मिलने न मिलने के बीच
परसों मित्र अभय से बात हुई। मिलने की हुड़क जगी। लेकिन मिल नहीं पाया। हम अक्सर चाहते हुए भी मित्रों से नहीं मिल पाते। जिनसे मिलना अच्छा लगता है उनसे मुलाकात नहीं हो पाती । अभय के घर से बस हजार मीटर के फासले पर मैं था लेकिन मिलाप नहीं कर पाया । ऐसे ही ठुमरी वाले विमल भाई तो कुल ८ सौ मीटर की दूरी पर डेरा जमाते हैं लेकिन मुलाकात नहीं होती। यूनुस भाई भी कुल हजार पंद्रह सौ मीटर की दूरी पर विराजते हैं लेकिन ले दे कर उनसे चार छ मुलाकाते ही निकलती हैं। इसके उलट जिनको देखने से दुख उपजता है ऐसे कितनों से रोज बार बार मिलना पड़ता है। न चाहते हुए भी दाँत चियारना पड़ता है। हें हें करना पड़ता है। मन लात मारने का होता है और हम पाँव दाबते रहते हैं।
मुझे लगता है मिलना तो सभी चाहते हैं ...लेकिन मौका नहीं मिल पाता होगा... जैसे परसों मुझे नहीं मिला । परसों शाम से घर पर बेटी भानी लगातार मेरे लिए रो रही थी। पापा.......आ जाओ। पापा। और मैं उससे कहता जा रहा था कि आ रहा हूँ बेटा। बस चल रहा हूँ पहुँच रहा हूँ । लेकिन असल में मैं उससे झूठ बोल रहा था। मैं कहीं, एक साहित्यिक या कहें कि वैचारिक बतकचरे में उलझा था। अवध से कुछ वाम पंथी मित्र आए थे । मैं केवल उनसे मिलने के लिए ही भागा हुआ अंधेरी तक गया था।
किसी हिसाबी आदमी से आप 10 साल बाद मिलें और मिलते ही गलती से खुद ही पुरानी दफ्न बातों को छेड़ बैठें तो क्या होगा। आप समझ सकते हैं । हम कुछ दफ्न बातों में उलझ कर रह गए थे और बात किसी किनारे पहुँच नहीं रही थी। वे अपने स्थान पर सही थे क्यों कि वे शुद्धतावादी थे लेकिन शायद मैं नहीं था क्यों कि मैं मज्झिम निकाय पर चलने की बात कर रहा था।
बहस के केंद्र में शहीद भगत सिंह थे। उनके छोटे भाई कुलतार सिंह थे। क्रांतिकारियों से सूना होता जा रहा देश था। भुखमरी थी। बेकारी थी । अवसरवाद था। अवसाद था। क्रांति की खोज में देशाटन पर निकले मित्र थे । उनकी शुद्धता से भरी बातें थीं। इसी सब सिलसिले में अभय से मिलने का मामला रह गया।
हाइवे से गुजरते हुए बनराई आरे कॉलोनी का वह मित्र इलाका बगल में छूटता गया । वो सूना सा रास्ता जिससे होकर पहले मैं गोरेगाँव स्टेशन से पैदल अभय के घर आया-जाया करता था। कुल 10 मिनट लगते थे खरामा-खरामा। लेकिन परसों वह 10 मिनट नहीं थे। क्रांति केन्द्रित बहस और भानी का विलाप बीच में दीवार बन गया ।
मैंने अभय से कहा कि मैं आता हूँ गुरू....कल आता हूँ । उसने भी कहा कि ठीक है, बात होती है। कल कल बीत गया है। न मैं गया न बात ही हुई। मैं दिन में कुछ चिरकुटो से बतियाता हुआ सोच रहा था कि हम अक्सर कितना कम मिल पाते अपने उन मित्रों से जिनसे हम बहुत मिलना चाहते हैं। देखते हैं अपने क्षेत्र संन्यासी मित्र से कब और केहिं बिधि मिल पाता हूँ।
Saturday, January 31, 2009
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11 comments:
आपने मुझे अपना समय दिया..यही काफी है मेरे लिए
कल रवीश कुमार की कविता पढ़ी:
ऐसे तमाम झूठे मुलाकातियों से हर रोज
हाथ मिलाने का मन नहीं करता
लगता है लात मार कर भगा दूं
और ढूंढ लाऊं अपने उन दोस्तों को
जो फिक्र करते थे कभी मेरी,
कभी मेरे लिए चाय बना देते थे
फिल्म जाने से पहले किचन में
छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी
आज बोधि कहते हैं इसके उलट जिनको देखने से दुख उपजता है ऐसे कितनों से रोज बार बार मिलना पड़ता है। न चाहते हुए भी दाँत चियारना पड़ता है। हें हें करना पड़ता है। मन लात मारने का होता है और हम पाँव दाबते रहते हैं। क्या साम्य है। रवीश की कविता का हिंदी अनुवाद है यह!
