भानी को क्या समझाऊँगा
पिछले आठ दिनों से रसोईं घर एक अस्थाई मंदिर में बदल गया है और मैं अपने घर में अल्पसंख्यक हो गया हूँ। नवरात्रि के पहले दिन से आज तक रसोईं की दीवार में लकड़ी के छोटे से मंदिर के आगे जमीन पर देवी का कलश रखा है। उस कलश के आगे एक दीया लगातार जल रहा है। मैं सबेरे जब सो रहा होता हूँ तभी मेरी पत्नी पूजा कर चुकी होती हैं। इस पूजा में मेरी बेटी भानी और बेटा मानस उनका साथ देते हैं। भानी प्रसाद बनाने में और आरती गाने में और मानस शंख फूँकने में और घंटी बजाने में। भानी आरती की एक ही पंक्ति काफी ऊँचे और बिखरे सुरों में गाती है—
जय अंबे गोरी मैया जय अंबे गोरी ।
फिर आगे की पंक्तियों में चुप रह कर टेक जय अंबे गौरी के आने का इंतजार करती है और टेक की पंक्ति के आते ही जोर से जय अंबे गोरी गा पड़ती हैं। कभी – कभी हवन कुंड में कपूर की गोलियाँ डाल कर वह अपनी भूमिका साबित करती रहती है। एकाध दिन तो दिन में वह दो-तीन बार आरती करने या प्रसाद बनाने के लिए बाल-हठ करती रही । बाद में उसकी जिद पर दो तीन बार पूजा की भी गई। उसके लिए पूजा मतलब प्रसाद का बनाना हो गया है। एक काम वह और करती है जो काफी जरूरी है दीये की निगरानी का । वह बार-बार रसोईं या कहें कि मंदिर में झाँक कर देखती है और अपनी मां को रिपोर्ट करती है कि दीया जल रहा है।
मानस को पूजा की ट्रेनिंग उनकी माता जी ने दी है। उसे पूजा करते और आरती बुदबुदाते देख कर मुझे मेरा बचपन याद आता है। मैंने अपने पुरखों के बनवाए मंदिर में लगातार बारह चौदह साल बाकायदा पुजारी की तरह पूजा किया है। मंदिर घर से करीब किलोमीटर भर की दूरी पर था और मैं सुबह कौपीन पहन कर अपने उदास से माथे पर तिलक लगाए पूजा करने जाता। सुबह की पूजा में तो कोई दिक्कत नहीं आती लेकिन शाम की आरती के समय मंदिर में घुसते डर लगता। मंदिर सूने में था और हर तरफ से अंधाकार में घिरा रहता था। फिर भी दीया जलाने जाना होता था। मुझे नहीं याद कि पानी हो या आँधी कभी मैंने दीया न जलाया हो। यानी मेरे गाँव का मंदिर और उसके देवता सब मेरे जिम्मे हुआ करते थे। जब मेरे इलाहाबाद पढ़ने जाने की बात आई तो घर वालों के सामने मंदिर के पुजारी की समस्या सबसे प्रबल थी।
हालाकि पिछले 19-20 सालों से एक नास्तिक जीवन जी रहा हूँ....पर घर की रसोईं में लगातार आठ दिनों से जल रहे दीये को देख कर अजीब लग रहा है। कल तो भानी की जिद पर या कहें कि मानस की गैर हाजिरी में शंख भी बजाना पड़ा। मैं यह बताना चाहूँगा कि लगभग एक सवा मिनट तक आराम से अविराम शंख बजा लेता हूँ। मेरे एक मित्र अरविंद शंकर ने मुझे बहुत अच्छा शंख उपहार में दिया है।
मेरी उलझन दूसरी है। कल नवरात्रि की आखिरी दिन है। पूजा के बाद कलश इत्यादि को प्रवाहित करना होगा। मानस तो समझ गया है भानी को कैसे समझाऊँगा कि लगातार जल रहा दिया कल रात से या सुबह से ही बुझ जाएगा। हालाकि दिन में कई बार प्रसाद बनाना और आरती करना कम हो जाएगा । और जय अंबे गोरी भी शायद सुनने को कम मिले....।
नोट- उपाय हीन होने से घर के दीये की कोई फोटो नहीं डाल पा रहा हूँ।
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10 comments:
बोधि भाई
बच्चे हैं. भक्ति और पूजा तो अभी नहीं समझते होंगे मगर दिल जरुर बहलता होगा-शंख की शंखनाद, आरती की धुन, प्रसाद की मिठाई, दीपक की जगमगाहट, और मम्मी से साथ गाना गाना. सब अच्छा लगता होगा. दीपक तो अभी आठ दिन से लगातार जल रहा है. पहले नहीं जलता था लगातार, तब बच्चे किसी और चीज से बहले रहे होंगे. आगे भी एडजस्ट कर जायेंगे. हाँ, आगे चल कर जब पूजा और भक्ति का सही अर्थ जान जायेंगे तब उनका मन है कि विश्वास करें या न करें.
