Saturday, July 21, 2007

मेरे गुरु नागार्जुन बाबा

बाबा मेरे कनफुकवा गुरु


नागार्जुन बाबा पर हिंदी में बहुत सारी कविताएं लिखी गई हैं। वे शमशेर जी के अली बाबा हैं तो किसी के लिए फक्कड़ । मैंने भी बाबा पर कभी एक कविता लिखी । वह कविता परमानन्द जी जैसे आलोचकों को बहुत पसंद आई । कई आलोचकों ने उसी कविता के आधार पर नागार्जुन जी को समझने की कोशिश की तो मुझे लगा कि काश यह कविता मैं बाबा को सुना पाता । 1990 या 91 की बात होगी बाबा का इलाहाबाद आना हुआ। साहित्य सम्मेलन के किसी समारोह में । मौका अच्छा पा कर जलेस की इलाहाबाद इकाई ने एक गोष्ठी रखी शेखर जोशी जी के लूकर गंज वाले घर में । मैंने हिलते-कांपते हुए अपनी कविता बाबा के सामने पढ़ी। बाबा ने ऐसे सुना जैसे सुना ही न हो । मैं एक दम बुझ गया। पर मन की एक साध तो पूरी हुई । उसके बाद उसी दिन बाबा को मेरे गुरु दूध नाथ जी के यहाँ भोजन पर जाना था । उन्हे वहाँ पहुचाने का जिम्मा हम मित्रों ने अपने ऊपर ले लिया । उस समय मैं और आजकल अयोध्या वासी कवि अनिल सिंह दिन में 20-20 घंटे साथ रहते थे। तो हाथ रिक्शे पर मैं दाहिने और अनिल बाँए और हम दोनों के बीच में दुबले- पतले नागार्जुन बाबा । हम बाबा का साथ पाकर पगला से गए थे । इलाहाबाद की सड़कों पर वे दो दिन दीवानगी भरे थे ।
बाबा से न जाने कितनी छोटी-बड़ी बातें हुईं । समोसे से लेकर चटनी तक की चर्चा रही । अचानक पानी बरसने लगा जो रुक रुक कर दो तीन दिन बरसता ही रहा । वहीं बाबा ने बादलों को देख कर कहा कि मेघों को प्रमेह हो गया है। फिर उन्होने दारागंज की किसी पनवाड़िन का हाल-चाल जानने की उत्सुकता जताई । जब नागार्जुन जी इलाहाबाद में रहते थे दारागंज में ही डेरा था उनका ।
पनवाड़िन के किराना की दुकान से बाबा की रसोंई का तार जुड़ा था ।
उस यात्रा में बाबा चंद्रलोक के सामने होटल पूर्णिमा में ठहरे थे । हमारे एक और मित्र धीरेंद्र तिवारी ने बाबा के पूर्णिमा होटल में रुकने को ही मुद्दा बना लिया था। उसने बाबा के उपर व्यंग करते हुए एक कविता भी लिख मारी थी और जिद किए था कि वह अपनी कविता बाबा को सुनाएगा। कविता की पहली पंक्ति थी-


सारा देश अमावस में है
कवि तुम बसे पूर्णिमा में ।


धीरेंद्र को इस बात की भी शिकायत भी कि बाबा को एसी में सफर नहीं करना चाहिए।
मेरी हिम्मत नहीं हुई कि बाबा से जान लूं कि उन्हे मेरी कविता कैसी लगी। दूधनाथ जी के यहाँ अचानक बाबा ने कहा आओ मैं तुम्हें गुरु मंत्र देता हूँ । फिर वे मेरे कान में कुछ बोले जो मैं आप सब को नहीं बता सकता । कहते हैं कि गुरुमंत्र को जग जाहिर नहीं किया जाता। जाहिर कर देने से गुरु द्वारा दी गई शक्ति खतम हो जाती है। यही बता हूँ कि मेरे काव्य गुरु दो रहे हैं एक पूज्य उपेंद्र नाथ अश्क जी और दूसरे आदरणीय दूधनाथ जी ।


बाबा के बारे में बहुत सारी बातें लिखी जानी बाकी है । उनके जैसे व्यक्ति पर तो पोथियों के पन्ने भी कम पड़ेंगे। वे कैसे बच्चों की तरह खुश रहते थे, कैसे अपनी घुच्ची निगाहों से दुनिया को देखते थे । कैसे एक दम बुढ़ापे में भी जीवन के प्रति एक मिठास भरी थी। वे सच में हम सब के बाबा थे । हिंदी कविता के आखिरी बाबा ।


क्या मैं जीवन भर यह भूल पाऊंगा कि मैं एक दिन नहीं कई दिन बाबा के साथ भटकता रहा था। क्या बाबा को छू पाना, उनके गले लगना कोई भी भुला सकता है। बाबा से मिलना इस धरती के सबसे महान इंसान से मिलना था । क्या बाबा ने मेरे कान जो मुझसे कहा वह कभी मैं भुला पाऊंगा।
यहीं यह बताना अच्छा लगेगा कि बाबा ने मेरी कविता की तारीफ भी कि वह भी इस लिए कि मैंने उनकी नाक की तुलना चीलम से की थी । वे बोले थे चीलम सी नाक और फिर अपनी नाक को एक दो बार छूकर भी देखा ।

उसके बाद हम बाबा से कभी नहीं मिल पाए। हम बच्चे थे। बाबा के साथ का महत्व अब कुछ अधिक समझ में आ रहा है। आप भी बाबा के साथ हमें देखें और बाबा पर लिखी मेरी वह कविता पढ़ें। साथ में हैं सुधीर सिंह ।

घुमंता-फिरंता

बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
कब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में लाई-नून चबाके।

तुम्हारी यह चीलम सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुई चमड़ी के नीचे
घुमड़े खूब तरौनी गाथा।

तुम हो हमारे हितू, बुजुरुक
सच्चे मेंठ
घुमंता-फिरंता उजबक्–चतुर
मानुष ठेंठ।

मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।

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