Saturday, October 6, 2007

स्वादमय विवाहित जीवन सम्भव नहीं-दिनकर


दिनकर की जन्म शती

तेईस सितंबर 2007 से राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्म शती शुरू है। साहित्य के गंभीर हलके में लोग स्वाभाविक सनातनी चुप्पी साधे हैं तो क्या दिनकर के अपने लोगों ने उनके नाम पर एक न्यास तो बना रखा है । जहाँ मान्य साहित्यिकों के पैर नहीं पड़े हैं नहीं तो वहाँ भी बंटाधार ही होता। उसी दिनकर न्यास ने समर शेष है नाम से एक अनमोल अंक निकाला है । जिसमें दिनकर पर अत्यंत रुचिकर सामग्री का संकलन संपादन किया है युवा कवि प्रांजल धर ने। प्रांजल ने यह साबित किया है कि संपादन के लिए बूढ़ा होना कतई जरूरी नहीं है । पत्रिका के लिए आप दिनकर न्यास दिल्ली में प्रांजल को फोन कर सकते हैं...उनका नंबर है...011-27854262...

समर शेष है पढ़ने और संजोने लायक है। यहाँ दिनकर को समझने की एक नई पहल है। सौ के आसपास की संख्या में आलेख और तमाम दुर्लभ छवियों से सुसज्जित यह स्मारिका सचमुच दिनकर जी की स्मृति को दीर्घ काल तक बनाए रखेगी।

स्मारिका में दिनकर जी की दुर्लभ डायरी के अंश तो हमें एक दम से चकित कर देते है....खास कर स्त्रियों के प्यार और आजादी पर उनके विचार तो एक अलग दिनकर से सामना कराते हैं....भंडारा महाराष्ट्र की डॉ. मीनाक्षी जोशी द्वारा प्रस्तुत डायरी का कुछ अंश आप भी पढ़ें.....

5 मार्च 1963(दिल्ली)
बहुत सी नारियाँ इस भ्रम में रहती हैं कि वे प्यार कर रही हैं। वास्तव में वे प्रेम किए जाने के कारण आनन्द से भरी होती हैं....चूंकि वे इंकार नहीं कर सकतीं, इसलिए यह समझ लेती हैं कि वह प्रेम कर रही हैं....। असल में यह रिझाने का शौक है, हल्का व्यभिचार है। प्रेम का पहला चमत्कार व्यभिचार को खत्म करने में है, पार्टनर के बीतर सच्चा प्रेम जगाने में है...।

8 मार्च 1963(दिल्ली)

ऐसी औरते कम हैं जिन्होंने प्रेम केवल एक ही बार किया हो। जब प्रेम मरता है तो वह बची हुई चीज ग्लानि होती है, पश्चाताप होता है। प्रेम आग है, जलने के लिए उसे हवा चाहिए। आशा और भय के समाप्त होते ही प्रेम समाप्त हो जाता है । सुखमय विवाहित जीवन सम्भव है। स्वादमय विवाहित जीवन सम्भव नहीं....

26 दिसंबर,1971(पटना)
नारी स्वाधीनता का आंदोलन जब आरंभ हुआ, तब मर्द आंदोलन करनेवाली नारियों को सेक्सलेस कहते थे। जब आंदोलन आगे बढ़ा, दफ्तर के शेर घर में चूहे बन गये। औरतों ने झगड़ा शुरू कर दिया, मर्द लड़े नहीं मैदान छोड़ कर भाग गए। नारी आंदोल न के आरंभ में कहा जाता था कि औरतो को क्षेत्र और अधिकार नहीं है। क्षेत्र और अधिकार मिल जाए तो वे मर्दों की बराबरी कर सकती हैं। मगर वे मर्दों से श्रेष्ठ क्यों नहीं रहे....बराबरी पर क्यों उतरें.....

मैं एक अच्छे काम के लिए प्रांजल धर और दिनकर न्यास को बधाई देता हूँ...और
आप से निवेदन है कि दिनकर की जन्म शती पर कुछ सोचें कुछ लिखें और यह जो शुद्ध साहित्य का तांडव चल रहा है इसके समांतर कुछ रचे।

9 comments:

ALOK PURANIK said...

