटना थी। मैं ज्ञानपुर से इलाहाबाद पढ़ने आ गया। लेकिन हम दोनों चिट्ठियों के जरिए लगातार सम्पर्क में बने रहे। मुंबई आ कर दीना नाथ ने कुछ टेक्निकल कोर्स करके टीवी रिपेयरिंग का काम सीखा और और दहीसर इलाके में अपनी एक रिपेयरिंग की दुकान भी खोल ली। लेकिन दीना नाथ अपने पूरे जीवन से कभी सुखी न रहे। वे पढ़ना चाहते थे। किंतु घरेलू आधार ऐसा था नहीं कि दीना नाथ लग कर कुछ कर सकें। कई चिट्ठियाँ ऐसी रहीं जिनमें दीना नाथ ने जीवन का रण हार जाने जैसा बयान दिया था। मैं पढ़ाई में जैसा भी था दीना नाथ के पसंग बराबर भी नहीं था। भौतिक शास्त्र से लेकर रसायन तक सब में दीना नाथ मेरे तारण हार थे। हमारा गाँव करीब तीन-चार कीलोमीटर के फासले पर था फिर भी दीना नाथ मेरे घर आ कर मुझे पढ़ा जाते। एक पिछड़ी जाति का लड़का मुझ अगड़े के बेटे को पढ़ने आता है यह बात मेरी ताई जी को बहुत दुख देती थी। वे ताना मारते हुए कहतीं कि अब इहै तोहे पढ़ाई। फिर भी मैं पढ़ता रहा क्योंकि मैं सचमुच में दीना नाथ को अपना सखा मानता था। मुझे इसमे कोई उलझन भी नहीं थी।

हम लोग गाँव से कॉलेज तक के लगभग 15 कीलोमीटर रास्ते में फिल्मों का कथानक सुनते सुनाते आते जाते थे। संवाद और गानों के साथ कोई एक मित्र पूरी फिल्म सुनाता था। यह एक अदभुत यात्रा होती थी। शुरू से दि इंड तक किसी भी हिट फ्लाप कैसी भी फिल्म का सिनारियो पूरा का पूरा। इंटरवल पर हम कहीं चाय पीते। दीना नाथ राखी के भक्त थे और अक्सर उनकी फिल्मों की कहानी सुनाते थे।

हमारे मेल जोल का बहुत स्वागत न था। एक बार तो हद ही हो गई। बात 1995 की होगी। गर्मियों में दीना नाथ मुंबई से गाँव आए। हमारी पहले ही चिट्ठी के जरिए बात हो गई थी। दीना नाथ ने बहुत बड़ा पक्का घर बनवाया था। उसका गृह प्रवेश था। मुझे खुशी थी कि दीना नाथ का खपरैल पक्का हो गया। मैं भी उनके समारोह में पहुँचा। लेकिन पिता जी ने न्योता खाने न जाने दिया। दीना नाथ को यह बात थोड़ी अखर गई। अगले दिन मैं किसी बहाने घूमते घामते दीना के घर पहुँचा। पता चला कि रसोईं तैयार है। लोग खाना खाने जा रहे हैं। संकोच के साथ दीना के पिता ने मुझे भी खाने को कहा। हालाकि उनकी माँ ने रोकना चाहा। कच्ची रसोईं ( अभी भी गाँवों में तली हुई पूड़ियाँ यानी पक्की रसोई तो एक पिछड़े के घर में खाई जा सकती है, लेकिन चावल दाल रोटी जिसे कच्ची रसोईं कहते हैं खाने की परम्परा नहीं है) में किसी ब्राह्मण के बटे को कैसा जिमा सकता है एक गड़ेरिया। लेकिन मैं खाने के लिए बैठ गया। इसी बीच में न जाने कहाँ से मेरे पिता जी आ गए। शायद उन्हें मेरे दीना नाथ के घर जाने की भनक लग गई थी। पिता जी को मित्रता में नहीं भोज भात में आपत्ति थी। और वे बदलने को कतई तैयार न थे। मैं पीढ़े पर बैठा था वे सामने खड़े थे, मेरे हाथ में भात का कौर। मुझे लगा कि पिता जी कुछ बावेला करेंगे। लेकिन उन्होंने सिर्फ और सिर्फ मुझे गरदन के पीछे से कालर पकड़ कर उठाया और जूठे मुह जूठे हाथ घर तक ले आए। मैं विरेध कर सकता था लेकिन मामला हिंसक हो सकता था इसलिए चुपचाप चला आया। उसी रात पिता जी ने मुझे इलाहाबाद के लिए विदा करवा दिया।

