Wednesday, October 28, 2009

नामवर के होने का अर्थ

नामवर को जानो भाई


जब 17 अक्टूबर की शाम में नामवर जी से फोन पर बात हुई थी तो यह तय हुआ था कि मैं और वे 23 अक्टूबर को इलाहाबाद में गले लग कर भेटेंगे । भेटने का प्रस्ताव मेरा था जिसे नामवर जी ने भावुकता भरे स्वर में स्वीकार कर लिया था। यह भेटना औपचारिक रूप से गले लगने जैसा न होकर उस तरह से होना था जैसे मायके में बहुत दिनों बाद आई बिटिया अपनों से मिल कर मन का बोझ हल्का करती हैं। भेट अकवार लेती हैं। नामवर जी को हिंदी के तमाम लोग दिल में रखते हैं। मैं अकेला नहीं हूँ जिसके मन में नामवर जी को लेकर यह श्रद्धा का भाव है। लेकिन दुर्योग देखिए कि वहाँ हिंदुस्तानी अकादमी में नामवर जी दिखे भी, दूर से प्रणाम आशीष भी हुआ लेकिन भेटना न हो पाया। ब्लॉगिग पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में उनका भाषण सुनने का मेरा कोई पहला अवसर न था। लेकिन हर बार की तरह वहाँ भी नामवर जी कुछ कह ही गए और लोग यह क्या यह क्या करते रह गए।


आज जब ब्लॉग के पिछले पन्नों पर गया तो वहाँ नामवर सिंह के विरोध का एक गुबार सा दिखा। कुछ को उनके बोलने पर आपत्ति है कुछ को उनके वहाँ आने पर कुछ को उनके उद्घाटन भाषण देने पर। मैं नामवर सिंह का प्रवक्ता नहीं लेकिन उनका समर्थक होने और कहलाने में कोई संकोच नहीं। आप मान सकते हैं कि मैं नामवर वादी हूँ। और दावे से कह सकता हूँ कि इलाहाबाद में उन्होंने जो कुछ ब्लॉगिंग पर कहा वह उनकी पिछले 65 सालों की हिंदी समाज की समझ थी, उससे उपजी धारणा थी। जिसे वे बिना लाग लपेट के कह सके।

उन्होंने अगर कहा कि ब्लॉगिंग पर भविष्य में नियंत्रण रखने की आवश्यकता होगी तो क्या गलत कहा। उनका यह कथन ब्लॉगिंग को लेकर उनकी गंभीर और दूरंदेश सोच को ही दिखाता है। वे चाहते तो कुछ अच्छी-अच्छी और भली लगने वाली आशीर्वचन टाइप की बातें कह कर खिसक सकते थे। ब्लॉग पर राज्य की निगरानी की बात पर छाती पीटने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि ब्लॉगिंग रेडियो, सिनेमा और टीवी के भी आगे का सामाजिक माध्यम बन कर सामने आया है। और जरा सी बात पर क्या से क्या छप जाता है। ऐसे में आज नहीं तो कल ब्लॉग को मर्यादित बनाए रखने के लिए एक नियंत्रक की आवश्यकता पड़ सकती है। अगर आज के सिनेमा को नियंत्रित न किया जाए तो क्या क्या दिखाएगा अपना सिनेमा जगत जिसे शायद चिपलूणकरादि भी नहीं झेल पाएँगे। कितने लोग गंदे साहित्य को घर-घर की दास्तान बना देंगे और कहेंगे कि मुझे कुछ भी छापने की आजादी दो। क्या जगमग ब्लॉगिंग के पीछे के कलुस और अंधकार को रोकने के लिए एक व्यवस्था के बारे में सोच कर नामवर ने अपराध कर कर दिया। क्या कल ऐसी किसी व्यवस्थापिका की जरूररत न होगी। चिपलूणकर और ईस्वामी जी को न होती तो खुद सुरेश चिपलूणकर ब्लॉग प्रहरी जैसे ब्लॉगजगत को नियंत्रित करने वाले अभियान में शामिल हैं । ब्लॉग प्रहरी यह दावा करता है कि ब्लॉग और ब्लॉग की दुनिया पर शुद्धता केंद्रित नियंत्रण रखेगा। चिपलूणकर का नियंत्रण किस आधार पर जायज हो जाता है और नामवर जी का नाजायज यह बात समझ में नहीं आती। और शास्त्री जेसी फिलिप जी साहित्य बलॉग के बहुत पहले से है जब लिखने का माध्यम नहीं था तब से है साहित्य और आपके ब्लॉग के जवान होने पर यह और परिपूर्ण होगा और एकदिन ऐसा आएगा ब्लॉग साहित्य का उपांग हो जाएगा । वैसे भी यह लिखने का एक माध्यम भर ही है ।

