मास्को में माँ का नाच और निराला
मेरी दो कविताओं के बारे में एक सूचना मुझे परसों मिली। यह सूचना मुझे मेरे कवि मित्र श्री अनिल जनविजय ने मास्को से दी। मेल पर बातचीत के दौरान जनविजय जी ने बताया कि मेरी दो कविताएँ वे मास्को विश्वविद्यालय में एमए हिंदी की कक्षाओं में पढ़ाते हैं।
मास्को में माँ का नाच तो पिछले तीन सालों से वे पढ़ाई जा रही है, पर मुझे सूचना तीन दिन पहले मिली है और मैं खुश हूँ। वहाँ पढ़ाई जा रही मेरी दूसरी कविता है इलाहाबाद में निराला। निराला वाली कविता मैं ब्लॉग पर पहले छाप चुका हूँ।
मैं आप सब को यह बाताना चाहूँगा कि श्री अनिल जनविजय खुद एक बहुत अच्छे कवि हैं उनके कई संग्रह प्रकाशित हैं । वे कविता कोश नाम से नेट पर हिंदी कविताओं का एक अलग भंडार भी संजो रहे हैं।
आज मैं आप सब के लिए अपनी कविता माँ का नाच छाप रहा हूँ । आप पढ़ें और अपनी बात रखें।
माँ का नाच
वहाँ कई स्त्रियाँ थीं
जो नाच रहीं थीं गाते हुए
वे एक खेत में नाच रहीं थीं या
आँगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच।
कोई पीली साड़ी पहने थी
कोई धानी,
कोई गुलाबी, कोई जोगन सी
सब नाचते हुए मदद कर रहीं थीं
एक दूसरे की
थोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से।
कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढ़ंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत।
माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
और जो नाच चुकीं थीं वे भी अचंभित
मन ही मन नाचती रहीं माँ के साथ।
मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाचती रही माँ
पैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटीं
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर,
पर जैसे भँवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है वैसे
नाचती रही माँ।
आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में।
अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि
घूमती जा रही थी,
फिर गाने की जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान
वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया हुआ था उसका बिलखता हुआ गाना।
रचना तिथि - 1 अप्रैल १९९९
मेरी दो कविताओं के बारे में एक सूचना मुझे परसों मिली। यह सूचना मुझे मेरे कवि मित्र श्री अनिल जनविजय ने मास्को से दी। मेल पर बातचीत के दौरान जनविजय जी ने बताया कि मेरी दो कविताएँ वे मास्को विश्वविद्यालय में एमए हिंदी की कक्षाओं में पढ़ाते हैं।
मास्को में माँ का नाच तो पिछले तीन सालों से वे पढ़ाई जा रही है, पर मुझे सूचना तीन दिन पहले मिली है और मैं खुश हूँ। वहाँ पढ़ाई जा रही मेरी दूसरी कविता है इलाहाबाद में निराला। निराला वाली कविता मैं ब्लॉग पर पहले छाप चुका हूँ।
मैं आप सब को यह बाताना चाहूँगा कि श्री अनिल जनविजय खुद एक बहुत अच्छे कवि हैं उनके कई संग्रह प्रकाशित हैं । वे कविता कोश नाम से नेट पर हिंदी कविताओं का एक अलग भंडार भी संजो रहे हैं।
आज मैं आप सब के लिए अपनी कविता माँ का नाच छाप रहा हूँ । आप पढ़ें और अपनी बात रखें।
माँ का नाच
वहाँ कई स्त्रियाँ थीं
जो नाच रहीं थीं गाते हुए
वे एक खेत में नाच रहीं थीं या
आँगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच।
कोई पीली साड़ी पहने थी
कोई धानी,
कोई गुलाबी, कोई जोगन सी
सब नाचते हुए मदद कर रहीं थीं
एक दूसरे की
थोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से।
कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढ़ंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत।
माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
और जो नाच चुकीं थीं वे भी अचंभित
मन ही मन नाचती रहीं माँ के साथ।
मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाचती रही माँ
पैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटीं
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर,
पर जैसे भँवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है वैसे
नाचती रही माँ।
आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में।
अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि
घूमती जा रही थी,
फिर गाने की जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान
वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया हुआ था उसका बिलखता हुआ गाना।
रचना तिथि - 1 अप्रैल १९९९
नोट- ऊपर मेरी माँ की एक फोटो
22 comments:
अत्यधिक भावपूर्ण कविता है और गुरुदेव आपको बधाई हो
बोधि भाई,
बहुत बढ़िया लगी कविता...आपकी कविता की धारा ऐसे ही बहती रहे, यही कामना है.
भाव, शब्द और बहाव...प्रभावी।
बधाई!!!
