
बहुत दिनों से वादा करके भी विनय पत्रिका पर कुछ नहीं चढ़ाया था, सो निराला पर लिखी यह कविता छाप रहा हूँ। यह इस कविता का पहला प्रकाशन है। आप सब की प्रतिक्रिया अपेक्षित है, बेनाम गुमनाम कुछ भी चलेगी।
(1)
इलाहाबाद के बाँध रोड़ पर
भीड़ से घिरा
खड़ा था वह
दिशाहारा
हर तरफ कुहरा था घना
जाड़े की रात थी
नीचे था पारा।
तन पर तहमद के अलावा
कुछ नहीं था शेष
जटा-जूट
उलझी दाढ़ी
चमरौधा पहने वह
फिर रहा था मारा-मारा।
कई दिनों से भूखा था
वह
अपनों का दुत्कारा
भूल गया था वह कैसे
जाता है पुकारा।
वह चुप था नीची किए आँख
सुनता था न समझता था,
छाई थी चहुँ दिस सघन रात।
कुछ ने पहचाना उसको
कुछ ने कहा है मतवाला,
कोलाहल में गूँज रहा था
निराला...निराला.....निराला।
(2)
वह निराला नहीं था तो
निराला जैसा क्यों दिख रहा था
वह निराला नहीं था तो
कुहरे पर क्यों
लिख रहा था ।
(3)
धीरे-धीरे छंटी भीड़
अब वह था और दिशाएं थी
कुछ बाँध रोड पर गाएं थीं
काँजी हाउस की ओर
उन्हें हाँका जा चुका था
वे हड्डी थीं और चमड़ा थीं
उनकी रंभाहट से विध कर
खड़ा रहा वह बेघर
फिर धीरे-धीरे चढ़ी रात
वह कृष्ण पाख की विकट रात
था दूर-दूर तक अंधियारा
अशरण था वह दुत्कारा।
(4)
जाने को जा सकता था घर
पर मन में बैठ गया था डर
लोटे से मारेगा बेटा
बहू कहेगी दुर...दुर..दुर...।
सुनने सहने की शक्ति नहीं
आँखें झरतीं थी झर-झर-झर
बूढ़े पीपल के तरु तर
हाथ का बना तकिया
चुपचाप सो गया वह थक कर।
(5)
रात गए जागा वह बूढ़ा
खिसका अपनी जगह से
जैसे खिसकते हैं तारे
बिना सहारे
और गंगा के कछार की तरफ
बढ़ गया
फिर वहां गायों का झुंड नहीं था
रंभाहट नहीं थी
पर लगता था वह घिरा है
देखने वालों की भीड़ से
गायों की रंभाहट चादर बन कर
छाई है उस निराला जैसे आदमी पर
कैसा-कैसा हो आया मन
मैं वहाँ क्या कर रहा था
जब वो आदमी मर रहा था
मैं सच में वहां था या
कोई सपना निथर रहा था
अगर यह सपना नहीं था तो
वह आदमी कौन था जो लग रहा
अपना था
अंधकार में वह क्यों रोया था
क्या उसने सचमुच में बहुत कुछ खोया था ।
(6)
कई दिन हुए उसे घर छोड़े
पर कोई उसे ढूंढने नहीं निकला
न पूछने आया कोई दारागंज से
न गढ़ाकोला से
महिसादल से
न निकला कुल्ली भाट न बिल्लेसुर बकरिहा
न चतुरी चमार
सरोज तो आ सकती थी
खोजते हुए
पर भूल रहा हूँ
वह तो नहीं रही पहले ही
उसका तर्पण तो किया था इस बूढ़े ने ही
अब कोई नहीं जो ले खोज खबर
अब जाए कहाँ क्या करे काम
किसको बतलाए नाम-धाम
उससे किसी को स्नेह नहीं
वह पानी वाला मेह नहीं
उसका कोई इतिहास नहीं
कुछ छोटे-छोटे प्रश्नों के
उत्तर की कोई आस नहीं
घटना यह कोई खास नहीं
आए दिन होता है लाला
कुछ सोचो मत अब जाओ घर
गंगा की रेती पर वृद्ध प्रवर
मरता है तो मरने दो
बस अपनी नौका को तरने दो ।
(7)
उसकी गाँठ में कुछ नहीं था
वह किसी को नहीं दे सकता था
कुछ भी आशीष और शाप के सिवा
वह बुझ गया था छिन गई थी
उसकी चमक-दमक की दुनिया में
वह आह की तरह था
एक कटी बाँह को सहलाती
दूसरी बाँह की तरह था
वह ऐसे था जैसे
धरती के बनने से जागा हो
वह ऐसे था जैसे
कपड़े के थान से नुचा कोई धागा हो।
(8)
पुलिन पर वह आजाद था
तारों की तरह
गायों की तरह
उसे हाँकने वाला कौन था
उस अँधेरे गंगा के कछार में
उसकी खोज में झाकने वाला कौन था ?