इसके बावडूद हम और दीना नाथ सम्पर्क में रहे। लेकिन यह थाली छोड़ कर उठने की घटना मुझे पराजित कर गई थी। पिता जी कि वह हुंकार हमेशा उनके प्रति एक असम्मान का भाव जगाती रहती रहती थी। लेकिन कुछ भी बोलना न हो पाया।
फिर 2002 में मैं मुंबई आ गया हमारी मुलाकाते रहीं। मैंने दीना नाथ के घर जाकर कच्ची रसोईं खाई। दीना नाथ हंसते रहे। उन्हें लगा कि मैं उनका वही पुराना मिड़िल से लेकर इंटर तक वाला मित्र हूँ।

2007 के मार्च महीने में मुंबई के लोअर परेल में रेल ट्रैक पार करते हुए दीना नाथ दुर्घटना का शिकार हो गए। हमने अपने दीना को खो दिया। उसे कहीं जाने की बहुत जल्दी थी। वह सदा के लिए चला गया। हमारी जितनी अच्छी समझदारी भरी दोस्ती दीना नाथ से थी उतनी बहुत कम मित्रों से हो पाई है। हम दोनों को हमारी मैत्री पर अभिमान था। तमाम सामाजिक भेदभाव के बादजूद हम मित्र रहे।

इसमें एक अजीब बात है, दीना को खोकर भी लगता नहीं कि वह नहीं है। उसका मुस्कराता चेहरा सदा सामने रहता है। एक और बात सिनेमा की तरफ मुझे मोड़ने में दीना नाथ का बहुत गहरा योग है। टीवी सीरियल रजनी के दौर में दीना नाथ के चचेरे भाई रजनी यानी प्रिया तेंदुलकर के ड्राइवर होते थे। उनके द्वारा सुने सिनेमा के आंतरिक किस्सों ने मुझे मुझे मुंबई आने का सपना दिया। ये बाते यहाँ नहीं लिख सकता, क्योंकि यह सारा वाकया अपनी चवन्नी के लिए लिखा है तो जल्द ही वहाँ पढ़ें।

13 comments:

रंजन (Ranjan) said...

बहुत प्यारा दोस्त था आपका..

Gyan Dutt Pandey said...

दीना जी का स्मरण मेरी भी कई पुरानी यादेँ हरी कर गया। पर मेरी किस भी याद में इतनी चटक हरियाली नहीं है जितनी इस संस्मरण में है।

शिरीष कुमार मौर्य said...

पढ़ना शुरू किया तो पता नहीं था पोस्ट के अंत में धक्का लगेगा. क्या कहूँ - आपने दोस्त खो दिया- और मैने शब्द.

अजय कुमार झा said...

deenaa jee kee dukhad mrityu ne bhaavuk kar diyaa...bas yaadein hee reh jaayengee aapke paas ....is sansmaran se bahuton ko bahut kuchh yaad aa jaayegaa...

शरद कोकास said...

बोधि भाई,दहीसर मे बुआ और लोअर परेल मे चाचा के यहाँ जाता रहा हूँ .पढते पढते सोच रहा था अबके आपके साथ दीनानाथ के यहाँ जाउंगा लेकिन..सच है ऐसे लोग जीवन मे हमे सही दिशा देकर खुद कहीं और् चले जाते हैं.

अनूप शुक्ल said...

मार्मिक संस्मरण! दोस्त के बिछड़ने के बावजूद यह एहसास होना कि वो कहीं गया नहीं है इसको मैं समझ सकता हूं।

Vaibhav Rai Dwivedi said...

आप का यह संस्मरण बहुत कुछ स्मरण करा गया।

Ashok Kumar pandey said...

गुरुजी…यह पोस्ट पढकर केदार जी की वह कविता और साखी में लिखा वह संस्मरण याद आया जो कसया के अपने पुराने मित्रअ के लिये उन्होंने लिखा था।
ये दोस्तियां ही हमें बाज़ार में मनुष्य के रूप में बचाये रख पाती हैं वरना दोस्त और कस्टमर का फ़र्क ही कहां रहा।

बोधिसत्व said...

अशोक भाई
हो सके तो केदार जी की वह कविता असुविधा पर छाप दें। अच्छा लगेगा। मित्रता आज भी एक भरोसे का शब्द बना है यह क्या कम बड़ी बात है।

Ashok Kumar pandey said...

बिल्कुल जल्दी ही लगाता हूं हमकलम पर्।

http://hamkalam1.blogspot.com

अजित वडनेरकर said...

भावुक और मार्मिक संस्मरण...

Priyankar said...

मार्मिक !

bablu tiwari said...

भूल गया हूं जिसे, क्यों छेड़ देते हो.

यार इतने दिल से, क्यों लिखते हो..

बोधिसत्व जी आपके लेख के साथ मुझे भी बहुत कुछ याद आया और आंखे डबडबा गई..

आपका शुक्रिया पुरानी और जीवंत यादें ताजा कराने का..