नामवर को जानो भाई
जब 17 अक्टूबर की शाम में नामवर जी से फोन पर बात हुई थी तो यह तय हुआ था कि मैं और वे 23 अक्टूबर को इलाहाबाद में गले लग कर भेटेंगे । भेटने का प्रस्ताव मेरा था जिसे नामवर जी ने भावुकता भरे स्वर में स्वीकार कर लिया था। यह भेटना औपचारिक रूप से गले लगने जैसा न होकर उस तरह से होना था जैसे मायके में बहुत दिनों बाद आई बिटिया अपनों से मिल कर मन का बोझ हल्का करती हैं। भेट अकवार लेती हैं। नामवर जी को हिंदी के तमाम लोग दिल में रखते हैं। मैं अकेला नहीं हूँ जिसके मन में नामवर जी को लेकर यह श्रद्धा का भाव है। लेकिन दुर्योग देखिए कि वहाँ हिंदुस्तानी अकादमी में नामवर जी दिखे भी, दूर से प्रणाम आशीष भी हुआ लेकिन भेटना न हो पाया। ब्लॉगिग पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में उनका भाषण सुनने का मेरा कोई पहला अवसर न था। लेकिन हर बार की तरह वहाँ भी नामवर जी कुछ कह ही गए और लोग यह क्या यह क्या करते रह गए।
आज जब ब्लॉग के पिछले पन्नों पर गया तो वहाँ नामवर सिंह के विरोध का एक गुबार सा दिखा। कुछ को उनके बोलने पर आपत्ति है कुछ को उनके वहाँ आने पर कुछ को उनके उद्घाटन भाषण देने पर। मैं नामवर सिंह का प्रवक्ता नहीं लेकिन उनका समर्थक होने और कहलाने में कोई संकोच नहीं। आप मान सकते हैं कि मैं नामवर वादी हूँ। और दावे से कह सकता हूँ कि इलाहाबाद में उन्होंने जो कुछ ब्लॉगिंग पर कहा वह उनकी पिछले 65 सालों की हिंदी समाज की समझ थी, उससे उपजी धारणा थी। जिसे वे बिना लाग लपेट के कह सके।
उन्होंने अगर कहा कि ब्लॉगिंग पर भविष्य में नियंत्रण रखने की आवश्यकता होगी तो क्या गलत कहा। उनका यह कथन ब्लॉगिंग को लेकर उनकी गंभीर और दूरंदेश सोच को ही दिखाता है। वे चाहते तो कुछ अच्छी-अच्छी और भली लगने वाली आशीर्वचन टाइप की बातें कह कर खिसक सकते थे। ब्लॉग पर राज्य की निगरानी की बात पर छाती पीटने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि ब्लॉगिंग रेडियो, सिनेमा और टीवी के भी आगे का सामाजिक माध्यम बन कर सामने आया है। और जरा सी बात पर क्या से क्या छप जाता है। ऐसे में आज नहीं तो कल ब्लॉग को मर्यादित बनाए रखने के लिए एक नियंत्रक की आवश्यकता पड़ सकती है। अगर आज के सिनेमा को नियंत्रित न किया जाए तो क्या क्या दिखाएगा अपना सिनेमा जगत जिसे शायद चिपलूणकरादि भी नहीं झेल पाएँगे। कितने लोग गंदे साहित्य को घर-घर की दास्तान बना देंगे और कहेंगे कि मुझे कुछ भी छापने की आजादी दो। क्या जगमग ब्लॉगिंग के पीछे के कलुस और अंधकार को रोकने के लिए एक व्यवस्था के बारे में सोच कर नामवर ने अपराध कर कर दिया। क्या कल ऐसी किसी व्यवस्थापिका की जरूररत न होगी। चिपलूणकर और ईस्वामी जी को न होती तो खुद सुरेश चिपलूणकर ब्लॉग प्रहरी जैसे ब्लॉगजगत को नियंत्रित करने वाले अभियान में शामिल हैं । ब्लॉग प्रहरी यह दावा करता है कि ब्लॉग और ब्लॉग की दुनिया पर शुद्धता केंद्रित नियंत्रण रखेगा। चिपलूणकर का नियंत्रण किस आधार पर जायज हो जाता है और नामवर जी का नाजायज यह बात समझ में नहीं आती। और शास्त्री जेसी फिलिप जी साहित्य बलॉग के बहुत पहले से है जब लिखने का माध्यम नहीं था तब से है साहित्य और आपके ब्लॉग के जवान होने पर यह और परिपूर्ण होगा और एकदिन ऐसा आएगा ब्लॉग साहित्य का उपांग हो जाएगा । वैसे भी यह लिखने का एक माध्यम भर ही है ।
इसलिए ब्लॉग पर नियंत्रण की बात नामवर जी को उचित लगती है लगती है तो उसे कहने का उन्हें पूरा हक है। मैं ही नहीं ऐसे तमाम लोग होगें जो नामवर जी की बात का समर्थन करते होंगे।