मसला स्वादमय विवाहित जीवन का नहीं है, सवाल यह है कि स्वादमय या विवाहित जीवन।
वैसे हम तो सुखी विवाहित जीवन स्कूल के हैं जी, स्वाद की तृष्णा मरवा कर छोड़ती है।

shashi said...

बोधि भाई दिनकर को लेकर मैं कभी जुनून की हद तक दीवाना रहा हूँ. बचपन से मन मैं उनकी छवि किसी दिव्य पुरुष जैसी रही है. हिंदी आलोचना मे उन्हे जिस तरह नज़रअंदाज़ किया गया वह बौधिक अपराध था. अब नामवर जी ने भी माना कि अपने समय के सूर्य थे वे. पिछले दिनो उन पर डेलही मे जो आयोजन हुआ और उसमे जीतने दिनकर प्रेमी जुटे वह आश्चर्य जनक था,
शायद ही किसी हिंदी कवि को इतना सम्मान मिला हो. उस दिन सहारा मे मैने एक पूरा पेज निकाला था और आपको आश्चर्य होगा कि सिर्फ़ उसी पेज के लिए उक्त कार्यक्रम मे अख़बार कि 2000 प्रतिओ कि एडवांस बुकिंग हो गई थी. मेरे लिए यह अनोखा अनुभव रहा.
शशि भूषण द्विवेदी

बोधिसत्व said...

आलोक भाई
सुखी और स्वाद में कोई कास फर्क नहीं है कम से कम सुखी तो हैं....
शशि जी क्या आप सहारा का वह पन्ना भेंज सकते हैं...डाक से मेरे पते पर ।

Shiv said...

बोधि भाई,

बहुत-बहुत धन्यवाद इस पोस्ट के लिए.साहित्य के 'गम्भीर' हलकों में चुप्पी है तो क्या हुआ. बाकी के हलकों में चुप्पी नहीं रहेगी. दिनकर जी के बारे में आपने लिखने के लिए कहा है, एक कोशिश तो की जा सकती है......

Gyan Dutt Pandey said...

भैया, शिव कुमार मिश्र दिनकर जी के फैन हैं। और हम शिवकुमार मिश्र के फैन और भाई। सो उनके चक्कर में दिनकर जी की कई पुस्तकें ले ली हैं और शिव को इम्प्रेस करने को दिनकर जी को पढ़ते रहते हैं! :-)

बोधिसत्व said...

ज्ञान भाई
ज्ञानपुर वाले टंज जी ने मुझ पर दिनकर का जो नशा चढ़ाया वह आज तक नहीं उतरा। मैं भी दिनकर का भक्त हूँ....।
दिनकर जी की कीर्ति अक्षय हो....।

विशाल श्रीवास्तव said...

अच्छा लगा जानकर कि आखिर कुछ लोग तो दिनकर को ठीक से याद कर रहे हैं, वस्तुत:
यह उल्लेखनीय है कि आज भी बीए की कक्षा में कम से कम दिनकर को पढ़ाते हुए मुझे छात्रों को यह नहीं बताना पड़ता कि हिन्दी कविता को पढ़ना इतना ज़रूरी क्यों है ..

बोधिसत्व said...

यह तो तय है विशाल जी कि दिनकर को पाठ्यक्रमों ने बचा लिया.....वर्ना हिंदी आलोचना और आलोचकों ने तो उनका क्रिया कर्म कर ही दिया था ।

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

ऐसी औरते कम हैं जिन्होंने प्रेम केवल एक ही बार किया हो। जब प्रेम मरता है तो वह बची हुई चीज ग्लानि होती है, पश्चाताप होता है। प्रेम आग है, जलने के लिए उसे हवा चाहिए। आशा और भय के समाप्त होते ही प्रेम समाप्त हो जाता है ।

दिनकर जी के व्यक्तित्व के इस पहलू से परिचय पहली बार हुआ है। बोधिसत्व जी बचपन से जिस कवि को पढ़ते आए हों, उनके इस रूप से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद।