Wednesday, October 17, 2007

मंगलेश डबराल की दो कविताएँ

हिंदी के महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई 1948 को उत्तरांचल के काफलपानी गाँव, टिहरी गढ़वाल में हुआ । मंगलेश जी साठवें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। पुराना वक्त होता तो हम उनकी साठवीं सालगिरह का समारोह करते। पर अब यह सब कहाँ होता है। वे मेरे पसंद के कुछ एक कवियों में हैं। खास कर उनकी कविता संगतकार जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। उनकी कुछ प्रमुखकृतियाँ
पहाड़ पर लालटेन (1981); घर का रास्ता (1988); हम जो देखते हैं (1995)
उन्हें हिंदी के की बड़े सम्मान भी प्राप्त हैं जिनमें ओमप्रकाश स्मृति सम्मान (1982); श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार (1989) और "हम जो देखते हैं" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार(२०००)
शमशेर जी का एक कथन है बात बोलेगी हम नहीं। तो यहाँ जो कुछ कहना है मंगलेश जी की कविता अपनी गवाही देगी। मैं कविताओं पर कुछ नहीं कह रहा हूँ। पढ़ें और अपने विचार व्यक्त करें।

दादा की तस्वीर

दादा को तस्वीरें खिंचवाने का शौक नहीं था
या उन्हें समय नहीं मिला
उनकी सिर्फ़ एक तस्वीर गंदी पुरानी दीवार पर टंगी है
वे शांत और गम्भीर बैठे हैं
पानी से भरे हुए बादल की तरह
दादा के बारे में इतना ही मालूम है
कि वे माँगनेवालों को भीख देते थे
नींद में बेचैनी से करवट बदलते थे
और सुबह उठकर
बिस्तर की सलवटें ठीक करते थे
मैं तब बहुत छोटा था
मैंने कभी उनका गुस्सा नहीं देखा
उनका मामूलीपन नहीं देखा
तस्वीरें किसी मनुष्य की लाचारी नहीं बतलातीं
माँ कहती है जब हम
रात के विचित्र पशुओं से घिरे सो रहे होते हैं
दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं
मैं अपने दादा जितना लम्बा नहीं हुआ
शान्त और गम्भीर नहीं हुआ
पर मुझमें कुछ है उनसे मिलता जुलता
वैसा ही क्रोध वैसा ही मामूलीपन
मैं भी सर झुकाकर चलता हूँ
जीता हूँ अपने को तस्वीर के एक खाली फ़्रेम में
बैठे देखता हुआ

(1990)

संगतकार


मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

(रचनाकाल : 1995)

11 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

डबराल जी का नाम सुन रखा है। परिचय और उनका लिखा पढ़ाने को धन्यवाद।

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया.

डबराल जी के विषय में जगह जगह सुनता था-आपके संगत का फायदा- आज गहराई को जान भी लिया.

साधु संगत हरदम हर्षाई!!!

काकेश said...

धन्यवाद.

अनूप शुक्ल said...

अच्छी हैं कवितायें खासकर पहली वाली।

Arvind Mishra said...

दादा कविता पढ़ कर मुझे अपने दादा की याद आ गयी .कवि की आत्मिक अनुभूति का सार्विक होना उसकी कालजयित्ता की पहचान है

अनिल रघुराज said...

आप भी भोरै में उठकर महामहिमों की तरह टंकियाने लगे!! अच्छा है। परंपरा की सुरक्षा का घना साया है इन पंक्तियों में कि...
माँ कहती है जब हम रात के विचित्र पशुओं से घिरे सो रहे होते हैं
दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं
मंगलेश जी से मिले 27-28 साल हो गए। दिल्ली में एक बार टकराए तो इतने लजाधुर हैं कि बात ही नही हो पाई।

बोधिसत्व said...

मैं रात बारह से एक के बीच टिपियाता हूँ....
यह सुबह का नहीं है....।
इतने सालों में मंगलेश जी ने कई नए मुकाम तय किए हैं आप उनसे फिर मिलें। अच्छा लगेगा आपको।

Unknown said...

मंगलेश जीं की कविताएँ देकर सचमुच अच्छा किया आपने ,वे मुझे भी बहुत प्रिय हैं . उनके संकलन आवाज भी एक जगह है से भी हो सके तो कुछ कविताएँ दें .

बोधिसत्व said...

आवाज भी ....को कोई ले गया यह कह कर कि पढ़ कर लौटाता हूँ.....अगर उन्होंने लौटा दिया तो डालूँगा उससे भी कुछ कविताएँ

ravishndtv said...

मंगलेश जी ने मुझे बहुत कुछ दिया है। काम की व्यस्तता में कभी मिल न सका। मगर दस साल पहले मैंने इस कवि के बड़प्पन को देखा था। मामूलीपन को नहीं। जो आज भी मेरे भीतर के फ्रेम को भरता रहता है। कवियों के बारे में बहुत बातें होती हैं। मुझे नहीं लगता कि मंगलेश जी जैसा कोई अपनी रचना में इतना सरल कवि है।
छुप्पन छुपाई पर एक कविता याद आती है।

संस्कृति संगम said...

मंगलेश जी मेरे भी प्रिय कवि हैं.दोनों कवितायें बहुत अच्छी लगीं.संचालन में कई बार उनकी इन लाइनों का उपयोग कर चुका हूं- "कविता दिन भर थकान जैसी थी,रात में नींद की तरह,सुबह पूछ्ती हुई-क्या तुमने खाना खाया रात को ?
देवमणि पांडेय