इलाहाबाद में बोलते हुए 23 अक्टूबर को नामवर जी ने एकबार भी यह नहीं सोचा कि यह ब्लॉगिंग तो उनकी दुनिया है नहीं। क्योंकि चिपलूणकरादि उन्हें ब्लॉग समाज का नहीं मानते। फिर वहाँ नामवर जी गए क्यों, गए तो बोले क्यों, बोले तो ऐसा क्यों बोले जो किसी ब्लॉगिए को बेध गया। ब्लॉग पर बोलने के लिए मुनीशों प्रमेंद्रों ईस्वामियों आदि के लिए ब्लॉगर होना जरूरी है। तो क्या सच में ब्लॉग कुछ हजार दो हजार चिट्ठाकारों का प्राइवेट अखाड़ा है, अलहदा दुनिया है। जिसे साहित्य या सिनेमा की तरह आम जन से काट कर रखना है। जिन्हें नामवर जी के इलाहाबाद सम्मेलन में आने और बोलने से आपत्ति है मुझे लगता है कि वे ब्लॉग को अजूबा और पवित्र वस्तु मान कर अपने कब्जे में रखने की साजिश रच रहे हैं । जब नामवर जी जैसे विराट व्यक्तित्व के सहभागी होने से इसके आम जन तक पहुँचने का रास्ता खुल रहा है तो हाय तौबा मचा रहे हैं, बौखला रहे हैं।
बेशक नामवर जी पुराने लोग हैं लेकिन कुंद नहीं हैं। उनकी समझ और धार आज भी कायम है । हालांकि वे आज भी कलम से लिखते हैं, कम्प्यूटर के की बोर्ड पर अंगुली फिराकर उनका काम खत्म नहीं हो जाता। यह तो ब्लॉगरों के लिए खुशी की बात है कि नामवर जी जैसे आलोचक ब्लॉग की अहमियत समझ रहे हैं। इसमें आपा खोकर नामवर विरोधी हो जाने की क्या जरूरत है। हिंदी का सबसे पुराना आलोचक अभिव्यक्ति के सबसे आजाद माध्यम पर बोल रहा है। यह कितनी बड़ी घटना है। अमूमन बुजुर्ग लोग नए पर नाक भौ सिकोड़ते हैं। नामवर जी उन सठियाए लोगों में नहीं हैं, तो क्या यह उनका अपराध है।
नामवर जी को वहाँ यह खयाल नहीं रहा कि उनके बोलते ही तमाम लोग अगिया बैताल की तरह उन पर लपक पड़ेंगे। वे बेधड़क बोले क्योंकि उनको बेधड़क बोलने की दीक्षा मिली है। वे हमेशा खुल कर बोलते रहे हैं। वे ठीक से समझ रहे हैं कि केवल माध्यम बदला है, माध्यम का सरोकार नहीं। लिखने का तौर तरीका बदला है लिखाई और बातें उनके ही देश समाज की भाषा हिंदी की हिंदी में हो रही है। जिसे वे 65 सालों से जीते लिखते और 80 साल से बोलते आ रहे हैं। क्या ब्लॉग या चिट्ठाकारी की दुनिया पर बोलने के मामले में उनकी हिंदी की 65 साल की सेवा अकारथ हो जाती है। और कोई ब्लॉग लेखक उनसे सवाल पूछने का अधिकारी हो जाता है कि वे किस बिना पर ब्लॉग पर बोल सकते हैं। तो मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि वे आज की हिंदी के जीवित इतिहास और वर्तमान हैं। वे हिंदी हैं, हिंदी के अभिमान हैं। नामवर सिंह का विरोध हिंदी का विरोध है। जो का ऐसा कर रहे हैं वे नामवर के होने का अर्थ नहीं जानते। यदि उन्हें हिंदी की एक नई विधा पर बोलने का अधिकार नहीं है तो किसे है। क्या मूनीश बोलेंगे या प्रेमेंद्र बोलेंगे या शास्त्री जेसी फिलिप या चिपलूणकर या कोई ईस्वामी और अन्य महाशय बोलेंगे। क्या यह अधिकार उसे ही मिलेगा जो ब्लॉग के माध्यम का पंडित हो और सुबह शाम ब्लॉग-ब्लॉग का जाप करता हो।
हालाकि किसी के थोथे विरोध से नामवर सिंह पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर किसी को नामवर का खंडन मंडन करना हो तो पहले नामवर को जानो। जानो की उनका अवदान क्या है। जानो कि उन्होंने हिंदी को क्या दिया है। बिना जाने नामवर को नकारने कोशिश एक बेबुनियाद लड़ाई होगी। कुंठा का इजहार ही होगा। नामवर पर थूकना आसमान पर थूकने जैसा है। इस थुक्का फजीहत की कोशिश से उनका तो कुछ न बिगड़ेगा। छींटे आप पर ही पड़नेवाली हैं।
मेरा मानना है कि ब्लॉगिंग पर हुई इलाहाबाद संगोष्ठी में उद्घाटन भाषण के लिए नामवर सिंह से बेहतर कोई नाम है ही नहीं हिंदी के पास। यदि कोई नाम हो तो मैं पूछता हूँ कि नामवर सिंह न बोलते तो कौन बोलता ? आपक पास एक नाम हो तो बताने की कृपा करें। और यदि अशोक वाजपेयी को बोलने के लिए बुलाया जाता तो आप स्वागत करते। अगर केदारनाथ सिंह को बुलाया जाता तो आप खुश होते अगर कुँवर नारायाण बोलते तो आप हर्षित होते अगर विष्णु खरे बोलते तो आप तो राहत होती। नहीं साहब आप की अंतरात्मा दुखी है। आप को सिर्फ आपके ही बोलने पर सुख मिलता। चिपलूणकर जी अन्यथा आप को संतोष कहाँ। आप तो नामवर से भिड़ने के लिए उनसे सवाल करने के लिए कटिबद्ध है। गिरोह बद्ध हैं।
