मैं तुम्हें देख नहीं पाया काकी
मेरी पान्ती काकी का 9 मार्च को देहान्त हो गया। उनके न रहने की सूचना मैंने आप सब को होली के चलते नहीं दी। काको लगभग 77 साल की थीं। वैसे वे मेरी ताई थीं। लेकिन हम सारे बच्चे उनको काकी ही कहते थे। जीवन के तमाम अकल्पनीय दुख उन्हें सहने पड़े। वे बेऔलाद और विधवा थीं। उन्हें उनकी पुश्तैनी सम्पदा से बेदखल कर दिया गया गया था। ऐसी दशा में किसी भी स्त्री का जीवन कितना विकट हो सकता है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। यह स्वीकार करने के अलावा कोई राह नहीं है कि हम उन्हें उनका कोई भी हक नहीं दिला पाए हालाकि उन्होंने कभी ऐसी कोई माँग नहीं की। मैंने उनके ऊपर एक कविता लिखी थी जो कि मेरे पहले संग्रह में संकलित है। अपना तीसरा कविता संग्रह दुख तंत्र मैंने काको को समर्पित किया था। जिसपर काको बहुत खुश हुईं थी। किताब में अपना नाम देखना उन्हें बहुत भला लगा था। लेकिन यह सब क्या मेरी काको के लिए काफी है। उन के जीवन पर मैंने काफी कुछ लिखा है जिसका एक बड़ा हिस्सा उन्हें सुनाया भी था। विनय पत्रिका के शुरुआत में मैंने उन पर एक पोस्ट में कुछ लिखा भी था। आप उन पर लिखे को वहाँ पढ़ सकते हैं।
बीमार तो कई दिनों से थीं लेकिन 9 मार्च की सुबह से ही उनकी स्थिति बिगड़ने लगी थी। मैं वहाँ से बराबर संम्पर्क में था। माँ से बात हुई उसने कहा कि सब ठीक हो जाएगा। ऐसा कई बार हुआ भी था काकी जाते-जाते रुक जाती थीं। मैं सपरिवार वैसे भी 23 मार्च को गाँव जा रहा था। 3 मार्च को उनसे बात भी हुई थी। फोन पर उनकी आवाज से अधिक उनके दमें की हफनी सुनाई पड़ रही थी। मृत्यु उनके लिए भय का कोई कारण नहीं रह गया था। उन्होंने कहा भी कि अभी मरनेवाली नहीं 23 को आओ तो मिलती हूँ। लेकिन काके से मुलाकात न हो पाई । 9 की शाम को मुझे गाँव से फोन आया कि काको नहीं रहीं।
मैं किसी भी हाल में बनारस पहुँचना चाहता था। काको की इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार बनारस में हो। लोग उन्हें बनारस ले जाने की तैयारी में थे और मैं उनके पास पहुँचने के लिए भाग रहा था। रात 11 की फ्लाइट से टिकट भी बुक हो गया था। लेकिन उनके पास उपस्थित मेरे समझदार भाई लोग उनके लिए बरफ का भी इंतजाम नहीं कर पाए । जिस कारण उनको देर तक रोकना असंभव हो गया था। मुझे फोन आया कि हालात ठीक नहीं हैं। शरीर बिगड़ रहा है। गाँव के बूढ़े बुजुर्गों का कहना था कि भोर में ही उनका संस्कार कर दिया जाए। और यही हुआ। उन्हें 5 बजे भोर में अग्नि को समर्पित कर दिया गया। मेरी काको स्वाहा हो गईं। मैं एयरपोर्ट से वापस घर लौट आया। उनको आखिरी बार देखने भी नहीं पहुँचा।
काको से सितंबर में मिला था। तब वे ठीक थीं। लेकिन जीवन से उकताहट अपने चरम पर था। काको तब भी जीना नहीं चाहती थीं। काको दरअसल कभी भी जीना नहीं चाहती थीं। वे केवल समय बिता रहीं थी। उन्हें इस जीवन में मिला ही क्या था जो वे और जीने की सोचतीं।
मेरी काको को सैकड़ों भजन याद थे। भागवत की कथाएँ मैंने बचपन में उनसे ही सुनी। जब भी मैं या घर के बच्चे बीमार होते काको सिरहाने रहती। कहती कुछ नहीं है बस मैं मंत्र पढ़ देती हूँ तुम ठीक हो जाओगे। उनके पास बर्र के काटने से लेकर नजर, टोना, बुखार, अधकपारी तक के मंत्र थे। मंत्रों पर बाद में भरोसा नहीं रह गया था लेकिन जब भी काको झाड़-फूँक लिए सामने आतीं मैं चुप हो जाता। और काको मंत्र पढ़ने लगती। बहुधा हमें उनके मंत्रों से आराम मिलता था। मेरा मानना है कि काको अपने भगवान से हमारे लिए प्रर्थना करती थी। वे भगवान से कहती रही होगीं मेरे बच्चे को ठीक कर दे भगवान। और उनका भगवान हमारे दु:ख तकलीफ हर लेता था। अभी अपनी प्रर्थनाओं मंत्रों से हमारे दु:ख हरने वाली काको नहीं रहीं। हर मुश्किल का हल जानने वाली दुबली पतली दमा, दुर्भाग्य और दायादों की मारी मेरी काकी नहीं रहीं। काकी पर लिखी मेरी 1988 की कविता मैं यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता श्रद्धांजलि है मेरी।
काकी
काकी,
तेरा हाथ टूटा
मैं देखने नहीं पहुँचा
