देखने में यह बात अजीब है। लेकिन उन लोगों को बेटियों और बछड़ों की जरूरत नहीं है...। उनके लिए वह महिला कुलबोरन है कुलक्षिनी है जो बेटियाँ पैदा करती है...ऐसी बहुए अक्सर दुरदुराई जाती हैं लात खाती हैं....जो बेटियाँ पैदा करती हैं...वहीं वे बहुए लक्ष्मी हैं जिनकी कोख से लगातार बेटे जन्म लेते हैं...।
बेटियों के अस्वागत या दुत्कार का यह आलम है कि लोग आम बात-चीत में भी यह नहीं कहते की फलाँ को बच्ची होने वाली है...सभी यही कहते पाए जाते हैं कि उसे बच्चा होने वाला है।
आप वहाँ बेटी-बेटे के कोख में बनने और पैदा होने के वैज्ञानिक आधारों को समझने-समझाने की बात नहीं कर सकते....बेटा बेटी एक समान की बात....दीवारों पर अच्छी लगती है घर के आँगन में नहीं॥
अगर बेटी हो जाती है तो पहले उसको कम रख रखाव से मारने की कोशिश होती है, उसके बीमार पड़ने पर कहा जाता है कि ठीक हो जाएगी...बेटियाँ मरती नहीं हैं...। दुख की बात यह है कि ऐसी बातें औरतें भी आराम से करती पाई जाती है...। लेकिन जब बेटा बीमार होता है या जब बेटा मरता है तो लोग छाती पीट कर रोते हैं उसका पैदा होना और मरना दोनों हाहाकार लेकर आता है...वहीं जब बेटी मर रही होती है या मर जाती है तो लोग धीरे से बल्कि कहूँ तो चेहले पर एक मुस्क्यान लाकर केवल बताते हैं कि उसकी बेटी जो अभी हुई थी मर गई...फिर कोई कहेगा कि मरना ही था तो पहले मर जाती...। और बात आई-गई खतम सी हो जाती है...।
यह सारी स्थितियाँ मैं ने खुद देखी हैं...यह देश के अन्य हिस्सों का सच भी हो सकता है फिलहाल मैं भदोही, मीरजापुर और बनारस की बात कर रहा हूँ...यहाँ अगर गाय या भैंस को बेटी हो यानी बछिया और पड़ियाँ हो तो सब खुश होते हैं....लेकिन अगर बछड़ा या पड़वा हो जाए तो उसका दूध बंद...। उसके मुह पर एक खोल चढ़ा दिया जाता है...कोशिश की जाती है कि वह बछड़ा या पड़वाँ जल्द से जल्द मर जाए । जिससे उसके हिस्से का भूसा-चारा भी बचे । दैव- दुर्योग से अगर वह गाय-भैंस पुत्र अपने आप नहीं मरता तो जरा सी उम्र बढ़ते ही उसे काटने के लिए कसाई को बेच दिया जाता है...।
बेटी बोझ है क्योंकि उसे विदा करना है, उसकी पढ़ाई पर खर्च नहीं करना है क्योंकि उसे पढ़ाने का वैसा सीधा फायदा नहीं जैसा बेटे को पढ़ाने का है...
वहीं बछड़े को बदलते समय में ट्रैक्टरों ने फालतू बना दिया है....एक दो हल बैल की खेती हो बड़े किसान सब ट्रैक्टर पर निर्भर करने लगे हैं...इसलिए बछड़े और पड़वे की कोई आवश्यकता नहीं रही...
बछिया गाय होगी दूध देगी....बेटी दहेज लेगी दूर होगी...इस लिए बछिया चाहिए बेटी नहीं...
बेटा चाहिए बछड़ा नहीं...।
ऐसे माहौल में बेटियाँ रोज मर-मर कर बड़ी होती है...