हम सब मानते हैं कि नामवर जी का साम्प्रदायिकता से विरोध है। उनका ही नहीं हर उस आदमी का साम्प्रदायिकता से विरोध होगा जो कि सचमुच में इंसान होगा। जो हैवान है हम चाहेंगे कि वह भी एकदिन गैर साम्प्रदायिक हो जाए, इंसान हो जाए। इस आधार पर इलाहाबाद में ही नहीं कहीं भी नामवर सिंह के साथ किसी भी आयोजन में साम्प्रदायिक लोगों के लिए, सेक्टेरियन सोच वालों के लिए कोई जगह नहीं है । इसके लिए भूलचूक की भी कोई गुंजायश हम नहीं चाहते। नामवर सिंह जी भी नहीं चाहते। रही बात हिंदी के उदार लोगों के साथ मंच साझा करने में तो उसके लिए किसी भी हिंदी सेवी को कोई गुरेज क्यों हो। इलाहाबाद सम्मेलन में भी नामवर सिंह को कोई दिक्कत नहीं थी। उनके साथ बोलने वाले तमाम लोग वामपंथी नहीं थे क्योंकि वह हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया थी हिंदी वामपंथ की दुनिया नहीं। लेकिन आप यह क्यों चाहते हैं कि नामवर जी जहाँ जाएँ अपनी दृष्टि छोड़ कर जाएँ। अपना नामवरी अंदाज और ठाठ तज कर जाएँ। यह तो एक तानाशाह रवैया दिखता है आप सब का।
आप को नामवर जी ब्लॉगिंग के योग्य क्यों दिखेंगे। क्योंकि आपकी दुनिया केवल ब्लॉग तक सिमटी है । लेकिन हिंदी तो केवल ब्लॉग की मोहताज नहीं है। और उसके किसी भी माध्यम पर आपसे अधिक नामवर का हक है। कल को कोई आश्चर्य नहीं अगर नामवर जी अपना बलॉग बना लें। तो आप क्या कहेंगे । शायद यह आपके लिए एक अलग चिंता का कारक होगा।
हिंदी के लोग मुझसे बेहतर जानते है कि हिंदी का मामला आते ही नामवर जी को पता नहीं क्या हो जाता है । जहाँ कहीं भी हिंदी के पक्ष में खड़े होने का मौका आता है वे चल पड़ते हैं । वे देसी आदमी हैं। देशज वेश-भूषा धोती-कुर्ता और पैरों में चप्पल पहने वे हिंदी की जय करते रहते हैं। जिन्हें पिछले कई दशकों से लोग पढ़ते सुनते देखते आ रहे हैं। 1986 से तो मैं खुद देख सुन रहा हूँ। अगर शास्त्री जेसी फिलिप साहित्योन्मुखी रहे होते तो 1976 से तो देख सुन रहे होते। जैसे 1966 से मैनेजर पाण्डे देख सुन रहे हैं और 1956 से मार्कण्डेय और केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण ।
मुँह में 120 नंबर की पत्ती के साथ पान दबाए वह इस महादेश के इस छोर से उस छोर से पिछले 60 सालों से घूम रहे हैं। वे केवल राजधानी दिल्ली की चकाचौंध में घिर कर नहीं बैठे हैं बल्कि आप उन्हें गाजीपुर बलिया में बोलते पा सकते हैं आप उन्हें इलाहाबाद भोपाल में हाथ उठाकर अपनी बात रखते देख सकते हैं। वे हिंदी से बने हैं और हिंदी के लिए मिटने को तैयार खड़े हैं। 81-82 साल की उमर में भी वे हिंदी के नाम पर कहीं भी पहुँच जाते हैं। लोग उसके पिछले भाषण से ताजे भाषण का मिलान करने में उलझे होते हैं और वे हिंदी के वर्तमान को हिंदी के भविष्य और भूत दोनो को मिला रहा होते हैं। वे नूतनता का इस कदर आदर करते हैं कि ब्लॉगिग जैसी एक बन रही विधा को एक बार सिरे से खारिज कर देने के बाद भी उस पर पुनर्विचार के लिए खम ठोंक कर खड़ा हो जाते हैं । वे ब्लॉगिंग को खतरे उठा कर भी लोकतंत्र का पाँचवा खंभा तक घोषित कर देते हैं।
अब अपने नामवर जी कोई कपड़ा या साबुन कि बट्टी तो हैं नहीं कि चिपलूणकर जैसे लोगों को कह दें कि बगल के स्टोर से खरीद कर परख लें। जाँच लें । नहीं भाई यह नामवर सिंह कोई सस्ता और टिकाऊ टाइप सामान तो हैं नहीं । यह तो हिंदी को अपने विशाल चौड़े कंधे पर उठाए फिर रहा एक साधक हैं जो सदा से तन कर खड़ा है। बज्रासन में डटा है। यह उनकी सहजता है कि वे सब जगह जाते रहते हैं। उनके लिए सब अपने हैं। आम से खास तक सबको वे अपना समझते हैं। इसका मतलब नहीं कि आप सब लपक लो और उन्हें उठा कर घूरे पर रख दें। नहीं आप जैसे या कैसे भी लोग नामवर सिंह को कहीं भी नहीं रख सकते । हम नामवर के लोग आपको ऐसा हरगिज न करने देंगे।
नामवर सिंह का हिंदी के लिए किया गया कार्य इतना है कि उन्हें किसी भी मंच पर जाने और अपनी बात कहने का स्वाभाविक अधिकार मिल जाता है। उनके चौथाई योगदान वाले कई-कई दफा राज्य सभा घूम चुके हैं। वे कुलाधिपति बाद में है हिंदी अधिपति पहले हैं। हिंदी का एक ब्लॉगर होने के नाते आप सब को खुश होना चाहिए कि हिंदी का एक शिखर पुरुष आपके इस सात-नौ साल के ब्लॉग शिशु को अपना आशीष देने आया था। आप आज नहीं कल इस बात पर गर्व करेंगे कि नामवर के इस ब्लॉग गोष्ठी में शामिल होने भर से ब्लॉग की महिमा बढ़ी है। कम होने का तो सवाल ही नहीं।