सुन्दर पोस्ट! मिलना-जुलना बना रहे। आमीन!
सन्यासी मित्र से तो खैर मिल ही लोगे आप. मगर आज याद करता हूँ कि जब आप मुझसे मिले थे तो आपकी मुख मुद्रा क्या थी. याददाश्त कमजोर है, याद ही नही आ रहा. कहीं :
न चाहते हुए भी दाँत चियारना पड़ता है। हें हें करना पड़ता है।
-वाली तो नहीं थी. :)
बोधि भाई..आजकल दूरियां मीटरों में नहीं मिनिटों में नापी जाती हैं । अब देखिए ना..आप मेरे और मैं आपके घर के सामने से हड़बोंग में कैसे चुपके-से सटक लेते हैं, कहीं से आ रहे होते हैं । कहीं जा रहे होते हैं । चलिए तय करें कि ज्यादा मिलना जुलना हो
मैं क्षेत्र सन्यास तोड़ कर तुम से मिलने आने वाला हूँ..चिन्ता जिन..
मैं जितने लोगों को जानता हूँ
उनमें से बहुत कम लोगों से होती है मिलने की इच्छा
बहुत कम लोगों से होता है बतियाने का मन
बहुत कम लोगों के लिए उठता है आदर-भाव
बहुत कम लोग हैं ऐसे
जिनसे कतरा कर निकल जाने की इच्छा नहीं होती
काम-धन्धे, खाने-पीने, बीवी-बच्चों के सिवा
बाकी चीजों के लिए
बन्द हैं लोगों के दरवाजे
बहुत कम लोगों के पास है थोड़ा-सा समय
तुम्हारे साथ होने के लिए
शायद ही कोई तैयार होता है
तुम्हारे साथ कुछ खोने के लिए
आगे पढ़िए
मुलाकातियों से तो रोज़ मुलाकात हो जाती है चाहो या ना चाहो मगर दोस्तो से मिलने के लिए तो समय निकालना पड़ता है। आपाधापी मे कई बार ऐसा लगता है जैसे स्कूल,कालेज के दोस्त भीड़ मे कहीं गुम होते जा रहे हैं। अच्छा लगा आपको पढ कर। आज कुछ पुराने रिश्ते ताज़ा करने की इच्छा जगा दी आपने।
अनूप जी साम्य भी कह सकते हैं....अनुवाद भी कह सकते हैं....नकल भी कह सकते हैं....चोरी भी कह सकते हैं...कुंभनदासत्व दुख भी कह सकते है-
संतन को कहाँ सीकरी सो काम
आवत जात गन्हैया टूटीं बिसरि गयो हरि-नाम
जाकौ मुख देखै दुख लागै, ताको करिबो परी सलाम।
कुंभन दास लाल गिरिधर बिन और सब बेकाम।
तो आप जो चाहें कहें, आपका हर कथन सिर माथे पर है!
हे भइया, बकिया तो ठीकै है सब, मुला ऊ मूंछिया कहां बिलाय गय...कहूं कटाय लिहौ या कटि गय...
कुछ लोग शहर मे हमसे भी खफ़ा है
अपनी भी हरेक से तबियत नही मिलती।
bahut achchha.
mere blog main santur nahin bajata par padharen.
maa ka naach kavita post ki hai.
aap dekh len.
kumar ambuj ji ne tippani bhejane ka waada kiya hai.
jaise hi aayegi post karunga.
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