आपको खुश होने के मौके ऐसे ही मिलते रहें।
कविता अच्छी लगी
ये कविताएं कोर्स में लगीं, तो भरोसा सा हो रहा है कि बगैर रैकेटबाजी, गिरोहबाजी के भी सिर्फ गुणवत्ता के आधार पर भी कहीं काम होता है। आपका सारा काम सिर्फ बीए के कोर्स में नहीं, कामर्स और इकोनोमिक्स में भी पढ़ाया जाना चाहिए। अपने वक्त का पूरा समाजशास्त्र, दर्शन,अर्थशास्त्र इनमें बोलता है।
मुझे वाइस चांसलर बनने दीजिये कहीं का, फिर देखिये फिजिक्स, कैमिस्ट्री वालों को ङी आपकी कविताएं पढ़वाऊंगा।
मांजी को सादर चरण स्पर्श।
आलोक भाई भूल मत जाइएगा। नहीं तो कैकेई की तरह मुझे कोफ भवन की राह लेनी पड़ेगी। कविता को केमेस्ट्री में तो नहीं पढ़वाइएगा नहीं तो माँ का नाच कुछ-कुछ माँ के माँ का अचार बनने की पूरी संभावना रहेगी।
अम्माजी के पालागी।
अच्छा लगा यह जानकर!
ज्ञान भाई यह सब आप लोगों का आशीष है....आलोक जी और आपका प्रणाम माता जी के पास पहुँचा दिया है।
अत्यन्त प्रभावशील रचना-बहुत बधाई. आनन्द आ गया.
माता जी को नमन.
अत्यंत चिंतनशील रचना… भारी वाद-संवाद की जगह है इसमें… बहुत ही शानदार अभिव्यक्ति है…
माँ की रुहानी ममत्व का असर और आंतरीक दर्द को कई बार छुआ है।
बोधित्सव जी,
बधाई !
मोस्को के पाठ्य क्रम मेँ आपकी कविता सुन कर क्या प्रतिक्रियाएँ हुईँ ?
उसके बारे मेँ अनिल जन विजय जी से पूछ कर ये भी साथ लिख देँ तो और भी अच्छा लगेगा -- पर, इस वक्त तो, यही कहना चाहती हूँ कि, आपकी माँ जी को सादर प्रणाम !
शुभ कामना सहित,
स स्नेह,
-- लावण्या
तुम्हारे पास और कुछ छापने को नहीं बचा है क्या। तुम सब कबि चिरकुट हो गए हो और अपना प्रचार कर रहे हो।
ऊपर वाले बेनाम की बात को अनसुना करो.. हृदय स्पर्शी कविता है.. माँ को नमन.. और मास्को तक आप की कविता पहुँचने पर मेरी बधाई..
अज्ञात भाई
आपकी टिप्पणी का क्या करूँ.....आप धन्य हैं आपका धन्य़वाद।
बेहतरीन कविता . स्थानीय से कॉस्मिक तक विस्तार पाती अनूठी कविता . दुख में सुख और सुख में दुख के ताने-बाने से बुनी अद्भुत कविता .
किसी विश्वविद्यालय में न भी पढाई जाए तो भी इस कविता का महत्व कम न होगा .
मां को प्रणाम भेजता हूं . उनसे मेरे लिए भी आशीर्वाद मांगिएगा .
आप की कविता मास्को में पढ़ाई जा रही है इसके लिए आपको बधाई.....माँ का नाच अपनी मार्मिकता और संवेदना में हिंदी साहित्य के मौजूदा दौर की एक बेजोड़ कविता है।
भई बोधिसत्व तुम्हारी जय हो. तुम इतने कम्पूसेवी हो हमें पता न था. तुम्हारी खैर खबर लेने वालों की राय पढ़कर अच्छा लगा कि तुम इतनी जल्दी छा गये हो ब्लागिस्तान के आकाश में. मेरी अनंत दुआएं कि सुख दुख बांटने का ये प्लेटफार्म हिन्दी के सब कलम घिस्सुओं को नसीब हो और जो ब्लाग प्रदेश की नागरिकता पहले ही ले चुके हों, उन्हें और ज्यादा हिट नसीब हों. ये बंदा भी आज आपके इस हरियाले प्रदेश में प्रवेश कर रहा है. सबको खबर कर दी जाये. आमीन
कथाकार
माँ की विस्तीर्ण वेदना का स्थाई भाव महसूस हुआ।
भाई कथा कार
कम्पू सेवी क्या बला है....बधाई ले ली...ब्लॉग की दुनिया में स्वागत है.....धन्यवाद
bhai bodhisatva ji
english meiN likhnaa thaa computer savvy jo hindi meiN ho gayaa compusavee.
arth ko angrejee se grahan kiya jay.
kathaakar
समझ गया भाई
मैं तो अपने कुछ दोस्तों के चलते कम्पूसेवी हूँ......
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