Wednesday, July 4, 2007

सहिष्णुता बनाम हिंसा

किसी भी समुदाय या संप्रदाय से जुड़ना या अलग हो जाना उस खास समुदाय की सहजता और अपनत्व की भावना पर निर्भर करता है। इतिहास के लंबे दौर में आज शाकाहारी बन चुके सनातनी लोगों ने कई रूप बदले हैं। आज जो समुदाय अपने को सबसे अधिक सहिष्णु जता रहा है, उसी ने अपने ही आस-पास की आबादियों में रहने वाले बौद्धों पर हर तरह के अत्याचार किए। इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने अपने शोधों से इस तथ्य को कई जगहों पर प्रामाणिक बनाया है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहीं लिखा है कि जिन-जिन इलाकों में दलितों या निचले तबकों के जैसे बुनकरों आदि की रहनवारी थी उन्ही इलाकों में बाद में इस्लाम का दबदबा रहा। द्विवेदी जी के आधार पर कहा जा सकता है कि बाद के दिनों जब उच्च या संप्रभु वर्ग के अत्याचार बढ़े तो इन तमान वंचितों और दलितों ने इस्लाम की शरण जाना उचित समझा। जहाँ कम से कम उनके साथ अमानुषिक और गैर बराबरी का कोई बर्ताव तो नहीं हो रहा था।

बौद्धों और जैनों पर सनातनी ब्राह्मणों के अत्याचारों पर इतिहासविद डॉ. राम शरण शर्मा ने भी विस्तार से लिखा है। उनका मानना हो कि जब बौद्ध गुफाओं में अपनी संगीतियाँ या सम्मेलन करते थे, तब उनके विरोधी ब्राह्मण धर्मानुयायी गुफाओं के द्वार को बाहर से बद करके आग लगा दिया करते थे । इस देश में जिसका नाम भारत है ऐसा सिर्फ बौद्धों के साथ ही नहीं हुआ है। अपने विरोधियों को समूल नष्ट करने की यहां एक लंबी परम्परा रही है। महाभारत का खांडवप्रस्थ दहन हो या देवासुर संग्राम हर कहीं विरोधियों के समूल नाश करने का ही साक्ष्य मिलता है।

विरोधियों के प्रति सनातनियों की इस असहिष्णुता पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी दुख के साथ स्वीकार किया है। उनकी माने तो इस देश के सनातनियों ने ऐसा कुछ हिंसक व्यवहार लोकायत या चार्वाक मत के अनुयायियों के साथ किया था। लोकायती भारत के उस पंथ के मानने वाले थे जो वेद विरोधी थे, जो ईश्वर और पुनर्जन्म में भरोसा नहीं रखते थे। जो मोटे शव्दों में नास्तिक थे। उनका तर्क था कि
1- भुना हुआ अन्न कभी नहीं उगता,

2- जब तक जियो सुख से जियो , जली हुई देह कभी नहीं आती,

3- टका ही धर्म है टका ही कर्म है, जिसके पास यह नहीं है वह सिर्फ बाजीर में टकटकी लगा कर देख सकता है, इत्यादि.....इत्यादि...

