असल बनारसी शायर
हिंदी में आज कोई गुंडा कवि नहीं है। जिसे देखिए रिरियाता सा घूम रहा है। पर कभी बनारस में ऐसे शायर थे जो बाकायदा गुंडे थे। बनारस की मिट्टी का असल रंग अगर कहीं निखर कर आया है तो वह तेग अली के बदमाश दर्पण में। भारतेंदु मंडल के इस बेजोड़ गुंडा शायर के लेखन का केवल यही बदमाश दर्पण की एक मात्र उपलब्ध पोथी है।
हिंदी के युवा कवियों को मैं इस शायर से प्रेरणा लेने की अपील कर रहा हूँ।
तेग अली वाकई गुंडा थे। उनका पेशा ही गुंडई था। अगर आपको प्रसाद जी की कहानी गुंड़ा के नायक नन्हकू सिंह की याद हो तो आप आसानी से तेग अली को समझ सकेंगे। गुंडों की परम्परा में तेग अली आखिरी बाँके थे। यह परम्परा उन्नीसवीं सदी के अंत तक कायम रही। गुंडई के साधनों से बिछुआ और लाठी बरछे से लैस तेग अली जब कलम पकड़ते थे तो वहाँ भी करामात दिखाते थे। तभी तो उनका स्थान भारतेंदु मंडल में पक्का था।
तेग अली बनारस का जन्म बनारसमें ही हुआ था और वे शहर के उत्तरी भाग में मुहल्ला तेलियानाला मुत्तसिल भदाऊँ में रहते थे। वह मन मिजाज से पूरे बनारसी थे। उन्होंने बदमाश दर्पण को काशिका भाषा में रचा यानी बनारस की स्थानीय जबान में।
तेग अली तबीयत से शौकीन थे। तेल फुलेल और इत्र गजरा के साथ ही रसना रसायन के भी रसिक थे। आप उनके साहित्य में बनारस का असल माल पाएँगे। असल रूप रंग।
कुछ बदमाश दर्पण के बारे में
बाबू राम कृष्ण वर्मा ने 1895 में तेग अली की 23 गजलों का दीवान बदमाश-दर्पण नाम से प्रकाशित कराया था। बाद में लगभग 60 साल बाद खुदा की राह के संपादक पं. पुरुषोत्तम लाल दवे ऋषि ने कोई संस्करण छापा । फिर संवत् 2010 में बहती गंगा के रचनाकार रुद्र काशिकेय ने ज्ञानमंडल से बदमाश दर्पण को प्रकाशित कराया जो सालों से अनुपलब्ध है। खुशी की बात है कि बदमाश – दर्पण को बनारस के विश्वविद्यालय प्रकाशन ने फिर से 2002 में छाप दिया है। इसबार इसे संपादित किया है नारायण दास जी ने। कम लोगों को पता है कि नारायण दास जी जगन्नाथ दास रत्नाकर के पौत्र हैं और विद्या व्यसनी हैं।
आप के लिए उसी ऐतिहासिक ग्रंथ की छठवीं गजल हाजिर है। इसका भावानुवाद भी नारायण दास जी का ही किया है।
एक गजल
सुनत बाटी
केहू से बाट रजा तूं सटल सुनत बाटी।
ई काम करत नाही नीक हम कहत बाटी।।1।।
सहर में, बाग में, ऊसर में, बन में धरती पर।
तूँ देखले हौअ बवंडर मतिन् फिरत बाटी।।2।।
न कौनो काम करीला न नौकरी बा कहूँ।
बइठ के धूर क रसरी रजा बटत बाटी।।3।।
कहै लै फूल के गजरा त सब केहू हमके।
पै तोहरे आँखी में कांचा मतिन गड़त बाटी।।4।।
नाहीं मुए में लगउल रजी तूं कुछ धोखा।
पै आँख मून के देखीला तब जिअत बाटी।।5।.
न घर तू आव ल हमरे न त बोलाव ल।
ए राजा रामधै तोहसे बहुत छकत बाटी।।6।.
गजल का भाव
मेरे सुनने में आ रहा है कि आजकल तुम किसी और से जुड़े हो लेकिन मैं तुमसे कह देता हूँ कि तुम यह काम अच्छा नहीं कर रहे हो।।1।।
मैं तुम्हारे लिए नगर में, वन उपवन में उजाड़ खंड में, यानी पूरी पृथ्वी पर मैं बवंडर यानी चक्रवात की तरह घूम रहा हूँ, यह तो तुमने देख ही लिया है।।2।।
राजा न कहीं नौकरी करता हूँ, न मेरा कोई रोजगार धंधा है, बस बैठे-बैठे धूल की रस्सी बना कर जीवन यापन कर रहा हूँ।।3।।
सब लोग तो मुझे फूलों का हार कहते हैं लेकिन मैं तुम्हारी आँखों में काँटो की तरह गड़ता रहता हूँ।।4।।
मुझको मार डालने में राजा तुमने कोई कसर नहीं छोड़ी है मगर आँख मूँद कर तुम्हारी सूरत का तसव्वुर कर लेता हूँ, इसीलिए अब तक जिंदा हूँ।।5।।
राम कसम ए राजा मैं तुमसे बहुत परेशान हो गया हूँ, कि न तुम कभी मेरे घर आते हो न कभी मुझे अपने घर बुलाते हो।।6।।
35 comments:
लौट आया हूँ भाई.. और आप को फिर से पढ़ रहा हूँ.. बड़ी खुशी हो रही है..
