Tuesday, May 15, 2007

इलाहाबाद में निराला



बहुत दिनों से वादा करके भी विनय पत्रिका पर कुछ नहीं चढ़ाया था, सो निराला पर लिखी यह कविता छाप रहा हूँ। यह इस कविता का पहला प्रकाशन है। आप सब की प्रतिक्रिया अपेक्षित है, बेनाम गुमनाम कुछ भी चलेगी।


(1)

इलाहाबाद के बाँध रोड़ पर
भीड़ से घिरा
खड़ा था वह
दिशाहारा
हर तरफ कुहरा था घना
जाड़े की रात थी
नीचे था पारा।
तन पर तहमद के अलावा
कुछ नहीं था शेष
जटा-जूट
उलझी दाढ़ी
चमरौधा पहने वह
फिर रहा था मारा-मारा।
कई दिनों से भूखा था
वह
अपनों का दुत्कारा
भूल गया था वह कैसे
जाता है पुकारा।
वह चुप था नीची किए आँख
सुनता था न समझता था,
छाई थी चहुँ दिस सघन रात।
कुछ ने पहचाना उसको
कुछ ने कहा है मतवाला,
कोलाहल में गूँज रहा था
निराला...निराला.....निराला।

(2)

वह निराला नहीं था तो
निराला जैसा क्यों दिख रहा था
वह निराला नहीं था तो
कुहरे पर क्यों
लिख रहा था ।

(3)

धीरे-धीरे छंटी भीड़
अब वह था और दिशाएं थी
कुछ बाँध रोड पर गाएं थीं
जो बहिला* थीं
काँजी हाउस की ओर
उन्हें हाँका जा चुका था
वे हड्डी थीं और चमड़ा थीं
उनकी रंभाहट से विध कर
खड़ा रहा वह बेघर
फिर धीरे-धीरे चढ़ी रात
वह कृष्ण पाख की विकट रात
था दूर-दूर तक अंधियारा
अशरण था वह दुत्कारा।

(4)

जाने को जा सकता था घर
पर मन में बैठ गया था डर
लोटे से मारेगा बेटा
बहू कहेगी दुर...दुर..दुर...।
सुनने सहने की शक्ति नहीं
आँखें झरतीं थी झर-झर-झर
बूढ़े पीपल के तरु तर
हाथ का बना तकिया
चुपचाप सो गया वह थक कर।

(5)

रात गए जागा वह बूढ़ा
खिसका अपनी जगह से
जैसे खिसकते हैं तारे
बिना सहारे
और गंगा के कछार की तरफ
बढ़ गया
फिर वहां गायों का झुंड नहीं था
रंभाहट नहीं थी
पर लगता था वह घिरा है
देखने वालों की भीड़ से
गायों की रंभाहट चादर बन कर
छाई है उस निराला जैसे आदमी पर
कैसा-कैसा हो आया मन
मैं वहाँ क्या कर रहा था
जब वो आदमी मर रहा था
मैं सच में वहां था या
कोई सपना निथर रहा था
अगर यह सपना नहीं था तो
वह आदमी कौन था जो लग रहा
अपना था
अंधकार में वह क्यों रोया था
क्या उसने सचमुच में बहुत कुछ खोया था ।
(6)

कई दिन हुए उसे घर छोड़े
पर कोई उसे ढूंढने नहीं निकला
न पूछने आया कोई दारागंज से
न गढ़ाकोला से
महिसादल से
न निकला कुल्ली भाट न बिल्लेसुर बकरिहा
न चतुरी चमार
सरोज तो आ सकती थी
खोजते हुए
पर भूल रहा हूँ
वह तो नहीं रही पहले ही
उसका तर्पण तो किया था इस बूढ़े ने ही
अब कोई नहीं जो ले खोज खबर
अब जाए कहाँ क्या करे काम
किसको बतलाए नाम-धाम
उससे किसी को स्नेह नहीं
वह पानी वाला मेह नहीं
उसका कोई इतिहास नहीं
कुछ छोटे-छोटे प्रश्नों के
उत्तर की कोई आस नहीं
घटना यह कोई खास नहीं
आए दिन होता है लाला
कुछ सोचो मत अब जाओ घर
गंगा की रेती पर वृद्ध प्रवर
मरता है तो मरने दो
बस अपनी नौका को तरने दो ।

(7)

उसकी गाँठ में कुछ नहीं था
वह किसी को नहीं दे सकता था
कुछ भी आशीष और शाप के सिवा
वह बुझ गया था छिन गई थी
उसकी चमक-दमक की दुनिया में
वह आह की तरह था
एक कटी बाँह को सहलाती
दूसरी बाँह की तरह था
वह ऐसे था जैसे
धरती के बनने से जागा हो
वह ऐसे था जैसे
कपड़े के थान से नुचा कोई धागा हो।

(8)

पुलिन पर वह आजाद था
तारों की तरह
गायों की तरह
उसे हाँकने वाला कौन था
उस अँधेरे गंगा के कछार में
उसकी खोज में झाकने वाला कौन था ?