नामवर सिंह के बारे में कम में कहूँगा तो आप समझेंगे नहीं और अधिक कहूँगा तो बात किताब की शक्ल में दिखेगी। लेकिन सोचनेवाली बात है कि जिस आलोचक नें 15 से अधिक किताबें लिखी हों और सौ से अधिक किताबें संपादित की हों। जिसके आलोचना सिद्धान्त आज हिंदी साहित्य को दिशा देते हैं उसके बारे में एक पोस्ट लिख कर
समझाया भी नहीं जा सकता । न एक पोस्ट ...हाँ यदि आपको लगता है कि आप नामवर जी को जाने और तो उनकी ये कुछ किताबें हैं जिन्हें नामवर के समर्थक और विरोधी सब को पढ़नी चाहिए। बकलम खुद, कविता के नए प्रतिमान, वाद विवाद संवाद, छायावाद, साहित्य की प्रवृत्तियाँ, दूसरी परम्परा की खोज, हिंदी के विकास में अपभ्रंस का योग, कहानी नई कहानी, पृथ्वीराज रासो की भूमिका, कहना न होगा, आलोचक के मुख से, इतिहास और आलोचना जैसी कितनी पुस्तकें हैं जो देश के किसी भी पुस्तकालय में आसानी से मिल जाएँगी। इस उम्र में भी वे लगातार बोल कर व्याख्यान देकर वाचिक परम्परा के उन्नायक के रूप में हिंदी को समृद्ध करते जा रहे हैं। यदि नामवर विरोधी लोग उनकी कोई भी किताब पढ़ कर बात करेंगे तो शायद यह कहने की हिमाकत न करेंगे कि नामवर जी ने ब्लॉग संगोष्ठी का उद्घाटन क्यों किया। यह बनारसी आचार्य मुझे नहीं लगता कि भाषण का भूखा है। हाँ यह जरूर है कि वह चाहता है कि हिंदी की उन्नति उस हद तक हो और इतनी हो जहाँ से कोई यह न कह सके कि यह कौन सी गरीब भाषा है।
आप को लज्जा आती होगी आपको हीनता का बोध होता होगा लेकिन हमें गर्व है कि हम उस नामवर को फिर-फिर पढ़ गुन और सुन पाते हैं जो अपनी मेधा से हिंदी के हित में लगातार लगा है। हम उसे प्रणाम करते हैं और कामना करते हैं कि वह ब्लॉग ही नहीं आगे के किसी और माध्यम पर बोलने के लिए हमारे बीच उपस्थित रहें।
तो भाई नामवर से असहमत हो सकते है लेकिन रद्दी की टोकरी में डाल सकते। आप उनके समर्थक हो सकते हैं विरोधी हो सकते हैं लेकिन उन्हें निरस्त नहीं कर सकते।
Wednesday, October 28, 2009
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22 comments:
आपने सही कि कि नामवर जी हिन्दी साहित्य जगत के शीर्ष हैं-- बेशक़। उनसे तमाम असहमतियां हो सकती हैं, नाराज़गियां भी लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कि हिन्दी के जीवित लेखकों में उनसे बडा कोई नहीं।
असल में ब्लाग जगत में सक्रिय ख़ालिसों को पता नहीं क्यूं प्रिण्ट का डर हमेशा सताता है…जबकि अख़बारों में अपने ब्लाग का ज़िक्र इतना आनन्दित करता है कि तुरत स्कैनर की ओर भागते हैं। फिर भी जिस जगह मौका मिलता है प्रिण्ट की पत्रिकाओं, उनके संपादकों उनके लेखकों को गरियाने का कोई मौका नहीं छोडते। कारण शायद कुण्ठा है या एक हीनभावना या फिर एक भयावह असुरक्षा बोध। साथ ही दक्षिणपंथ और मध्यवर्गीय अवसरवाद से संचालित (जो ज़ाहिर तौर पर खाये-अघाये लोगों का स्वाभाविक दर्शन है) अपनी विचारधारा के चलते चिपलूणकर जैसे टुटपुंजियों के लिये नामवर जी का नाम ही आतंक पैदा करने के लिये काफ़ी है। उन्हें शायद मोहन भागवत चाहिये थे उद्घाट्न के लिये।
जो ब्लाग पत्रिकायें निकल रही हैं क्या उन्होंने उन सब दुर्गुणों से मुक्ति पाली है? मेरा अनुभव इसके विपरीत है।
हमे यह समझना होगा कि ब्लाग कोई हौआ नहीं हैं। यह भी लिखित शब्दों की प्रस्तुति का माध्यम है। कोई चाहे तो इसे सार्वजनिक डायरी जैसा कुछ कह सकता है। अब यह तो नहीं होता ना कि कागज़ बनने से पहले के साहित्य को इस आधार पर ख़ारिज़ कर दिया जाये कि वह ताडपत्र पर लिखा गया है। तो ब्लाग की दुनिया को इतना सीमित कैसे किया जा रहा है? डिनर पार्टियों की तर्ज़ पर ब्लागर सम्मेलन करने वाले लोग गंभीर गोष्ठियों को ख़ारिज़ करेंगे ही। वो क्यों चाहेंगे कि कोई छह पूछे की भाई इस माध्यम के सामाजिक सरोकार नहीं होना चाहिये क्या?