इसलिए ब्लॉग पर नियंत्रण की बात नामवर जी को उचित लगती है लगती है तो उसे कहने का उन्हें पूरा हक है। मैं ही नहीं ऐसे तमाम लोग होगें जो नामवर जी की बात का समर्थन करते होंगे।

इलाहाबाद में बोलते हुए 23 अक्टूबर को नामवर जी ने एकबार भी यह नहीं सोचा कि यह ब्लॉगिंग तो उनकी दुनिया है नहीं। क्योंकि चिपलूणकरादि उन्हें ब्लॉग समाज का नहीं मानते। फिर वहाँ नामवर जी गए क्यों, गए तो बोले क्यों, बोले तो ऐसा क्यों बोले जो किसी ब्लॉगिए को बेध गया। ब्लॉग पर बोलने के लिए मुनीशों प्रमेंद्रों ईस्वामियों आदि के लिए ब्लॉगर होना जरूरी है। तो क्या सच में ब्लॉग कुछ हजार दो हजार चिट्ठाकारों का प्राइवेट अखाड़ा है, अलहदा दुनिया है। जिसे साहित्य या सिनेमा की तरह आम जन से काट कर रखना है। जिन्हें नामवर जी के इलाहाबाद सम्मेलन में आने और बोलने से आपत्ति है मुझे लगता है कि वे ब्लॉग को अजूबा और पवित्र वस्तु मान कर अपने कब्जे में रखने की साजिश रच रहे हैं । जब नामवर जी जैसे विराट व्यक्तित्व के सहभागी होने से इसके आम जन तक पहुँचने का रास्ता खुल रहा है तो हाय तौबा मचा रहे हैं, बौखला रहे हैं।

बेशक नामवर जी पुराने लोग हैं लेकिन कुंद नहीं हैं। उनकी समझ और धार आज भी कायम है । हालांकि वे आज भी कलम से लिखते हैं, कम्प्यूटर के की बोर्ड पर अंगुली फिराकर उनका काम खत्म नहीं हो जाता। यह तो ब्लॉगरों के लिए खुशी की बात है कि नामवर जी जैसे आलोचक ब्लॉग की अहमियत समझ रहे हैं। इसमें आपा खोकर नामवर विरोधी हो जाने की क्या जरूरत है। हिंदी का सबसे पुराना आलोचक अभिव्यक्ति के सबसे आजाद माध्यम पर बोल रहा है। यह कितनी बड़ी घटना है। अमूमन बुजुर्ग लोग नए पर नाक भौ सिकोड़ते हैं। नामवर जी उन सठियाए लोगों में नहीं हैं, तो क्या यह उनका अपराध है।

नामवर जी को वहाँ यह खयाल नहीं रहा कि उनके बोलते ही तमाम लोग अगिया बैताल की तरह उन पर लपक पड़ेंगे। वे बेधड़क बोले क्योंकि उनको बेधड़क बोलने की दीक्षा मिली है। वे हमेशा खुल कर बोलते रहे हैं। वे ठीक से समझ रहे हैं कि केवल माध्यम बदला है, माध्यम का सरोकार नहीं। लिखने का तौर तरीका बदला है लिखाई और बातें उनके ही देश समाज की भाषा हिंदी की हिंदी में हो रही है। जिसे वे 65 सालों से जीते लिखते और 80 साल से बोलते आ रहे हैं। क्या ब्लॉग या चिट्ठाकारी की दुनिया पर बोलने के मामले में उनकी हिंदी की 65 साल की सेवा अकारथ हो जाती है। और कोई ब्लॉग लेखक उनसे सवाल पूछने का अधिकारी हो जाता है कि वे किस बिना पर ब्लॉग पर बोल सकते हैं। तो मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि वे आज की हिंदी के जीवित इतिहास और वर्तमान हैं। वे हिंदी हैं, हिंदी के अभिमान हैं। नामवर सिंह का विरोध हिंदी का विरोध है। जो का ऐसा कर रहे हैं वे नामवर के होने का अर्थ नहीं जानते। यदि उन्हें हिंदी की एक नई विधा पर बोलने का अधिकार नहीं है तो किसे है। क्या मूनीश बोलेंगे या प्रेमेंद्र बोलेंगे या शास्त्री जेसी फिलिप या चिपलूणकर या कोई ईस्वामी और अन्य महाशय बोलेंगे। क्या यह अधिकार उसे ही मिलेगा जो ब्लॉग के माध्यम का पंडित हो और सुबह शाम ब्लॉग-ब्लॉग का जाप करता हो।