(9)

मैं उस बेघर को ला सकता था घर
चलो न लाता तो
उसके घावों को सहला तो सकता था
पूछ तो सकता था कि वह रोता क्यों है
वह अपने को अंधकार में खोता क्यों है
पर मैं भी दर्शक था
देखता रहा
उस बूढ़े को
रोते हुए देखता रहा
उसे अंधकार में खोते हुए।

(10)

धरती का यह कौन सा कोना है
जहाँ बूढ़े रोते हैं
घरों से निकल कर
रोती हैं औरतें चूल्हों में सुलग कर
वह कौन सा नगर कौन सा शहर है
जहाँ लोगों को चुप कराने का
चलन नहीं रहा बाकी
रातों में जाग कर रोती है
अब भी प्रेमचंद की बूढ़ी काकी
रोता है निराला सा वह दढ़ियल।

(11)

कुछ दिनों बाद वह बूढ़ा मुझे दिखा
दारागंज में ठाकुर कमला सिंह के यहाँ
ठठवारी करते
गोबर उठाते सानी-पानी करते
रखवारी करते
रोटी पर रख कर दाल-भात खाते
झाड़ू लगाते
अगले दिन वह दिखा
हनुमान मंदिर के बाहर
हाथ पसारे दाँत चियारे
अगले दिन वह मिला
नेहरू का आनन्द भवन अगोरते हुए
घास नोचते हुए
अगले दिन दिखा
पंत उद्यान में पंत से रोते दुखड़ा
छूकर देखता पंत का उजला मुखड़ा
अगले दिन वह दिखा हिंदी विभाग के आगे
अपनी सही व्याख्या के लिए अनशन पर बैठे
नारा लगाते
ऐंठे अध्यापकों से लात खा कर भी डटा था वह
पर अध्यापक उसे
समझने के लिए
नहीं थे तैयार.....

(12)

हिंदी विभाग से वह कहाँ गुम हुआ
कह नहीं सकता
पर बिना बताए रह भी नहीं सकता
आखिरी बार उसे देखा गया
रसूलाबाद घाट पर
चंद्रशेखर आजाद की चिता भूमि पर
गुम-सुम बैठे
उसके पास एक पोथी थी
एक चटाई थी
साहित्यकारों की संसद में नई
पोस्ट आई थी
उसे लगा था कि वह लग सकता है काम पर
लेकिन संसद के लोग चुप थे उसके नाम पर।
वहाँ भी नहीं मिला ठौर
अब कहाँ उठाएगा कौर
सोचता हुआ गया
घाट तक जहाँ कई चिताएं जल रही थीं
पानी पर कई नावें चल रहीं थीं
चल रहा था क्या उसके मन में
कहना कठिन है
वैसे यह समय
किसी भी निराला के लिए दुर्दिन है।

(13)

रसूलाबाद घाट के बाद
निराला जैसा दिख रहे उस आदमी की
कोई थाह नहीं मिली
वह गुम गया कहीं अपनों का त्यागा अभागा
रह गए कुछ सवाल जिनके जवाब कौन दे
कौन बताएगा कि
वो बूढ़ा बोलता क्यों नहीं था
अपने दुखों पर क्यों था चुप
क्यों रहता था छिप कर
उसके अपराध क्या थे
क्यों जीता जाता था
उसके साध क्या थे
हालाकि ये सारे सवाल पूछते हुए
डरता हूँ
जब उससे नहीं पूछ पाया तो
अब यह सवाल क्यों उठाता हूँ
जैसे सब भूल गये हैं उसे मैँ भी
क्यों नहीं भूल जाता हूँ
क्या जरूरत है अब किसी
बेघर बूढ़े की बात उठाने की
क्या जरूरत है उस बूढ़े को ढूंढने की
इस देश में एक वही तो नहीं था दुत्कारा।

(14)