बचपन तो, जैसा आप बता रहे हैं, आपने भी पूजा करते बिताया है. इसके लिये इतना परेशान होने की क्या जरुरत है कि कैसे समझायेंगे-दीया क्यूँ नहीं जल रहा है? थोड़ी देर में ही बच्चे दूसरे खेल में व्यस्त हो जायेंगे. बच्चों का मन तो बहुत चंचल होता है.
अच्छा रहा आपकी शंख बजाने में महारातता जानना.
दिल के ईमानदार भाव पढ़कर अच्छा महसूस हुआ.
घर के दिये का फोटो डालो चाहे न डालो, बिटिया का नाम लेते ही उसका फोटो जरूर डाल दिया करो। वह बहुत प्यारी लगती है।
सही! ज्ञानजी की बात पर अमल किया जाये भाई!फोटो तो होना मांगता है!
भानी छाती जा रही है भाई आप के ब्लॉग पर..
घर से बहुत दूर हे मस्जिद
क्यूं ना किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये
आप भले ही नास्तिक हों पर बिटिया भानी को बहलाने के लिये बेमन से ही शंख भी बजा रहे हैं, वह भक्ति से कम नहीं। जरूरी नहीं कि आस्तिक हो कर ही भक्ति की जा सके या प्रभू के आरती गा कर, अजान या प्रार्थना कर ही भक्ति की जा सके!!
मेरे हिसाब से सबसे बढ़िया प्रभु भक्ति आप कर रहे हैं।
भानी के फोटो के बारे में हम ज्ञानदत्त जी और अनूपजी से सहमत हैं और उस मांग को दोहरा रहे हैं।
बोधि जी, भानी की मासूमियत दिल को छू जाती है।
नवरात्रि में बच्चों के चक्कर में अपनी भी मौज हो रही है जी। कल बच्चों को पास में रामलीला का मेला दिखा कर लौटा हूं। बड़के बड़के झूले, चांदनी चौक की जलेबी, बनारस का पान, काला जादू, असम का मैजिक शो, चना जोर गरम, अंगरेजी बोलते हनुमान, जाने क्या क्या।
अब भी रामलीला में बहुत मौज है जी। रामजी की तरह -तरह से मौज कराते हैं जी। ये नौ दिन वाकई पूरे साल याद रहते हैं।
achchha hai DEVIYON ko khush rakhna.
ज्ञान जी ने सबसे सटीक बात कही!!
आप जब भी भानी की बात लिखते हो एक मुस्कान आ जाती है चेहरे पर!!
ज्ञान भाई और मित्रों आपके आदेश का आगे से जरूर पालन होगा.....
भाई चवन्नी....अगर बच्चे खुश हैं तो थोड़ा शंख बजालेने दें......
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