हालाकि किसी के थोथे विरोध से नामवर सिंह पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर किसी को नामवर का खंडन मंडन करना हो तो पहले नामवर को जानो। जानो की उनका अवदान क्या है। जानो कि उन्होंने हिंदी को क्या दिया है। बिना जाने नामवर को नकारने कोशिश एक बेबुनियाद लड़ाई होगी। कुंठा का इजहार ही होगा। नामवर पर थूकना आसमान पर थूकने जैसा है। इस थुक्का फजीहत की कोशिश से उनका तो कुछ न बिगड़ेगा। छींटे आप पर ही पड़नेवाली हैं।

मेरा मानना है कि ब्लॉगिंग पर हुई इलाहाबाद संगोष्ठी में उद्घाटन भाषण के लिए नामवर सिंह से बेहतर कोई नाम है ही नहीं हिंदी के पास। यदि कोई नाम हो तो मैं पूछता हूँ कि नामवर सिंह न बोलते तो कौन बोलता ? आपक पास एक नाम हो तो बताने की कृपा करें। और यदि अशोक वाजपेयी को बोलने के लिए बुलाया जाता तो आप स्वागत करते। अगर केदारनाथ सिंह को बुलाया जाता तो आप खुश होते अगर कुँवर नारायाण बोलते तो आप हर्षित होते अगर विष्णु खरे बोलते तो आप तो राहत होती। नहीं साहब आप की अंतरात्मा दुखी है। आप को सिर्फ आपके ही बोलने पर सुख मिलता। चिपलूणकर जी अन्यथा आप को संतोष कहाँ। आप तो नामवर से भिड़ने के लिए उनसे सवाल करने के लिए कटिबद्ध है। गिरोह बद्ध हैं।

हम सब मानते हैं कि नामवर जी का साम्प्रदायिकता से विरोध है। उनका ही नहीं हर उस आदमी का साम्प्रदायिकता से विरोध होगा जो कि सचमुच में इंसान होगा। जो हैवान है हम चाहेंगे कि वह भी एकदिन गैर साम्प्रदायिक हो जाए, इंसान हो जाए। इस आधार पर इलाहाबाद में ही नहीं कहीं भी नामवर सिंह के साथ किसी भी आयोजन में साम्प्रदायिक लोगों के लिए, सेक्टेरियन सोच वालों के लिए कोई जगह नहीं है । इसके लिए भूलचूक की भी कोई गुंजायश हम नहीं चाहते। नामवर सिंह जी भी नहीं चाहते। रही बात हिंदी के उदार लोगों के साथ मंच साझा करने में तो उसके लिए किसी भी हिंदी सेवी को कोई गुरेज क्यों हो। इलाहाबाद सम्मेलन में भी नामवर सिंह को कोई दिक्कत नहीं थी। उनके साथ बोलने वाले तमाम लोग वामपंथी नहीं थे क्योंकि वह हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया थी हिंदी वामपंथ की दुनिया नहीं। लेकिन आप यह क्यों चाहते हैं कि नामवर जी जहाँ जाएँ अपनी दृष्टि छोड़ कर जाएँ। अपना नामवरी अंदाज और ठाठ तज कर जाएँ। यह तो एक तानाशाह रवैया दिखता है आप सब का।

आप को नामवर जी ब्लॉगिंग के योग्य क्यों दिखेंगे। क्योंकि आपकी दुनिया केवल ब्लॉग तक सिमटी है । लेकिन हिंदी तो केवल ब्लॉग की मोहताज नहीं है। और उसके किसी भी माध्यम पर आपसे अधिक नामवर का हक है। कल को कोई आश्चर्य नहीं अगर नामवर जी अपना बलॉग बना लें। तो आप क्या कहेंगे । शायद यह आपके लिए एक अलग चिंता का कारक होगा।