रसूलाबाद घाट की सीढ़ियों पर
लिखा मिला उसी जगह
खड़िया से एक वाक्य
जिस पर थोड़ी दुविधा है
कुछ का कहना है
कि यह उसी पागल बूढ़े के हाथ का
लेखा है
कुछ का कहना है कि
यह घाट पर रहने वालों में से किसी ने लिखा है
बकवास है
लिखा था वहाँ-
‘जितना नहीं मरा था मैं
भूख और प्यास से
उससे कहीं ज्यादा मरा था मैं
अपनों के उपहास से’ ।

Saturday, May 5, 2007

बेनाम के नाम

प्रिय बेनाम जी
बंदे की सादर बंदगी स्वीकारो भाई,

कुछ ही दिन हुए आपके छुपे प्यार ने मुझे दोबारा उलझा दिया है। दरअसल मैं मेरा मन आपके रूप-रंग के दर्शन के लिए आकुल-व्याकुल रहने लगा है । आपके बारे में सोचने लगा हूँ। आप मेरे सपनों में आने लगे हैं पर दिक्कत और दुख है कि सपने में भी आप का कोई आकार-प्रकार नहीं झलकता। क्या करूँ , मध्यकालीन कवियों की नायिकाओं सी मेरी हालात बना दी है आपने । ना जाने किस भूल की सजा दे रहे हैं आप। भाई मुझे लगता है कि मेरा और आपका नाता पुराना है। जब मैं गांव में रहता था तब भी तो आप वहाँ थे। आखिर वो आप नहीं थे तो कौन था जो हमें चुपचाप चोट लगाता रहता था। वो भी तो एक बेनाम ही था जो हमारी हाड़ तोड़ मेहनत से पैदा की गई फसल में ऐन कटाई के पहले आग लगा गया था। एक बार तो फसल खलिहान तक आ गई थी। पर मड़ाई के ठीक पहले आपके ही कुल-गोत्र के किसी सक्रिय बेनाम सदस्य ने ना सिर्फ मेरी बल्कि पूरे गांव की फसल को आग के हवाले कर गया था । हम सारे गांव के लोग रोते – कलपते रहे । आग बुताने या बुझाने की कोशिश करते रहे पर बाल्टी-लोटे के पानी से कभी खलिहान की आग बुझती है। इलाके के बाकी गांवों के किसान अपना कोठार या अन्नागार या खाते अन्न से भरते रहे और हम आपकी लगाई आग से उपजी अकूत राख झेलते रहे। हम उस राख से अपना मुँह काला होने से बचते-बचाते रहे। पुलिस आई तो राख की तरफ देख कर कुछ बेनाम लोगों के खिलाफ मामला दर्ज करके मौका-ए-वारदात से रवाना हो गई । बेशक उन्हें यानि पुलिस वालें को लगा होगा कि बेनाम से तो कुछ मिलना-मिलाना नहीं अब यहाँ अपनी वर्दी पर राख का दाग लगाने के लिए क्यों रुकना । वे हमारे जले खलिहान से बेंत हिलाते फुर्र हो गये और हम राख कुरेदते रहे । भाई हम लोग तभी से यानि बचपन से ही बेनाम लोगों से बहुत डरते हैं ।

मैं सचमुच उस बेनाम को भूल गया था लेकिन मैं गलत था मेरे भूलने से क्या फायदा, जब तक आप हमें याद रखे हैं हमारे खेत-खलिहान, घर-बार सब आप की अदृश्य उपस्थिति से यानि आपके होने मात्र के अनुभव से थर्राते हैं । हम चैन से सो तक नहीं पाते कि कौन अनाम अश्वत्थामा हमारे सोते बच्चों को मौत का मुफ्त दान कर जाए । भाई हमें तो फसलों के ऊपर उड़ते जुगनुओं से भी डर लगता है। हम बीड़ी पीने के लिए जलाई गई तीली से भी हिल उठते हैं बेनाम भाई हमारे ऊपर कृपा करो झलक दिखला जाओ । एहसान होगा । पुरखों की आत्मा तृप्त हो जाएगी। जले हुए खलिहान को ना बुझा पाने के संताप से उनकी आत्मा जिस के होने पर उन्हे पूरा यकीन था जो आज तक हांकी-पियासी भटक रही हैं।

