पिता पर मैंने पहले भी कई कविताएँ लिखी हैं । मेरे सभी संग्रहों में उनके लिए कविताएँ हैं । पता नहीं क्यों बार-बार उनका प्रसंग मेरे सामने आ जाता है । आप मान सकते हैं कि मैं पिता का मोह छोड़ नहीं पा रहा हूँ। क्या करूँ। यह कविता पहली बार यहीं प्रकाशित है।
हार गए पिता
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।
1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......
बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।
रचना तिथि- १३ अक्टूबर २००७
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14 comments:
बोधि भाई,
दिल को छू गई कविता
दिखा गई;
पिता के प्रति बेटे का प्यार
सुना गई;
काल के सामने आदमी की बेबशी
बता गई;
क्या होती है जीने की लालशा
क्यूँ कहें हम कि;
माया है संसार
काल हमेशा ही जीतता है. यह सच और इसे कोई नहीं बदल सकता.
मैं भी संसार को माया नहीं मानता शिव भाई।
काकेश जी पिता तो केवल मोहलत चाह रहे थे.....अमर होने की चाहत तो उनकी भी नहीं थी।
टची!!
इन दिनो मै खुद अपने पिता की स्मृतियों में डूबा हूं पांच दिन बाद उनकी पुण्यतिथि है।
काश, हम इंसानों के बस मे होता इस तरह मोहलत पा जाना....
-बहुत सुन्दरता से पिता जी की स्मृतियों को सहेजा है. नमन उनकी पुण्य स्मति को. अति मार्मिक.
बन्धु, हार-जीत किसकी हुई, उसमें नहीं पड़ता। पर पढ़ते हुये दोनो आंखों में एक-एक खारी बून्द डबडबाने लगी।
और अपने बब्बा की याद हो आयी। अंत समय पहचान नहीं रहे थे। मेरी गोद में थे और मुझे डाक़्टर समझ कर आश्वस्थ थे कि मैं उन्हें ठीक कर दूंगा!
बोधिसत्व , इन महत्वपूर्ण कविताओं की रचना तिथि दिया करें ।
मार्मिक है भई। पिता का न रहना, जैसे सिर से आसमान का हटना होता है।
मार्मिक कविता।
मार्मिक कविता।
भाई अफलातून जी
आगे से कविताओं की रचना तिथि दे दिया करूँगा। कल परसों से याद कर रहा था पिता को और उनकी बातों को । आरम्भिक पंक्तियाँ कल से ही मन में घुमड़ रही थीं। पर बाकी कविता आज सुबह सीधे कम्यूटर पर लिखी गई है । आप रचना की तिथि 13 अक्टूबर 2007 मान सकते हैं।
बंड़े भाई आपको शायद याद नहीं होगा, आपके पिता के न रहने के दिनों में हम कानपुर एक साक्षात्कार में मिले थे और मेरे पिता के साथ कुछ देर बैठे थे। मुझे ये सब बहुत संवेदनशील लगता है। हर कोई अपने पिता को एक दिन खो देता है - डर लगता है यह सोचकर। बहुत मार्मिक है यह कविता - लगभग रुला देने वाली।
तुम सही कह रहे हो शिरीष...हम कर भी क्या सकते हैं.....सिवाय पिता को याद करने के ।
इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे -------- पढ़ते पढ़ते आँखों के रास्ते दर्द आँसुओं के रूप मे बाहर आने लगा. दो साल तक बिना आवाज़ जिए और मेरी कविताओं की छपी पुस्तक का सपना लेकर चले गए. दबा कर रखे दर्द को आज आपकी कविता ने बेदर्दी से कुरेद दिया.
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