हिंदी के लोग मुझसे बेहतर जानते है कि हिंदी का मामला आते ही नामवर जी को पता नहीं क्या हो जाता है । जहाँ कहीं भी हिंदी के पक्ष में खड़े होने का मौका आता है वे चल पड़ते हैं । वे देसी आदमी हैं। देशज वेश-भूषा धोती-कुर्ता और पैरों में चप्पल पहने वे हिंदी की जय करते रहते हैं। जिन्हें पिछले कई दशकों से लोग पढ़ते सुनते देखते आ रहे हैं। 1986 से तो मैं खुद देख सुन रहा हूँ। अगर शास्त्री जेसी फिलिप साहित्योन्मुखी रहे होते तो 1976 से तो देख सुन रहे होते। जैसे 1966 से मैनेजर पाण्डे देख सुन रहे हैं और 1956 से मार्कण्डेय और केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण ।

मुँह में 120 नंबर की पत्ती के साथ पान दबाए वह इस महादेश के इस छोर से उस छोर से पिछले 60 सालों से घूम रहे हैं। वे केवल राजधानी दिल्ली की चकाचौंध में घिर कर नहीं बैठे हैं बल्कि आप उन्हें गाजीपुर बलिया में बोलते पा सकते हैं आप उन्हें इलाहाबाद भोपाल में हाथ उठाकर अपनी बात रखते देख सकते हैं। वे हिंदी से बने हैं और हिंदी के लिए मिटने को तैयार खड़े हैं। 81-82 साल की उमर में भी वे हिंदी के नाम पर कहीं भी पहुँच जाते हैं। लोग उसके पिछले भाषण से ताजे भाषण का मिलान करने में उलझे होते हैं और वे हिंदी के वर्तमान को हिंदी के भविष्य और भूत दोनो को मिला रहा होते हैं। वे नूतनता का इस कदर आदर करते हैं कि ब्लॉगिग जैसी एक बन रही विधा को एक बार सिरे से खारिज कर देने के बाद भी उस पर पुनर्विचार के लिए खम ठोंक कर खड़ा हो जाते हैं । वे ब्लॉगिंग को खतरे उठा कर भी लोकतंत्र का पाँचवा खंभा तक घोषित कर देते हैं।

अब अपने नामवर जी कोई कपड़ा या साबुन कि बट्टी तो हैं नहीं कि चिपलूणकर जैसे लोगों को कह दें कि बगल के स्टोर से खरीद कर परख लें। जाँच लें । नहीं भाई यह नामवर सिंह कोई सस्ता और टिकाऊ टाइप सामान तो हैं नहीं । यह तो हिंदी को अपने विशाल चौड़े कंधे पर उठाए फिर रहा एक साधक हैं जो सदा से तन कर खड़ा है। बज्रासन में डटा है। यह उनकी सहजता है कि वे सब जगह जाते रहते हैं। उनके लिए सब अपने हैं। आम से खास तक सबको वे अपना समझते हैं। इसका मतलब नहीं कि आप सब लपक लो और उन्हें उठा कर घूरे पर रख दें। नहीं आप जैसे या कैसे भी लोग नामवर सिंह को कहीं भी नहीं रख सकते । हम नामवर के लोग आपको ऐसा हरगिज न करने देंगे।

नामवर सिंह का हिंदी के लिए किया गया कार्य इतना है कि उन्हें किसी भी मंच पर जाने और अपनी बात कहने का स्वाभाविक अधिकार मिल जाता है। उनके चौथाई योगदान वाले कई-कई दफा राज्य सभा घूम चुके हैं। वे कुलाधिपति बाद में है हिंदी अधिपति पहले हैं। हिंदी का एक ब्लॉगर होने के नाते आप सब को खुश होना चाहिए कि हिंदी का एक शिखर पुरुष आपके इस सात-नौ साल के ब्लॉग शिशु को अपना आशीष देने आया था। आप आज नहीं कल इस बात पर गर्व करेंगे कि नामवर के इस ब्लॉग गोष्ठी में शामिल होने भर से ब्लॉग की महिमा बढ़ी है। कम होने का तो सवाल ही नहीं।