बहुत सही चीज छापै हो.. आनन्द आइ गइल..
न कौनो काम करीला न नौकरी बा कहूँ।
बइठ के धूर क रसरी रजा बटत बाटी।।3।।
'गुंडा शायर' ने गजब का लिखा है....
बड़ी बढ़िया गजल ई तेग भी लिखे रहलेन
क़रीब एक घंटा होई ग हम पढ़त बाटी
स्वागत है भाई अभय...यहाँ जो कुछ है आप के कारण है। मैं तो ब्लॉग पर आप के ही कारण हूँ...
शिव भाई तेग की हर गजल तेग की तरह धारदार है...बिना चोट किए नहीं जाती ... आगे पूरा दीवान छाप दूँगा....आप सब के लिए।
भई भौत बढ़िया जी,
तेग साहब से बहुत प्रेरणा मिली, न हो तो मुंबई से दिल्ली की कोई फ्लाइट हाईजैक कर ली जाये, ट्रेन हाईजैक करना मुश्किल है ना और सारे ब्लागर अपने-अपने आइटम सबको सुनायें। जो यात्री कायदे से वाह-वाह न करे, उसे दोबारा वही रचना सुनायी जाये।
भई वाह वाह।
प्रेरणा तो हमको भी मिली.
अब तक साहित्यकारों को गुंडा समझते थे अब गुंडों को साहित्यकार भी समझने लगे हैं. :-)
गजल बहुत अच्छी है..और रचनाऎं लायें.
आलेक भाई प्रेरणा का कुछ परिणाम दें....
और काकेश भाई
इसी पोस्ट को फिर से संपादित कर दूँ क्या
या कल दो अलग से डाल दूँगा...भारी और लंबी होने के डर से एक ही गजल डाली है...
तेग अली साहेब क एकाध रचना और होखे ! एकजाई पेस भइल ।
अफलातून भइया
नीमन रचना अउर पढ़ैं खातिर थोड़ा सबर करै पड़ी...
बहुत बढ़िया लगा। बनारस के इस खांटी रस का और पान करवाएं, बोधि जी।
आगे पूरा दीवान छाप दूँगा....आप सब के लिए।
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पूरा दीवान छपब्य त सब मगन होई जैहीं! लागता बनारस पर कुच्छो लिखिदअ, सब हिट होई जाये!
teg ali ka mal peshkar aapne sharatee blogeron ko to chaunka diya hai, so bahut achchha lekin aapne yah kaise kah diya ki aaj ka har kavi ririyata fir raha hai? kaise?
हर हिंदी कवि तो नहीं ही रिरिया रहा है.....पर मैं तो रिरिया ही रहा हूँ....अपनी बात वापस लेता हूँ.....
का भई! बात करे के गुंडा कबी क और आपना बतियों वापस ले लेत हवा. ए तरे स नाम हंसा देबा बनारस क. सही बात ह. सब रिरियैते हवें. अउर करिहैं का सुविधाभोगी कबी सन?
भाँति भाँति की हिन्दी या उसकी बहन बोलियाँ सुनी थी पर यह ना सुनी थी । सुनकर , पढ़कर बहुत मधुर लगी ।
घुघूती बासूती
हम गृहस्त हईं.....गुंडा नइखे......का करी पिछड़ि गइले से जिनगी त बाचल रही....इष्ट भइया
गजबै है भाई
जेतना धन्यबाद दें कमै है.
जियो राजा.
गज़ब!!
उम्दा. मजा आ गया एक ही गजल में तो पूरी किताब पढ़कर क्या होगा: और छापें 'गुंडा शायर'से अंश. आभार इस जानकारी का.
क्या दूर की कौडी ढूंढ के लाये है. भई वाह!!!!
बदमाश दर्पण जैसा कोई अधुनिक काव्य भी होना ही चाहिये.ढूंढियेगा तो जरूर पाइयेगा.
और भी छापिये , तनिक औरौ आनन्द आइ के चाही.
भाई अनामदास आपका शुद्ध मन से आभारी हूँ...उत्साह बढ़ाने के लिए।
संजीत भाई पढ़ने के लिए धन्यवाद...
समीर जी मौका दें हाजिर होता हूँ...और अरविंद जी कौड़ी दूर की नहीं पास की है पर देर से आई है
यह तो पुरखों से उऋण होने की कोशिश भर है....शायद और कोई तरीका नहीं है मुक्ति का....
आज कौन है कवि जिसकी तुलना इन दिग्गजों के कर सकें....
इस कविता पर मैं जिया हो राजा के बजाय जिया हो करेजा कहना पसंद करूंगा, वह भी ललकार कर...
अनिल भाई
मुझे जिय हो राजा और जिय हो करेजा दोनों स्वीकार है.....
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तेग अली से मिलवाने के लिए शुक्रिया ..लेकिन इसी गुंडइ के कारण मुझे बनारस छोड़ना पड़ा था गुरुदेव
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