(9)
मैं उस बेघर को ला सकता था घर
चलो न लाता तो
उसके घावों को सहला तो सकता था
पूछ तो सकता था कि वह रोता क्यों है
वह अपने को अंधकार में खोता क्यों है
पर मैं भी दर्शक था
देखता रहा
उस बूढ़े को
रोते हुए देखता रहा
उसे अंधकार में खोते हुए।
(10)
धरती का यह कौन सा कोना है
जहाँ बूढ़े रोते हैं
घरों से निकल कर
रोती हैं औरतें चूल्हों में सुलग कर
वह कौन सा नगर कौन सा शहर है
जहाँ लोगों को चुप कराने का
चलन नहीं रहा बाकी
रातों में जाग कर रोती है
अब भी प्रेमचंद की बूढ़ी काकी
रोता है निराला सा वह दढ़ियल।
(11)
कुछ दिनों बाद वह बूढ़ा मुझे दिखा
दारागंज में ठाकुर कमला सिंह के यहाँ
ठठवारी करते
गोबर उठाते सानी-पानी करते
रखवारी करते
रोटी पर रख कर दाल-भात खाते
झाड़ू लगाते
अगले दिन वह दिखा
हनुमान मंदिर के बाहर
हाथ पसारे दाँत चियारे
अगले दिन वह मिला
नेहरू का आनन्द भवन अगोरते हुए
घास नोचते हुए
अगले दिन दिखा
पंत उद्यान में पंत से रोते दुखड़ा
छूकर देखता पंत का उजला मुखड़ा
अगले दिन वह दिखा हिंदी विभाग के आगे
अपनी सही व्याख्या के लिए अनशन पर बैठे
नारा लगाते
ऐंठे अध्यापकों से लात खा कर भी डटा था वह
पर अध्यापक उसे
समझने के लिए
नहीं थे तैयार.....
(12)
हिंदी विभाग से वह कहाँ गुम हुआ
कह नहीं सकता
पर बिना बताए रह भी नहीं सकता
आखिरी बार उसे देखा गया
रसूलाबाद घाट पर
चंद्रशेखर आजाद की चिता भूमि पर
गुम-सुम बैठे
उसके पास एक पोथी थी
साहित्यकारों की संसद में नई
पोस्ट आई थी
उसे लगा था कि वह लग सकता है काम पर
लेकिन संसद के लोग चुप थे उसके नाम पर।
वहाँ भी नहीं मिला ठौर
अब कहाँ उठाएगा कौर
सोचता हुआ गया
घाट तक जहाँ कई चिताएं जल रही थीं
पानी पर कई नावें चल रहीं थीं
चल रहा था क्या उसके मन में
कहना कठिन है
वैसे यह समय
किसी भी निराला के लिए दुर्दिन है।
(13)
रसूलाबाद घाट के बाद
निराला जैसा दिख रहे उस आदमी की
कोई थाह नहीं मिली
वह गुम गया कहीं अपनों का त्यागा अभागा
रह गए कुछ सवाल जिनके जवाब कौन दे
कौन बताएगा कि
वो बूढ़ा बोलता क्यों नहीं था
अपने दुखों पर क्यों था चुप
क्यों रहता था छिप कर
उसके अपराध क्या थे
क्यों जीता जाता था
उसके साध क्या थे
हालाकि ये सारे सवाल पूछते हुए
डरता हूँ
जब उससे नहीं पूछ पाया तो
अब यह सवाल क्यों उठाता हूँ
जैसे सब भूल गये हैं उसे मैँ भी
क्यों नहीं भूल जाता हूँ
क्या जरूरत है अब किसी
बेघर बूढ़े की बात उठाने की
क्या जरूरत है उस बूढ़े को ढूंढने की
इस देश में एक वही तो नहीं था दुत्कारा।
(14)
रसूलाबाद घाट की सीढ़ियों पर
लिखा मिला उसी जगह
खड़िया से एक वाक्य
जिस पर थोड़ी दुविधा है
कुछ का कहना है
कि यह उसी पागल बूढ़े के हाथ का
लेखा है
कुछ का कहना है कि
यह घाट पर रहने वालों में से किसी ने लिखा है
बकवास है
लिखा था वहाँ-
‘जितना नहीं मरा था मैं
भूख और प्यास से
उससे कहीं ज्यादा मरा था मैं
अपनों के उपहास से’ ।