नामवर के लोग होने का मतलब है उस परम्परा के लोग होना जो साहित्य के सामाजिक सरोकार को स्वीकार करते हैं…और इसलिये सारे विरोध के बावज़ूद जब बात आर-पार की होगी तो हम भी उन्हीं लोगों में शामिल हैं।
कोई भी चीज जब सामने आती है तो सार्वजानिक हो जाती है .व्यक्तिगत नहीं रह जाती फिर उस पर पाठको का भी हक हो जाता है ..प्रतिक्रियाये करने का हक भी होता है ...जाहिर है हर पाठक ब्लोगर नहीं होता ...ओर हर पढने वाला टिपण्णी भी नहीं करता ..जैसे हर पत्रिका में हम ख़त नहीं भेजते ...नामवर जी विद्वान आदमी है .ओर बहुतेरो से कही ज्यादा ... ऐसा नहीं के उनसे सिर्फ इसी बिना पर सहमत हुआ जाए .....पर ऐसा भी नहीं के उनसे सिर्फ इसलिए असहमत हुआ जाए चूंकि वे नामवर सिंह है ......असहमति ओर विचारो में भेद एक मनुष्यगत स्वभाव है ....पर अक्सर हम वक्ता की बात से ज्यादा वक्ता पर केन्द्रित रहते है ....यदि यही बात किसी ओर ने कही होती ...?
..मै तो उनसे पूरी तरह सहमत हूँ के ब्लॉग पर भी अनुशासन आना चाहिए .बिकुल किसी दूसरे माध्यम की तरह .क्यों नहीं .क्या देश हित के खिलाफ चलने वाले ब्लोगों के प्रति हम सब की एक आम सहमति नहीं बनी थी की उन्हें बेन किया जाए ....
मेरी राय में किसी भी गोष्टी या समूह के मिलने में हमें कुछ सकारात्मक पक्ष ढूंढने चाहिए .....
डा० अनुराग के बात मार्के की है.."आप किसी से सिर्फ़ इसलिए असहमत नहीं हो सकते कि वे नामवर सिंह हैं.."
मुझे लगता है कि हिन्दीभाषी लोग तिल का ताड़ बनाने की अजब बीमारी से ग्रस्त हैं.. पिछले दो-तीन महीने में तीन क़िस्से हो गए.. पहले उदय प्रकाश और आदित्यनाथ विवाद, फिर 'प्रमोद वर्मा स्मृति..' को लेकर झंझट और अब ये.. पहले मुझे लगा कि मेरे वामपंथी मित्र ही कुछ नैतिकता के ऊँचे घोड़े पर सवार हैं..(वैसे मोदी और उनके अन्य साथी हैं इसी लायक कि दुरदुराये जायं).. मगर अब देखता हूँ कि किसिम किसिम के लोग खड़े हो हो के हाजिरी दे रहे हैं..'हमें भी किड़वा काट के बीमारी दे गया है'..
सब लोग मिल कर छूत-अछूत का खेल खेल रहे हैं.."ऊ इहाँ कईसे बईठा.. तू ओ से कईसे मिला..ऊ साहित्य वाला अपने खेल में हम का नाहीं खेलाइस.. अब हम बिलाग-बिलाग खेल रहे हैं.. ऊ का धंसे ना देब.."
क्या किजियेगा.. लात खाया समाज काँय-कांय तो करबे करेगा..