मैं यह जानने को बेताब हो रहा हूँ कि वो आप ही तो नहीं जिसने मेरा अमोला(आम का पौधा) उखाड़ दिया था । मैं कई दिन तक दुखी रहा पर जब-जब लगाया दूसरे दिन अपना अमोला उखड़ा पाया। लाल अमरूद के पांच पेड़ पिता जी लाए थे इलाहाबाद से और मैं हर्षित था कि अब अपने पिछवारे ही मिलेगा पका अमरूद । लेकिन पेड़ लगा लेने भर से फल नहीं मिल जाता उसके लिए जागना पड़ता है । संत कबीर तो यहां तक कहते हैं भाई-
‘काट मीज जोई घर लाए सोई सफल किसानी’

(पाठ में फरक हो तो बेनाम चिट्ठी नहीं डालिएगा डर रहा हूँ )

पर हम तो बच्चे थे बेनाम जी आप हमारे अमरूद के पेड़ों को भी चर गये और हम तब से अब तक बिना अपने अमरूद के जी रहे हैं। जब भी अमरूद का ठेला देखते हैं तो अपने अमरूद के उखड़े पौधों के साथ ही आप की बेहद याद आती है ।

आप ने सिर्फ हमारी फसलों को ही नहीं हमारे दड़बे की मुर्गियों हमारे गोशाला के पशुओं तक को बेगाना नहीं समझा। वो आप नहीं थे तो कौन था जिसने हमारी मुर्गियों को उनके दड़बे मे ही जला डाला । हमारी गायों को रोटी में लपेट कर जहर आपने ही दिया होगा बेनाम जी। मुंशी प्रेमचंद के होरी को तो अंत तक पता चल गया था कि उसकी गाय को जहर उसके भाई हीरा ने दिया था, लेकिन मैं तो आज तक नहीं जान पाया कि हमारी गायों को मारने वाला यह बेनाम कौन है । कैसा दिखता है। कहां रहता है । क्या करता है दूसरों के घरों में चुपचाप आग लगाने के अलावा।

बेनाम भाई आप तो उन तमाम लोगों को जानते ही होंगे जो ऐसे कामों को चुपचाप अंजाम देकर असीम आनन्द का अनुभव करते हैं । आप तो उन्हे भी जानते होंगे जो दूसरों की दीवारों और ट्रेन के शौचालयों में कालजयी सचित्र-साहित्य का अंकन करते हैं । गुमनाम चिट्ठियाँ लिख कर अपने मुहल्ले की क्वांरियों को उलझन में डालते हैं। बेनाम जी उन लोगों को हमारे जैसे तमाम डरे लोगों की तरफ से कहिए की एक बार मिल जाएं हम उन्हे पलकों पर बिठा के रखेंगे। उन्हे पूजेंगे भाई । बस यह छुपम-छुपाई का खेल बंद कर दो । हम खलिहान जलाने से लेकर गायों को जहर देकर मारने तक के थानों में दर्ज मामले आज ही वापस ले लेंगे। हमारा आप का मामला रफा-दफा और लेन-देन चुकता ।

Wednesday, May 2, 2007

कोष या कोश क्या फर्क पड़ता है ?

भाइयों मैं भाषाविद् या वैयाकरण नहीं हूँ । अक्सर बोलचाल के बीच शब्दों का उच्चारण भी शुद्ध या ठीक-ठीक नहीं कर पाता हूँ । ऐसे शब्दों में नुक्ते वाले शब्दों के साथ ही स, श और ष का उच्चारण खास तौर से गलत या त्रुटिपुर्ण होने की संभावना बनी ही रहती है । बुजुर्ग लोग बताते हैं कि मरहूम फिराक गोरखपुरी साहब का उच्चारण भी अशुद्ध होता था । मेरा मानना है कि उच्चाऱण से जुड़ी इस दिक्कत से अकेले मैं ही नहीं उत्तर भारत से आनेवाले तमाम लोग या लेखक कवियों को दो-चार होना पड़ता है । मैं अपने अशुद्ध उच्चारण के लिए अपने पहले अध्यापक स्वर्गीय कल्लर पाठक को दोष दूँ या बाबा तुलसी दास को समझ नहीं पा रहा हूँ । बाबा तुलसी अपने मानस में लगभग सर्वत्र एक ही स का प्रयोग करते हैं । अगर कहीं ष लिखा तो यह पाठक पर है कि वह उस ष को मौके के मुताबिक ख पढ़ें या ष । बाबा को बचपन में पढ़ना आज जवानी में भारी पड़ रहा है । बाबा के अलावा मेरे गुरु कल्लर पाठक ने कभी भी तालव्य, या दंत्य के आधार पर श या स या ष का उच्चारण करना नहीं सिखाया । वे पढ़ाते थे बड़ा श, छोटा स और पेट चिरवा ष या शंकर वाला श या सीता वाला स। वे यह अंतर सिर्फ लिखने में करते थे उच्चारण में नहीं । लेकिन हम अपनी कमी को कल्लर पाठक या किसी पर नहीं टाल सकते ।