मुझे दु:ख है
तेरे हाथ के इलाज में
मैं कुछ कर न सका।
काकी मुझे याद है
तुम दबाया करती थीं
मेरे पाँव
दुखने पर
काकी, तूने
मेरी चड्ढ़ी का नाड़ा
बाँधा है
बझने पर
खोला भी है।
काकी,
मुझे याद तो नहीं
लेकिन मैं
सोच सकता हूँ
तूने किया होगा
मेरा तेल उबटन
“ लाला बड़ा होयिं
भइया बाढ़यिं ”
कह कह कर।
काकी,
मैं कुछ इस तरह
फँसा हूँ यहाँ
जैसे बंदर
चने की हाँड़ी में
मुट्ठी बाँध कर फँसता हैं,
काकी मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ
पर आ नहीं सकता
काकी, मैं
तुम्हारे पास आऊँगा,
काकी
तुम माँख न मानना
मैं अभी नहीं आ सकता।
नोट- मैं माफी चाहूँगा आज भी काकी की फोटो नहीं चढ़ा पा रहा हूँ। फिर चढ़ाऊँगा। मैं 17 मार्च से 27 मार्च तक भदोही गाँव में रहूँगा। काकी का त्रयोदशाह 21 मार्च को है।
Sunday, March 15, 2009
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20 comments:
मेरी श्रद्धांजलि।
काको के बारे में पढ़कर मुझे अपनी आजी याद आ गईं...बचवा, इनारे की ओर मत जइहा, बाहर गरमी बा, धूपे में मत जइहा...भगिहा दौड़िहा मत, गिर जइबा....जाने कितनी बातें बोलती थीं जब हम लोग गांव वाले घर से भागते हुए मशीन पर जाने को होते थे। आजी बाद में मानसिक रूप से परेशान हो गईं थीं। कभी चुपचाप घर से निकलकर चाचा के यहां गाजीपुर शहर चली जातीं तो कभी गंगा नहाने निकल पड़तीं। घर में बच्चों से बातें करतीं, उनकी सेवा टहल करतीं और अपने में लीन रहतीं।
इन आजियों, काकियों, दादियों का बहुत एहसान है हम मर्दों पर। इन औरतों के जैसा हम कभी नहीं बन सकते। इनके कर्ज हम कभी नहीं चुका सकते। हम वाकई मतलबी और समझदार लोग हैं। ये दादियां, काकियां, आजियां अपने लिए जिंदगी कभी जी ही नहीं। कभी अपने पति के लिए, कभी अपने बेटों के लिए तो कभी बेटों के बेटों के लिए जिंदगी जीते जीते चली गईं।
बोधि भाई, आप धन्य हैं जो आपने इतने प्रेम से काको को याद किया, गुजरने के बाद। आपकी संवेदना को मैं महसूस करने की कोशिश कर रहा हूं।
काको को मेरी श्रद्धांजलि।
यशवंत
किसी भी प्रिय का हमेशा के लिए चला जाना बहुत असहनीय होता है। काकी को विनम्र श्रंद्धांजलि!
दुखद घडी में मेरी संवेदनाये आपके साथ है . काकी जी को नमन करता हूँ .
श्रद्धांजलि.
मेरी श्रद्धांजलि ... भगवान आपको इस दुख को सहने की शक्ति दें।
बोधिसत्वजी, इस कष्ट की वेला में आप के प्रति सहानुभूति है ।
भगवान काकी की आत्मा को चिर शान्ति दें। श्रद्धाञ्जलि।
बहुत दुख है :-(
आपकी काकी जी की आत्मा को ईश्वर
अपने प्रकाश मेँ लेँ -
धैर्य धरेँ बोधि भाई ..
- लावण्या
का पण्डित, पढ़ कर वैराज्ञ आ रहा है मन में। अपनी आजी की याद आ रही है।
श्रद्धांजलि।
काकी के प्रति आपका स्नेह देखकर अच्छा लगा। काकी को तो मुक्ति मिली है। उनके प्रति मेरी श्रद्धांजलि।
घुघूती बासूती
काकी को श्रृद्धांजलि..अपने चले जाते हैं और यादें छोड़ जाते हैं.
श्रद्धांजलि
काकी को विनम्र श्रद्धांजलि....आपका आदर भावः और स्नेह बहुत अच्छा लगा!
भगवान आपको इस दुखद घडी में संबल प्रदान करे ...दिवंगत आत्मा को हमारी श्रद्धांजलि.
shradhanjali.
काकी,
मैं कुछ इस तरह
फँसा हूँ यहाँ
जैसे बंदर
चने की हाँड़ी में
मुट्ठी बाँध कर फँसता हैं,
काकी मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ
पर आ नहीं सकता
काकी, मैं
तुम्हारे पास आऊँगा,
काकी
तुम माँख न मानना
मैं अभी नहीं आ सकता।
- काकी को विनम्र श्रद्धांजलि.
bahut dukh hua.
aap ja nahin paye isaka malal aapako jivan bhar rahega.
kavita marmik hai.
श्रद्धाञ्जलि.
बोधि-भाई
श्रद्धांजली को काकी को ।
अपराध-बोध से भर रहा है मन ये सब पढ़कर ।
रिश्तों की इतनी गहरी विकलता हमारे यहां नहीं हैं ।
जब दादी गयीं तो मैं जा भी ना सका ।
नानी गयीं तो भी ।
अब तो उस ओर से ऐसी ख़बरें ही नहीं आतीं ।
काको के बारे में दुखद समाचार पढ़कर मन भर आया। उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि।
८० बरस की हो गयी है मेरी ईया ... यह पढ़ कर लगा की यह दुःख मेरा भी है
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