ह्हुफ़्फ़्फ़्फ़, इतने लम्बे लेख में मेरा नाम 7-8 बार…? वाह क्या बात है… और तो और पहली ही टिप्प्णी में भी एक बार पाण्डे जी के श्रीमुख से भी… लाटरी लग गई क्या मेरी? मैंने तो आपका नाम एक बार भी नहीं लिया था, फ़िर भी ऐसी भारी खुन्नस? ठण्डा पानी पीजिये थोड़ा… ई-स्वामी जी आते ही होंगे जवाब देने…
@ अशोक पाण्डे जी - यह टुटपुंजिया लेखक लिखता रहेगा गूगल की मेहरबानी से… क्या करें गूगल पर वामपंथी विचारकों (जो विभिन्न विश्वविद्यालयों में कब्जा जमाये बैठे हैं) का जोर नहीं चल रहा अभी… :)
भैया, हमें तो प्रिण्ट में जिक्र होने का कोई लोभ मोह नहीं। हमें तो साहित्य में भी मूड़ घुसाने का राग नहीं।
हम लिखते भी नहीं। पोस्टें प्रोड्यूस करते हैं - जैसे तकली से कता सूत या कोंहार के दिये!
लिहाजा हमें कोई कुण्ठा नहीं। पर ब्लॉग को साहित्य का एनेक्सी मानने वाले जब ठकुराई करते हैं, तब नहीं जमता।
साहित्य की इज्जत होनी चाहिये और व्यक्ति की ब्लॉग रचनाधर्मिता को उसका सब-सेट मानने की हठधर्मी नहीं होनी चाहिये! ब्लॉग की इज्जत होनी चाहिये।
बोधि भाई, नहीं जानता था कि आप आवेश में ही अपनी सर्वोत्तम रचनाएँ लिखते हैं। इस आलेख से अक्षरश सहमत हूँ। इस से आगे कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है।
ब्लाग क्या अपने आप में कहानी-कविता-लेख-आलोचना आदि की तरह कोई स्वातंत्र विधा है क्या? अगर नहीं तो इन सबके व्यापक परिवार का हिस्सा या सेट का सबसेट क्यों नहीं है? यह स्वीकार करने में इतनी परेशानी क्यों?
जब ब्लाग नहीं था तो लिख कर विरोध/समर्थन/रचनात्मक अवदान करने की चाह रखने वालों को अपने प्रोडक्शन का क्या करना चाहिये था? और ये पोस्ट प्रोड्यूसर लोगों ने लेखन कला और प्रतिभा क्या मुद्रित पन्नो को पढकर और सादे कागज़ पर लिख कर ही अर्जित नहीं की है? और अब जब स्वयं प्रकाशित होने और संपादक से संपादित होने के बीच चुनाव के लिये सब स्वतंत्र हैं।
चिपलूणकर साहब ब्लाग जगत के टुटपूंजिया, साम्प्रदायिक लेखकों के प्रतिनिधि हैं तो उनका नाम आयेगा ना। आपका नाम कितनी बार लिया था नामवर जी ने जो पिल पडे उन पर? हां रहा सवाल माध्यम पर अधिकार जमाने का तो ये चाहत ही आप सदृश लोगों की मानसिकता तय कर देती हैं।
और हां आप गूगल की किरपा से ही लिखते रहिये। पेडों की जान बहुत कीमती है।
आप चाहें तो नामवर को ठाकुरद्वारे में ले जाके बैठा दें किसने रोका है. लेकिन हिंदी को उनके जिस योगदान का बखान करते आपकी उंगलियाँ नहीं थकीं जरा बताएं कि हिंदी जानने वाले कितने लोग उससे परिचित हैं और हिंदी को साधारण जनमानस तक पहुँचाने में उसका क्या उपयोग हो पाया. सच बात तो यह है कि वाम गिरोहबंदी ने हिंदी को आज इस हालत में पहुंचा दिया है कि हिंदी साहित्य आम पाठक से दूर हो गया है और आम पाठक भी हिंदी साहित्य से दूर हो गया है. और इस गिरोहबंदी के अगुआ रहे हैं यही नामवर. अपनी विचारधारा और अपने लोगों को सेट करने में माहिर इस गिरोह का ही कमाल है कि आज आप विरोध के स्वर को दबाने और नजरों में सुर्खरू होने के लिए इतने उतावले हैं.
ब्लागिंग किसी नामवर का मोहताज नहीं और न ही इसे उनके अनुमोदन कि आवश्यकता है. यहाँ भेड़ -बकरियां नहीं चर रही कि कोई किसी भी तरफ हकाल देगा. राज्यसत्ता के हस्तक्षेप और नियंत्रण का क्या अर्थ है उससे भी लोग भली-भांति परिचित हैं. आलोचना की आड़ में बहुत दिनों तक लोगों कि धोतियाँ खींचते रहे और अब जब लोगों के हाथ आपके तरफ बढ़ने लगे तो राज्यसत्ता की दुहाई देने लगे.
वाम गिरोह सदा से ही "बौद्धिक ब्राह्मणवाद" से पीड़ित रहा है. उसे अपनी विचारधारा, अपने लोग और अपनी सत्ता से इतर कुछ भी देखना सुनना - गंवारा नहीं. अपने से अलग जो कुछ भी है वह तुच्छ, हेय और "दुरदुराये" जाने योग्य है. यह "विलासिता" ब्लाग में नहीं चलने वाली क्योंकि यहाँ न तो लोगों को छपास लगी है और ना ही अलमारियों में सजने की इच्छा. चाहे जो हथकंडे अपना लें लेकिन "भिन्न विचारों" को न तो आप पनपने से रोक पाएंगे और न ही उन्हें मुखरित होने से.