बांग्ला भाषा की सही शिक्षा के लिए गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे दिग्गजों ने बांग्ला प्राइमर की रचना की है । आज भी वे पोथियाँ चलन में है और बांग्ला सीखने के लिए बच्चों को पढ़ाई जाती हैं । लेकिन मेरी जानकारी में हिंदी के किसी बड़े लेखक ने बच्चों या नवसाक्षरों को सिखाने के लिए व्याकरण के आधार पर कोई पोथी तैयार करने की जहमत नहीं उठाई है।यह हमारा दुर्भाग्य है।

भहरहाल अब हमें ही तय करना पड़ेगा कि किस जगह कौन सा स-श-ष लिखना या बोलना है । हालाकि आज इस तरह के आपाधापी के दौर में इस तरह छोटी-मोटी भूलों से हिंदी के सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता । हिंदी के ही एक अति मान्य कवि केदार नाथ सिंह के शब्दों में -

हमारे युग का मुहावरा है
फर्क नहीं पड़ता
जहाँ लिखा है प्यार वहाँ लिख दो सड़क
फर्क नहीं पड़ता ।
अब कोश को ही लीजिए राम चंद्र वर्मा जी अपने कोश को जो कि लोकभारती प्रकाशन से छपा है कोश ही लिखते हैं। लेकिन पंडित राम शंकर शुक्ल रसाल जी शब्द कोष लिखते हैं । कोश के सवाल पर हिंदी एक मत नहीं है । हिंदी के समांतर कोश-कार भी अपने थिसारस को कोश ही लिखते हैं । गनीमत सिर्फ यह है कि दोनो शब्दों का अर्थ एक ही है-शब्द भंडार या अभिधान या खजाना । मुझे तो कोख भी इस कोश या कोष का नजदीकी नातेदार दिखता है । जहाँ कुछ भी एकत्रित किया जा सके , संचित किया जा सके वही कोश है । चाहे वह सरकारी कोशागार हो या भाषा वैज्ञानिक हरदेव बाहरी जी का शब्द-कोश ।

मेरा निवेदन है कि ऐसे मामलो में मीन-मेख (छिद्रान्वेषण) से बचते हुए भावना को समझने की कोशिश होनी चाहिए । मुझे लगता है कि कोश कार के इरादे नेक हैं और उन्होने परम्परा से चलते आ रहे दो रूपों में से एक का प्रयोग किया है ।

इस कोष के अलावा भी हिंदी के कई शब्द हैं जो दो चेहरों या रूपों में प्रयोग किये जा रहे हैं । यह इन शब्दों की दादागीरी ही है कि हम इनका कोई एक रूप नहीं तय कर पा रहे हैं । इन शब्दों ने हमे परास्त कर दिया है और ताल ठोंक कर कह रहे हैं कि क्या कर लोगे । हम तुम्हारी मजबूरी हैं । फिलहाल मैं कुछ ऐसे शब्दों की सूची दे रहा हूँ जिनके दोनों ही रूप शुद्ध हैं और वैयाकरणों द्वारा मान्य भी हैं । कायदा यह है कि एक लेखक अपने लेख या रचना में इनके किसी एक ही रूप का प्रयोग हर कहीं करे -

दुल्हन-दुलहन, अंजनि-अंजनी, पृथिवी-पृथ्वी, अंजलि-अंजली, अहल्या-अहिल्या, गो-गौ, अवनि-अवनी, अमिय-अमी, कर्त्ता-कर्ता, कलश-कलस, कुटीर-कुटिर, कौसल्या-कौशल्या, त्रुटि-त्रुटी, दश-दस, धरणी-धरणि, दम्पति-दम्पती, भूमि-भूमी, मणि-मणी, मट्टि-मट्टी-मिट्टी, वशिष्ठ-वसिष्ठ, श्रेणि-श्रेणी, हनुमान-हनूमान, जूआ-जुआ, सारथी-सारथि, पपिहा-पपीहा, तलुवा-तलवा, प्रतिकार-प्रतीकार, केशरी-केसरी । हो सकता है कि आप ऐसे दो चेहरों वाले कुछ और शब्दों से परिचित हों । कृपया उन शब्दों की पहचान करके अलग करना बेहद जरूरी है।ताकि हम कुछ अधिक रचनात्मक काम कर सकें