नामवर सिंह के बारे में कम में कहूँगा तो आप समझेंगे नहीं और अधिक कहूँगा तो बात किताब की शक्ल में दिखेगी। लेकिन सोचनेवाली बात है कि जिस आलोचक नें 15 से अधिक किताबें लिखी हों और सौ से अधिक किताबें संपादित की हों। जिसके आलोचना सिद्धान्त आज हिंदी साहित्य को दिशा देते हैं उसके बारे में एक पोस्ट लिख कर
समझाया भी नहीं जा सकता । न एक पोस्ट ...हाँ यदि आपको लगता है कि आप नामवर जी को जाने और तो उनकी ये कुछ किताबें हैं जिन्हें नामवर के समर्थक और विरोधी सब को पढ़नी चाहिए। बकलम खुद, कविता के नए प्रतिमान, वाद विवाद संवाद, छायावाद, साहित्य की प्रवृत्तियाँ, दूसरी परम्परा की खोज, हिंदी के विकास में अपभ्रंस का योग, कहानी नई कहानी, पृथ्वीराज रासो की भूमिका, कहना न होगा, आलोचक के मुख से, इतिहास और आलोचना जैसी कितनी पुस्तकें हैं जो देश के किसी भी पुस्तकालय में आसानी से मिल जाएँगी। इस उम्र में भी वे लगातार बोल कर व्याख्यान देकर वाचिक परम्परा के उन्नायक के रूप में हिंदी को समृद्ध करते जा रहे हैं। यदि नामवर विरोधी लोग उनकी कोई भी किताब पढ़ कर बात करेंगे तो शायद यह कहने की हिमाकत न करेंगे कि नामवर जी ने ब्लॉग संगोष्ठी का उद्घाटन क्यों किया। यह बनारसी आचार्य मुझे नहीं लगता कि भाषण का भूखा है। हाँ यह जरूर है कि वह चाहता है कि हिंदी की उन्नति उस हद तक हो और इतनी हो जहाँ से कोई यह न कह सके कि यह कौन सी गरीब भाषा है।

आप को लज्जा आती होगी आपको हीनता का बोध होता होगा लेकिन हमें गर्व है कि हम उस नामवर को फिर-फिर पढ़ गुन और सुन पाते हैं जो अपनी मेधा से हिंदी के हित में लगातार लगा है। हम उसे प्रणाम करते हैं और कामना करते हैं कि वह ब्लॉग ही नहीं आगे के किसी और माध्यम पर बोलने के लिए हमारे बीच उपस्थित रहें।
तो भाई नामवर से असहमत हो सकते है लेकिन रद्दी की टोकरी में डाल सकते। आप उनके समर्थक हो सकते हैं विरोधी हो सकते हैं लेकिन उन्हें निरस्त नहीं कर सकते।

Thursday, October 8, 2009

खेल संस्कृति नहीं खल संस्कृति

उषा क्यों नाराज हो
पी.टी.उषा तुम्हारे साथ मध्य प्रदेश जो हुआ उसे सुन कर बस एक ही बात ध्यान में आई कि देश में खेल संस्कृति नहीं बल्कि खल संस्कृति का राज है।

Sunday, October 4, 2009

श्री कृष्ण बोले तो खानदानी चोर

मोरे अवगुन चोरी करो

श्री कृष्ण को चोर वे ही कहते हैं जो उन्हें बेहद प्यार करते हैं। तभी तो राजस्थानी के एक कवि ने उन्हें बड़े गौरव के साथ चोर कह कर पुकारा है कि आओ और मेरे अवगुन चुराओ।

आजकल एक राजस्थानी किताब पढ़ रहा हूँ वीर विनोद। स्वामी गणेशपुरी(पद्मसिंह) ने इसकी रचना की है। स्वामी जी का जन्म 1826 और मृत्यु 1946 में हुआ था। ग्रंथारम्भ में उन्होंने श्री कृष्ण के साथ ही उनके पूरे कुटुंब की स्तुति की है। उस स्तुति में गणेशपुरी ने कृष्ण को खानदानी चोर कहा है। मैं यहाँ पर राजस्थानी में की गई वंदना और बाद में उसका श्री चंद्र प्रकाश देवल जी द्वारा किया गया गद्यानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।

सकुटुंब नंदनंदन स्तुति
।। मनोहर छंद।।
पाहन ससुर चोरे सत्यभामा चोरे तरु,
चोरी वंसी राधिका नैं कह्यो फेर डरको।।
चोरी कहौं रावरो तौ जीभ नाहीं लंबी चोरी,
चोरयो दधि दूध जामैं हिस्सा हलधर को।।
चोरन के चोर बसुदेव नंदराय चोर,
चोरन को जने परे मात चोर पर को।।
जांनों हरि ग्रंथ के अमंगल हू चोरे जेहैं,
जैहैं कित चोरी को स्वभाव सब घर को।।