बोधि भाई अच्छा मुद्दा उठाया आपने. नामवर जी पर क्या कहूँ - उनकी कुछ समकालीन गतिविधियों और फ़ैसलों से असहमतियों के बावजूद वे मेरे लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने छात्र जीवन में थे. सीधा संपर्क ना रहने के बावजूद वे मेरे साहित्य गुरु हैं. पहले अंकुर मिश्र सम्मान समारोह में उनसे मिले स्नेह को भुला पाना असंभव है. नामवर जी बीसवीं सदी की महत्वपूर्ण आलोचकत्रयी(रामचंद्र शुक्ल, हज़ारिप्रसादद्विवेदी और नामवर जी) में हैं और उनके सोच-विचार का मेरे कवि पर भी प्रभाव है और मेरे अध्यापक पर भी. इस लेख और इस तेवर के लिए आपको बधाई.
सौ फीसद सहमत हूं बोधिभाई।
बेहतरीन आलेख। शुक्रिया।
"...आप को नामवर जी ब्लॉगिंग के योग्य क्यों दिखेंगे। क्योंकि आपकी दुनिया केवल ब्लॉग तक सिमटी है । लेकिन हिंदी तो केवल ब्लॉग की मोहताज नहीं है। और उसके किसी भी माध्यम पर आपसे अधिक नामवर का हक है।..."
सच कहा आपने. 'हिन्दी' है, तो 'हिन्दी ब्लॉगिंग-श्लागिंग चिट्ठाकारी-शिट्टाकारी' है. मगर क्या करें, लोग-बाग अपने कम्प्यूटर टेबल पर बैठकर कम्प्यूटर में मात्र हिन्दी में टाइपिंग कर लेने की योग्यता पा लेने के बाद - अपने बाप-दादाओं को याद करते हुए - टेबल राइटिंग करते हुए , नामवरों को गरियाने लगते हैं!
@ पाण्डेय जी - वकालत के लिये बधाई, नामवर जैसे महान लोगों का नाम तो मैं ले सकता हूं, लेकिन मुझ जैसे अकिंचन व्यक्ति का नाम बोधि जी ने इतनी बार ले लिया इसलिये मुझे आश्चर्य हुआ…
वैसे नामवर जी के बारे में ई-स्वामी जी ने मुझसे कहीं बेहतर लिखा है… इधर http://hindini.com/eswami/archives/286
ज़रा देखें…
वाकई कागज़ कीमती है, लेकिन दुर्भाग्य से देश में बहुतेरे कलमघिस्सुओं को यह बात समझ में ही नहीं आती… क्या करें…
@ द्विवेदी जी - आपकी पसन्द लाजवाब है… :)
बोधिसत्व जी, अपने आवेश में सच कहा है,जाहिर है बल देने के चक्कर में कुछ ज्यादा हो गया,चलता है। गुरूजनों की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। लेकिन ब्लाग पर लगाम की बात से संभवत: दुनिया का कोई भी बड़ा लेखक सहमत नहीं है। मैं नामवर के कद वाले दुनिया के लेखकों के नाम गिनाना नहीं चाहता। आप जानते हैं।आप समझदार आदमी हैं,हम आपके पाठक हैं। लेकिन नामवरजी का ब्लाग के बारे में जो सुझाव है वह बेमानी है। क्योंकि सुझावों, हिदायतों,निषेधों,कानूनों को धता बताते हुए ब्लाग नामक नेट विधा का जन्म हुआ है। यह चालीस साल की है। यह मुक्त लेखन का अब तक का चरमोत्कर्ष है। इसकी साहित्य अथवा प्रेस अथवा अन्य मीडिया से तुलना नहीं की जा सकती। यह नया विधा रूप है और ऐसे मीडियम का विधा रूप है जो सारे माध्यमों का सरताज है,इसे इंटरनेट कहते हैं। यहां साहित्य के फार्मूले नहीं चलते। नामवरजी की राय से असहमत होना बुरी बात नहीं है। नामवरजी स्वयं असहमतियों को बढावा देते हैं। असहमति के प्रत्युत्तर में भूरी-भूरी प्रशंसा अच्छी बात है गुरूजनों की प्रशंसा सुनने में हमें अच्छी लगती है। लेकिन गुरूदेव को अच्छी नहीं लगती।
नामवर सिंह होने का अर्थ है जिस मंच पर वो आसीन हो उसे सम्मान मिल जाता है। जो मंच पर नहीं हैं, वे गरियाते रहेंगे ही!
एक जमाना था जब सिमिंट के कट्टों के परमिट कटे करै थे ! फोन लगवाने , गैस के सिलिनर
लेने की पर्ची कटे करीं एम. पी. कोटे सें ! रचना छपवावे को संपादक की लल्लो-चप्पो
और अपनी किताब छपने पे भी आलोचक की किरपा दृष्टी चहिये होय करे थी बाबू साहेब !
अब बखत बदल गया है , ट्वेंटी -ट्वेंटी किरकिट खेला जा रहा है !. म्यूजियम की चीजों को म्यूजियम में देख के जी खुस होता है
बाऊजी , खोंखियावो मति ......हाँ !
बोधि भाई आपकी बात से सहमत हूँ....वैसे मुद्दे की बात कि आपने धैर्य बनाए रखा यही क्या कम है.