हो सकता है पिछले महीने भर में स्थितियाँ बदली हों...क्योंकि सुना है दुनिया तेजी से बदल रही है पर लगभग यही हालत है...बेटी को मारो या मरने दो....बछड़े को मरने दो या मारो...। बेटा जिलाओ....बछिया जिलाओ....।
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19 comments:
कहां बदल रहा है समाज या हम। अब भी सब-कुछ वही और वैसा है। बेटियां आज भी मातम हैं।
आपने सही लिखा हैं । एक पहलु और भी हैं आज भी सामाजिक व्यवस्था मे बहुत से ऐसे तबके हैं जहाँ "बहुए अक्सर दुरदुराई " जाती हैं चाहे वह बेटे कि माँ हो या बेटी कि । क्या सम्मान मिलता हे लड़के की माँ को ?? बस एक ताना नहीं मिलता की तुम ने बेटी पैदा की । आप ही बताये क्या स्पेशल सम्मान हैं इस समाज मे उसके लिये ?? कौन सा सुख या दुःख एक बेटे कि माँ को मिलता हैं जो बेटी की माँ को नहीं मिलता । ये एक मिथिया ब्रह्म है । एक रुढ़िवादी सोच एक स्त्री को दूसरी स्त्री के ख़िलाफ़ खडा करने कि । कहाँ से आयी है ये सोच ?? किस सदी से और कहाँ तक फैली हैं इसकी जड़े कि एक सास अपनी बहु को प्रतारित करती हैं और एक माँ अपनी बेटी के गर्भ मे शिशु आते ही " नाती " ही होने कि प्रार्थना करती हैं । कभी कभी लगता हैं जैसे ये सब बेटे कि चाह मे नहीं किया जाता अपितु इस लिये किया जाता हैं ताकि "बेटी हो ही ना " । एक दुःख जो हम सब ने झेला उसको मेरी संतान ना झेले क्योकि अपना दुःख अपनी संतान {पुत्री } को पाते देखना कठिन होता हैं । इसलिये पुत्र हो , नाती हो , पोता हो । बेटी ना हो , पोती ना हो , नातिन ना हो ।
विकृत काल है यह - मर्म पर अर्थ हावी हो गया है। आसानी से उतरने वाला नही।
कड़वी सच्चाई बयान करता मार्मिक आलेख.
आपकी लिखावट ने इसे और अधिक दारुण बना दिया.
उ.प्र. के तराई इलाके में पंडवा को नहीं मारा जाता था क्योंकि वहां टायरवाली भैंसा गाड़ी का चलन था। अपने यहां भी बछड़े तब शौक से पाले जाते थे जब तक बैलों से खेती होती थी। एक अध्ययन के मुताबिक किसानों के गरीब होते जाने और कर्ज के बोझ तले दबने की दो खास वजहें हैं - एक, परिवार के बंटवारे से जोत का आकार घटना और दो, बेटियों की शादी। सवाल किसी अमूर्त नैतिकता का नहीं, जीवन स्थितियों का है। जहां बेटियां भी बेटों जैसे मददगार होती हैं, वहां बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं करता। उसी तरह ज़रूरत पड़ने पर बछड़े-बछिया या पंडवा-पांडी का अंतर मिट जाता है। जीवन स्थितियां बदल दीजिए, सारा संतुलन कायम हो जाएगा।
विद्यासागर नौटियाल की एक कहानी है "भैस का कट्या" आपने उसकी याद दिला दी.
सचमुच कैसी सोच लिए जीते हैं हमलोग...हाय रे मनुष्य.
यह सोच अभी गांव में कस्बों में खत्म नही हुई है ..रचना जी ने मेरे दिल कि बात कह दी है ..बहुत कुछ बदल रहा है आगे भी बदलेगा यही उम्मीद कर सकते हैं ,लेख बहुत कुछ कह गया है बस सोचने कि जरुरत है इस विषय पर
समाज की सच्चाई उजागर करती एक सार्थक एवं विचारणीय पोस्ट.
अफसोसजनक स्थितियाँ हैं.
बेटियों की दुनिया तो बदल रही है.. पर बछड़ों के लिए चिंता हो रही है..
हमारे यहाँ तो अब कम दूध देने वाली गायों तक को उजाड़ जंगल की तरफ इतनी दूर भगा दिया जाता है कि वे लौट कर फिर कभी अपने खूंटे पर न आने पायें.
