Wednesday, February 28, 2007

कबित्त-बोधिसत्व

छोटा आदमी

छोटी-छोटी बातों पर
नाराज हो जाता हूँ ,
भूल नहीं पाता हूँ कोई उधार,
जोड़ता रहता हूँ
पाई-पाई का हिसाब
छोटा आदमी हूँ
बड़ी बातें कैसे करूँ ?

माफी मांगने पर भी
माफ़ नहीं कर पाता हूँ
छोटे-छोटे दुखों से उबर नहीं पाता हूँ ।

पाव भर दूध बिगड़ने पर
कई दिन फटा रहता है मन,
कमीज पर नन्हीं खरोंच
देह के घाव से ज्यादा
देती है दुख ।

एक ख़राब मूली
बिगाड़ देती है खाने का स्वाद
एक चिट्ठी का जवाब नहीं
देने को
याद रखता हूं उम्र भर
छोटा आदमी
और कर ही क्या सकता हूँ
सिवाय छोटी-छोटी बातों को
याद रखने के ।


सौ ग्राम हल्दी,पचास ग्राम जीरा
छींट जाने से
तबाह नहीं होती ज़िंदगी,
पर क्या करूँ
छोटे-छोटे नुकसानों को गाता रहता हूँ
हर अपने बेगाने को
सुनाता रहता हूँ
अपने छोटे-छोटे दुख ।


क्षुद्र आदमी हूँ
इन्कार नहीं करता,

एक छोटा सा ताना,
एक मामूली बात,
एक छोटी सी गाली
एक जरा सी घात
काफी है मुझे मिटाने के लिए,
मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ
हल्की हवा भी
बहुत है मुझे बुझाने के लिए।

छोटा हूँ, पर रहने दो,
छोटी-छोटी बातें
कहता हूँ-कहने दो ।

3 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

यह कविता किसी को भी आपका कायल बना देगी। बहुत ही सुन्दर रचना।

*** राजीव रंजन प्रसाद

ALOK PURANIK said...

ऐसी कविताएं अब भी संभव हैं, और वो भी एक बंदे द्वारा, जो टीवी जैसे मारु माध्यम में मुंबई जैसे सुपर मारु शहर में हो। मैं आपका कायल हो गया हूं। और कविताओँ की प्रतीक्षा में ब्लाग पर रोज आऊंगा
आलोक पुराणिक

बोधिसत्व said...

आलोक जी मेरा जोर चलेगा तो मैं आप के लिए रोज कोई ना कोई कविता जरूर चिपकाऊँगा।
आप से बात भी करना चाहूँगा।