Monday, October 22, 2007

यह दिल्ली किसकी है ?














भारत हिंदुस्तान या इंडिया जो भी नाम हो इस देश का इसके इतिहास ही नहीं वर्तमान में भी दिल्ली की खास भूमिका रही है जिससे आप सब परिचित हैं। दिल्ली को लेकर हर दौर में बहुत सारी कविताएँ लिखी गई हैं। याद करें तो सबसे पहले दिनकर जी की कविता याद आती है। मैंने १९८७ में अवधी में एक कविता दिल्ली पर लिखी थी। पर लगता है कि दिल्ली की महिमा के लिए कई सारे संग्रह लिखने पड़ेंगे। पढ़े दिल्ली का गुनगान करती इस कविता को।

किसकी दिल्ली !

पाँच साल का बच्चा
गुमसुम मलता है बासन
यह कैसी किसकी दिल्ली
और कैसा किसका शासन।

ये सुंदर फूल पखेरू
जिनके कोटे का राशन
खाकर फूली है दिल्ली
मुसकाती देती भाषन।

यह कैसा दिवस, अंधेरा
छाया चौतरफा, जिसमें
बच्चे की छती पर
दिल्ली मारे है आसन।

रचनाकाल १६ मई २००१, मुंबई

14 comments:

काकेश said...

अच्छी कविता.

Sanjeet Tripathi said...

बढ़िया!!

"दिल्ली" की जगह "भारत" रख देने पर और सही लग रही है।

Shiv said...

बहुत बढ़िया कविता, बोधि भाई....पढ़कर अच्छा लगा....कवि मुद्दे उठाएगा ही....उसका जवाब देने वाले कल भी नहीं थे और शायद आज भी नहीं.

ALOK PURANIK said...

बेहतरीन।
दिल्ली पर एक बहुत लंबी कविता तद्भव पत्रिका की वैबसाइट पर भी पढ़ी है मैंने, दिल्ली की इतनी डिटेल्स वाली दूसरी कविता मुझे नहीं लगता है कि कोई और होगी।

बोधिसत्व said...

आलोक भाई तद्भव में या वागर्थ में.....शायद भगवत रावत जी की कविता थी....

Unknown said...

तद्भव मे पंकज राग की . नया ज्ञानोदय मे भगवत रावत की

Ashish Maharishi said...

मार्मिक कविता है

Gyan Dutt Pandey said...

आजकल केहर हयअ! दिल्ली तबादला होइग का?

बोधिसत्व said...

ज्ञान भयवा बम्बये में हई.....दिल्ली जाई बदे तइयार नाहीं बा मन.....आशीष द कि बंबई न जाइके परई

ghughutibasuti said...

बहुत अच्छी कविता है ।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

बेहतरीन बोधि भाई. आनन्द आया पढ़कर.

बोधिसत्व said...

ज्ञान भइया दिल्ली न जाइ के परई लिखत रहे लिखाइ ग बंबई न जाइके परे।

अजित वडनेरकर said...

बहुत सुंदर बोधिभाई। मज़ा आया पढ़कर।
१९८९ में दिल्ली में रहते हुए अपनी लिखी पंक्तियां याद आ गईं-

अपने आप में सिकुड़ा, सिमटा

आवारा सा डोल रहा

देखो वो, मुफलिस का बेटा

दर्द की गठरी खोल रहा

उसकी नही दरकार कोई

चाहे हो सरकार कोई
.....


इसके आगे क्या था याद नहीं। कविता आधी अधूरी सी तो थी ही ऊपर से सहेजी भी नहीं गई।

वैसे भी हम कवि थोड़े ही हैं। शुक्रिया अच्छी कविता पढ़वाने के लिए..

बोधिसत्व said...

अजित भाई
आप तो हिंदी के किसी भी कवि से बेहतर काम कर रहे हैं.....आपकी पंक्तियाँ मेरी पंक्तियों से कहीं बेहतर हैं। संकोच न करें जो कविता आपके खजाने में दबी है उसे उजागर करें....।