चारा ही नहीं है. भूसा ६०० रुपये प्रति क्विंटल बिकता है. ऐसे में आदमी अपने खाने के लिए गेंहू खरीदे कि गाय-बछिया के लिए भूसा?
एक ज़माना था जब शादी के लिए लड़का देखने आने वाले बेटी वालों को प्रभावित करने के लिए दूसरों के बैल मांग कर अपने दरवाजे पर बाँध लिए जाते थे ताकि लगे कि लड़के के पिता के पास चार हल की खेती है. मगर अब तो दूसरे का ट्रैक्टर लाकर दरवाजे पर खडा किया जाता है.
धन्य है, बहुत तेजी से बदल रहा है सब कुछ!
कृषि शिक्षा के दौरान जब हम लोग पशु पालन की किताबे पढते थे तो उसमे लिखा होता था कि दोनो मे फर्क नही करना चाहिये। बछिया के भी खान-पान मे कमी नही होनी चाहिये।
हमारे यहाँ बछडे का ज्यादा ध्यान रखा जाता है। अभी भी खेतो मे इनकी जरुरत जो बनी हुयी है।
हम भारतीय किस तरह अपने आप को धार्मिक, सुसँकृत वगैरह कहते हैँ जब इस तरह का अमानुषिक बर्ताव हमारे गाँवोँ मेँ होता है ?
पैसा ही इस दुनिया का
इमान - धर्म बन गया है !
- लावण्या
कड़वी सच्चाई
बछिया गाय होगी दूध देगी....बेटी दहेज लेगी दूर होगी...इस लिए बछिया चाहिए बेटी नहीं...
बेटा चाहिए बछड़ा नहीं...।
ऐसा सच मत लिखा कीजिये...मन कड़ुआ जाता है...हम कितने क्रूर और निरीह हैं...
एक तंज और तल्ख़-सा अहसास, आपके शब्दों से होकर दिल को चीरता चला गया... कितना सच लिखा है आपने-
... बेटा बेटी एक समान की बात....दीवारों पर अच्छी लगती है घर के आँगन में नहीं॥
....बछिया गाय होगी दूध देगी....बेटी दहेज लेगी दूर होगी...
सही है। बेटियों के बारे में सोच बदल रही है लेकिन बहुत धीरे-धीरे।
बोधिसत्व जी,
आपने तल्ख सच्चाई बयां की है।
लेकिन बेटियों की चिंता बछड़ों के साथ करने से कुछ लोग यह अर्थ निकाल रहे हैं कि बेटियों व उनके भ्रूण की हत्या सिर्फ गांवों व कस्बों में होती है। जैसा कि रंजू जी ने अपनी टिप्पणी में कहा है, 'यह सोच अभी गांव में कस्बों में खत्म नही हुई है।' अनिल रघुराज जी ने भी किसानों का जायज पक्ष रखने में किसानों की गरीबी व कर्जधारिता को बेटियों की शादी से जोड़ दिया है।
मैं इन संदर्भों में दो बातें कहना चाहूंगा। पहली बात, किसानों की गरीबी व कर्जधारिता का सबसे बड़ा कारण सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति है। आजादी के बाद हिन्दी और किसान के साथ सबसे अधिक धोखा किया गया। बेटियों की शादी पर गैर-किसान किसानों से ज्यादा ही खर्च करते हैं। अंतर यह है कि वे इस व्यय को सह सकने की स्थिति में होते हैं, किसान सामान्यत: नहीं होते।
दूसरी बात, कन्या भ्रूण की पहचान के ठिकाने शहरों में ही हैं, गांवों में नहीं। और फिर, क्या आरूषि की हत्या किसी गांव-कस्बे में हुई।
एक बात और, बछड़ों की चिंता के संदर्भ में मैं अनिल रघुराज जी के मत से सहमत हूं- 'सवाल किसी अमूर्त नैतिकता का नहीं, जीवन स्थितियों का है। जीवन स्थितियां बदल दीजिए, सारा संतुलन कायम हो जाएगा।'
bodhi ji apka photo bahut sundar hai. bilkul budh ki mafik.
shashi
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