बहुत अच्छा लिखा है आपने .
माना कि ब्लॉगिंग स्वतंत्र विधा है पर बहु-अनुशासनिक अध्ययन के जमाने में ब्लॉगिंग को महज तकनीकी जानने वालों का एकांगी माध्यम नहीं माना जा सकता . तकनीकी को मानविकी और साहित्य से पोषक रस पाना ही होगा .
नामवर जी से असहमत हुआ जा सकता है,पर उनके बारे में जैसा अल्लम-गल्लम नेट पर बैठे कुछ साक्षर कर रहे हैं वह न केवल निहायत बचकाना है,बल्कि वितृष्णा पैदा करता है . हिंदी समाज अपनी साहित्य-संबंधी समझ को विकसित करने लिये जिन आलोचकों का ऋणी है,रामचंद्र शुक्ल,हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, रामबिलास शर्मा और नामवर सिंह उनमें सर्वप्रमुख हैं .
भारतेन्दु ने हिंदी समाज के दो प्रमुख फल गिनाए हैं -- फूट और बैर , फूट की बेल और बेर के वृक्ष ब्लॉग जगत में भी फल-फूल देते दिख रहे हैं .
मित्र,
मै बारह साल से भारत के बाहर बसा हुआ हूं. अन्य अनिवासियों की तरह मेरी भी हिन्दी से और हिन्दवासियों से जुडाव एक भावनात्मक जरूरत ज्यादा थी. नाम/सेवा/छपास की पीडा आदी से जुडी जरूरत कतई नहीं!
इसीलिये सत्य कहते, किसी के नाम का कद और उस कद की छाया का भय नही रहा मुझे, लेकिन बंद दिमाग की दिवारों पर अपना सर फ़ोड लूं इतना दीवाना भी नहीं हूं.
मै हिन्दी चिट्ठाकारी से राम-राम करने का मन बना चुका हूं बस कुछ बचे काम हैं वो हो लें. अब आप शान्ती पाईये.
रही चिपलूनकर और मेरी विचारधारा को एक जमात में बिठाने की बात - वो संभव नही - वे एक हिन्दूत्ववादी भारतवासी हैं और मै मूलत: अंग्रेजी में अधिक सोचने वाला एक वसुधैव कुटुंबकम जपता टेक्नोलोजी प्रेमी.
बाकि आपजैसों को सिखाने के लिये रवि जैसे टेक्नोक्रेट हैं ही ना! आप सुरक्षित हाथों मे हैं अब चलता हूं .. पता नही ये संदेश कितनी जगह कट पेस्ट करना पडे! :)
हिंदी ब्लागिंग और खास तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में ऐसे कथित विद्वानों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, जो अज्ञानता को अलंकार की तरह धारण करके घूम रहे हैं. उन्हें अपनी मूर्खता के भव्य प्रदर्शन से इतना भयंकर व्यामोह है कि नारद मोह भी हल्का लगने लगता है.
बोधि भाई, बहुत सोचा किया...बहुत देखा किया...बहुत सुना किया...मगर बकौल फिराक, दुविधा पैदा कर दे दिलों में ईमानों को दे टकराने, बात वो कर ऐ इश्क कि कायल सब हों कोई न माने...सिर्फ नामवर दिखते हैं. जरा ईमानदारी से बताएं पूरे हिंदी जगत में आप फिलवक्त किसको नामवर के समकक्ष रख सकते हैं? दो-चार ब्लागिए के आशीर्वचनों(?) से नामवर की महत्ता और मेधा के बारे में कितना जाना जा सकता है? हकीकत ये है कि नामवर के कट्टर दुश्मन भी नामवर की प्रतिभा और अध्ययन से भीतर ही भीतर भयभीत रहते हैं. मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूं कि भले ही दो-चार कक्षाओं में, पर उनसे पढ़ा है. अनेक बार, अनेक शहरों में अनेक मुद्दों पर बोलते हुए सुना है. संस्कृत, इंग्लिश, उर्दू, हिंदी, अपभ्रंश-अवहट्ट के वे आधिकारिक विद्वान तो हैं ही, तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य में चल रही गतिविधियों से वे हमेशा अपडेट
रहते हैं. गुरुदेव को सादर नमन.
चाहे कितनी भी सहमतियाँ/असहमतियाँ हों, नामवर होने का अर्थ केवल नामवर होना है. और किसी भी टिप्प्णी से नामवर का मह्त्व कम नहीं हो जाता.
उन दिनो यूही एक मित्र से मै इस संगोष्ठी की चर्चा कर रहा था । मोहल्ले के एक बुजुर्ग सज्जन जो न नामवर जी को जानते है न ब्लॉग के बारे मे उन्हे कुछ पता है न ही कम्प्यूटर की तकनीक के बारे मे जानते है । साहित्य मे उन्हे मानस के अलावा कुछ नही पता ,हमारी बात सुन रहे थे । अचानक हमारी बात सुनकर उन्होने कहा " अरे नामवर जी उद्घाटन करने आ रहे हैं मतलब ब्लॉगिंग कोई बहुत बड़ी चीज है !!! "
बोधिसत्व जी,
आपके एक एक अक्षर से सहमत।
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