" हे कृष्ण आपके ससुर ने मणि चुराई और आपकी पत्नी सत्यभाम ने इंद्र के सुनन्दन बाग से कल्पवृक्ष चुराया। आपकी प्रेयसी राधा ने स्वयं आपकी बांसुरी चुराई और कहा कि इस (चोरी) में डरना क्या । आपकी स्वयं की की हुई सारी चोरियाँ गिनवाऊँ इतनी तो मेरी जिह्वा की औकात नहीं पर कुछ छोटी चोरियाँ ते बता ही देता हूँ। आप जो दूध दही और मक्खन चुराते रहे उसमें हलधर बलराम का भी हिस्सा होता था इसलिए आपके भाई का शुमार भी चोरों में होगा।
इसी तरह आपको चोरों की तरह जन्म देने के सबब वसुदेव और माता देवकी भी चोर ठहरे और वहाँ से चोरी पूर्वक आपको ले जाकर पाल ने वाले नन्द बाबा और यशोदा मैया भी चोर हुए।

हे कृष्ण मुझे विश्वास है कि आप मेरे इस ग्रंथ के त्रुटि रूपी अमंगल को भी चुरा लेंगे क्योंकि आपकी सपरिवार चोरी की आदत है। और प्रसिद्ध खानदानी चोर से उसकी आदत इतनी आसानी से छूटती नहीं है यही सोच कर ग्रंथ के आरम्भ में आपकी स्तुति कर रहा हूँ।"

स्वामी जी ने श्री कृष्ण की अनेक चोरियों को एक ही पंक्ति में निपटा दिया। वे याद नहीं कर पाए कि कैसे बचपन में गोपियों के कपड़े चुराने वाले ने अपनी प्रेयसी रुक्मिणी को चुराया और उसी पैटर्न पर अपनी बहन सुभद्रा और अर्जुन को चोर बनाया। कैसे चोरी से यानी छिप कर द्रौपदी की लाज बचाई। क्या आप गिना सकते हैं ऐसे अनोखे खानदानी चोर श्री कृष्ण और उनके खानदान की कुछ चोरियाँ।

Friday, October 2, 2009

मैंने अपना नाम फिर बदल लिया है

अगर अमर होना है तो नाम बदल लो

कबीर साहेब को अमर होने के लिए राम के नाम का सहारा था लेकिन भानी तो अपने नाम के सहारे ही अमर होने का सूत्र पा गई हैं। भानी मेरी पाँच साल की बेटी है। कल वह मेरे पास आई और बोली पापा मैं कभी मरूँगी नहीं, क्योंकि जिनका नाम भानी होता है वे कभी मरते नहीं। चाहे मैं फिफ्टी इयर की हो जाऊँ या टू थाउजेंड इयर या ट्वेंटी इयर की मैं कभी भी नहीं मरूँगी। लेकिन तुम सब मर जाओगे। तो न मरना हो तो अपना नाम बदल कर भानी रख लो। मैंने कहा एक घर और चार भानी। कैसा रहेगा। तो भानी ने कहा कि नहीं दादी का भी नाम भानी रखना पड़ेगा। सब का नाम बदलना पड़ेगा।

तो भाई अब से मैं भानी हूँ बोधिसत्व या अखिलेश नहीं क्योंकि मैं मरना नहीं चाहता। आप लोग भी अगर अमर होना चाहते हैं तो फटाफट अपना नाम बदल कर अमर हो जाएँ। अमर होने का इतना सस्ता उपाय कभी नहीं मिलेगा। यह सुनहरी मौका चूकिए मत। नहीं तो फछताना पड़ेगा।

मेरे पूछने पर भानी ने बताया कि उसे नाम के कारण अमर होने का यह मोहक विचार उसके सहोदर भाई मानस ने दिया है। किसी फिल्म में कोई पात्र मर गया तो भानी ने उदास होकर पूछा कि यह क्यों मरा । भाई साहब जल्दी में थे तो कह दिया कि इसका नाम भानी नहीं था, इसलिए मर गया। इसका नाम भानी रहा होता तो यह न मरता। खैर अभी तो भानी अमर होने की खुशी में खेल रही हैं। मैं उनकी यह खुशी क्यों छीनूँ। मैं तो दुआ ही करूँगा कि वह सच में अमर हो जाए।