मई में गाँव गया था । दो गाँवों के लोक गायकों के बीच मुकाबला था । मेरे गाँव का गायक प्रहलाद प्रजापति हार रहा था तो चाचा जी ने कहा कि कुछ इसे जिताने लायक लिख दो। वहीं जन समुदाय के बीच यह गीत लिखा गया जो प्रहलाद को विजयी बना गया । यह अवधी गीत नुमा रचना विजय गीत भी है अब तो गीत शुद्ध रूप से मेरा है यह मेरा दावा है । दाम्पत्य का एक उदात्त रूप यहाँ दिखेगा। पहले गीत पढ़ें फिर उसका भावानुवाद।
तोहय फारि-फारि खाउब बलम जी
हमके पेड़ा- मिठाई न चाहे
तोहय फारि-फारि खाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ......
हमके गद्दा-रजाई न चाहे,
तोहय ओढ़ब बिछाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....
हमके हार कंगन ना चाहे
तोहरे हाड़े गहना गढ़ाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....
हमके सेन्हुर एंगुर न चाहे,
तोहरे राखे माँग भराउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....
हमके साड़ी-पीताम्बर न चाहे,
तोहय चामे चुनरी बनाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....
हमके सरग इन्द्रासन न चाहे
तोहरे छाती आसन जमाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....
हमके न्योता हकारी न चाहे
तोहय कच्चा चबाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....
तोहरे जीते हम न मरबई
तोहरई बेवा कहाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....।
गीत के बाद गद्यानुवाद.......
हमको पेड़ा मिठाई नहीं चाहिए। मैं तुम्हें ही फाड़-फाड़ कर खाऊँगी बलमजी।
हमको गद्दा-रजाई जैसे बिछौने भी नहीं चाहिए। तुम्हे ही बिछाऊँगी। हमको आभूषण भी नहीं चाहिए। तुम्हारी हड्डियों के गहने बनवाऊँगी। माँग में भरने के लिए सिंदूर भी नहीं चाहिए। तुम्हारी राख से माँग भरूँगी। हमको साड़ी की जरूरत नहीं है, तुम्हारे चमड़े से मैं मैं अपना चीर बना लूँगी। हमको इंद्रासन नहीं चाहिए, मैं तुम्हारी छाती पर आसन मारूँगी। मुझे कहीं जाकर नहीं खाना, तुम्हे ही कच्चा चबाऊँगी। तुम पहले मरोगे। उसके बाद ही मैं मरूँगी। तुम्हारी विधवा का खिताब मुझे ही मिलना है।
ऐसा अलौकिक प्रेम कहीं देखा है आप सब ने। अगर हाँ तो ठीक, नहीं तो देख लीजिए।
सावधान- ब्लॉगर पति अपनी पत्नी को यह गीत न पढ़वाएँ और ब्लॉगर पत्नियाँ अपने पतियों को जान कर भी इस उदात्त भावना के बारे में आगाह न करें। इति शुभम्।
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18 comments:
चलिये, इसी बहाने आपके रचित लोक गीत भी पढ़ लिया.
घर में तो इसे जरुर बचाना पड़ेगा. :)
भाई गीत पर कोई राय तो आपने दी नहीं....
क्या कुछ है भी या सन्नाटा ही है
गज़ब है बोधि भाई गाकर देखा तो गाने में मज़ा भी आ रहा है क्या बात है बडे दिन बाद कुछ ऐसा मिला है जिसे अपने गाने वाली लिस्ट मे डाला जा सकता है और गाया जा सकता है. अच्छा है लगे रहिये
विमल भाई
मैं प्रहलाद से पूछता हूँ अगर उसने रेकार्ड किया होगा तो मंगा लेंगे नहीं तो यहीं किसी से गवा लेंगे....हो सकता है लोंगों को रुचे ही.....
मजा आ गया. मेरी पत्नी और मां इस गीत के हमारे बेसुरे गायन पर भुनभुना रही हैं. और हम इसमें कबीरदास छाप दर्शन खोज रहे हैं!
भौत डेंजर गीत है जी। इस पर अमल शुरु हो गया, तो .................
आलोक भाई....गर अमल हुआ तो क्या होगा वही होगा जो इस गीत में गानेवाली की इच्छा है...
बोधि भाई,
बहुत गजब..विमल जी का कहना एक दम सही है, गाकर कर सुनने से मज़ा आ जायेगा...ढोल, 'हरमुनिया' और ये लोकगीत, बस यही सुनाई दे रहा है....
मन प्रसन्न होई ग भइया..
शिव जी
यहाँ मैंने एक गवैया पकड़ लिया है....वह जल्द ही इसे गा देगा और फिर इसे चढ़ाएगें....
इस बार मुझे भुलाना मत भूलियेगा ...आख़िर मुझे भी सुनना है यह गीत
कसम से भैया मज़ा आ गया
यह लोकगीत उन्हें जरूर पढ़ाना चाहिए
जिन्हें समकालीन कवियों के बेतुकेपन की शिकायत है
एक बार, गवाते समय इसे आल्हा की लय पर
गवा कर जरूर देखें, अच्छा बन सकता है
विशाल जी
आपका सुझाव गायक संगीतकार को जरूर दे दूँगा। आपको अच्छा लगा यह मेरे लिए काफी सुखद है....
विमल जी जय राम जी कि ...आपकी ये लोक गीत सुनके तो गाँव कि याद आ गयी ...कुछ ऐसे ही हमको भी एक गीत याद आ रहा है ...
अग्ने में कुईया राजा ,डूब के मारूंगी ।
ससुर बोली बोलेंगे तो कुछ ना कहूँगी ॥
सासु बोली बोले ,तो धोती फाड़ के लडूंगी ....
वैसे आपकी गीत ही ऐसे था कि प्रजापति जी का जितना तय था ॥ बहुत अच्छा लिखा है आपने ....आपका भी हमारे ब्लोग पर स्वागत है !!!!.. !!!
Bade bhai geet bhee achchaa aur us par ye charchaa bhee. Kitab kab aa rahi hai? main utsuk hun. Apne blog par apki tippani bhee dekhi. Apne jo kaha usase zyada koi kuchh nahin keh sakta. Salaam aur Dhanywaad.
bodhi bhaiya
lajwab mal hai. balama nirmohi... se to nimane hai n. rajendra yadav dekhen to chhati pit lenge unki jagah yh dushra kaun hai jo stri vimarsh ko itni uchaee pr le ja raha hai aur vo bhi kavita men
भाई अब आप लोग जो चाहें कहें करें....हम तो जैसा सोचते हैं लिखते है....
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