बस आज फिर होरी दिखा। वह पहले भी कहीं दिखा था। या जो दिखा वह शायद होरी का अपना कोई सगा था। वह बुंदेलखंड से आया था या बिदर्भ से था। उसे किसी ने नहीं देखा। वह चोर की तरह देख रहा था सब कुछ। हारा फटेहाल। उसे मैंने भी
नहीं देखा। हम उसे देख कर क्या कर लेते। बस इसीलिए मैं उसे वहीं छोड़ कर चला आया।
वह वहीं खड़ा रहा । होरी किताब में अच्छा लगता है या चौराहे पर या खेत में। उसे घर में कैसे देख सकता हूँ
उसे घर कैसे ला सकता हूँ।
होरी का पुतला
एक बहुत बड़े चौराहे पर खड़ा हूँ
चहुँ ओर बड़ी अट्टालिकाएँ हैं
दूकाने हैं उनमें सब कुछ मिलता है
मैं सिर्फ देख सकता हूँ यह सब
न है मेरे पास पैसा न धन कैसा भी
जो खेत था सब बिक गया सोना और रूपा के
बियाह में।
गऊ दान के लिए न सुतली है न सवा रुपये
न धनिया है न गोबर है अभी मेरे पास
मेरी गाय को जहर दिया हीरा ने
वह मेरा भाई नहीं
मैं होरी नहीं
मेरे पास तो बैल भी नहीं
मैंने कहा न कि सब कुछ छिन गया है मेरा
मुझे कहाँ जाना है पता नहीं
मुझे अब क्या पाना है पता नहीं।
मैं खड़ा हूँ एक बड़े चौराहे पर
मैं कोई पुतला हूँ
शायद होरी का,
मुझे सजा कर रखो
मैं देश का गौरव हूँ
मैं नरक रौरव हूँ।
Saturday, May 15, 2010
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7 comments:
मैं देश का गौरव हूँ
मैं नरक रौरव हूँ...
-क्या बात है. बहुत उत्तम रचना.
मार्मिक सत्य, अनुत्तरित और मौन ।
बोधि भाई यह विषय ऐसा है कि हिन्दी कविता यहां तक नहीं पहुंच पाती…उसकी बनावट में कुछ ऐसा है कि यह विषय सिमट नहीं पाता…मैने जितनी कवितायें इस विषय पर पढ़ी हैं या तो निबंध में तब्दील हैं…या दूर से हाय-हाय करती सहानूभूति हैं। अक्सर उसमें एक कर्तव्यबोध जैसा दिखता है। जिस परिवेश में बहुतायत ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोगों की है वहां यह पार्थक्य हृदयविदारक है…इस विषय पर नागार्जुन बाबा जैसे शिल्प की ज़रूरत पड़े शायद्।
अशोक क्या कह सकता हूँ....
.....
मैं खड़ा हूँ एक बड़े चौराहे पर
मैं कोई पुतला हूँ
शायद होरी का,
मुझे सजा कर रखो
मैं देश का गौरव हूँ
मैं नरक रौरव हूँ।
...आज भी होरी चौराहे पर ही खड़ा है. देश का गौरव कहलाता है लेकिन रौरव नरक झेल रहा है.
...करारा कटाक्ष करती जरूरी कविता के लिए बधाई.
मुझे अब क्या पना है पता नहीं= पना को पाना कर दें.
बे चैन जी ठीक कर दिया है....आभारी हूँ
बहुत सशक्त कविता.
सहज क्रोध के साथ
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