अपनी किताब भारत की खोज में नेहरू ने लिखा है कि इस देश से चार्वाक या लोकायत के मानने वालों को बल पूर्वक समाप्त किया गया होगा। नहीं तो ऐसा कैसे हो गया कि एक समय इस देश में पर्याप्त प्रचारित रहने वाले पंथ से जुड़ी एक भी पोथी का अवशेष भी ना मिले। नेहरू तो यह भी मानते हैं कि इस देश में लोकायत मत को मानने वाली पोथियों को भी नष्ट किया गया होगा। इन बातों का समर्थन देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय भी अपनी किताब लोकायत, और भारतीय दर्शन में जीवंत और मृत में करते हैं । इसी तरह धुर्ये महोदय ने भी अपने शोध में बड़े समुदाय के द्वारा अंत्यजों और दलितों को सताने की बात को धर्म परिवर्तन से जोड़ा है।
रोचक बात यह हो कि दशकुमार चरित में अयोध्या के राज कुमार राम को भी उनके आचार्यों ने लोकायत दर्शन का पाठ पढ़ाया था। बुद्ध के समय भी राजकुमारों को नास्तिकता के दर्शन का पाठ पढ़ाना आवश्यक था। पर बाद में जैसे-जैसे संकीर्णता का बोल-बाला बढ़ा वैसे-वैसे असहिष्णुता बढ़ती गई। उपनिषदों के मुताबिक विदेह जनक के दरबार में बंदी नाम का एक विद्वान था जो तर्क या शास्त्रार्थ में पराजित होने वाले व्यक्ति को पानी के कुंड में डुबो दिया करता था। इस तरह के विद्वान आज भी हैं जो अपने प्रतिद्वंद्वियों को खत्म करके ही दम लेने में यकीन करते हैं।
इस आधार पर सवाल सिर्फ बौद्धों के ही विलुप्त होने का नहीं नास्तिकों के भी समूल नाश का बनता है।
सवाल यह भी है कि आखिर कैसे एक पूरा समुदाय हिंसा की वारदातों में एक मत हो कर शामिल हो जाता रहा होगा। इस के लिए हम गुजरात की हिंसक घटनाओं को उदाहरण के रूप में देख सकते हैं

गो मांस भक्षण पर माहाभारत काल में पूरी तरह प्रतिबंध था। गोहत्या को महाभारत निषिद्ध बताते हुए पाप करार देता है। लेकिन महाभारत के अनुसार ही उसके भी पहले यानी बहुत प्राचीन काल में गो मांस भक्षण के उदाहरण मिलते हैं । महाभारत के अनुसार रंतिदेव रोज दो हजार गौओं का वध करते थे और उनका मांस दान करते थे, इस दान के कारण ही रंतिदेव की कीर्ति चारों ओर फैली थी।

इसके विपरीत मांस भक्षण इस देश में कभी भी निंदनीय नहीं रहा है। महात्मा बुद्ध का आखिरी आहार शूकर मद्दव था, यानी सूअर का मांस। बुद्ध के आहार पर कोसंबी महोदय ने काफी विस्तार से लिखा है। बुद्ध की जीवनी में।

अछूतों पर काफी काम हिंदी और अंग्रेजी में हुआ है, कभी चाँद का अछूत अंक छपा था वह आज राधाकृष्ण या वाणी प्रकाशन में उपलब्ध है। गाँधी जी के कहने पर डॉ. मुल्क राज आनन्द ने अछूत नाम का उपन्यास लिखा था और डॉ. भगवत शरण उपाध्याय ने खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर में भी अंत्यजों पर एक रोचक अध्याय लिखा है। इस पोथी में डॉ. उपाध्याय ने दास, शूद्र और अंत्यज पर बहुत ही रोचक सामग्री मुहैया कराई है।

यह सारी बातें स्मृति के आधार पर लिख रहा हूँ , कहीं कुछ थोड़ा बहुत दाएं या बाएं हो सकता है। अभय भाई और आप सब क्षमा करेंगे।

5 comments:

अनुनाद सिंह said...

अच्छी कल्पना है। अंधो के हाथी से भी बढ़िया 'लाल बुझक्कड़ी' है। ऐसे ही शोध और उत्कृश्ट चिन्तन पर खड़ा सोवियत संघ रेत के महल की तरह भरभरा के गिर गया था।

अभय तिवारी said...

आप ने अच्छा लिखा बोधि भाई.. इन विषयों पर खूब खूब पढ़े जाने और लिखे जाने की ज़रूरत है.. तभी जा कर अनुनाद जी जैसे लोग तमसो मा ज्योतिर्गमय हो सकेंगे..
क्यों भाई अनुनाद अपने देश के इतिहास में सोवियत रूस को क्यों बीच में ला रहे हो..? इतिहास की यह व्याख्या नहीं पसन्द तो अपने से इतिहास पढ़ कर जानो.. कि क्या करते रहे हैं हमारे पूर्वज..
जो ज्ञान का पिपासु हो उसे धारणाओं को इतना जड़ कभी नहीं बनाना चाहिये कि कभी कुछ नया सीख ही नहीं पायें.. जान ही न पाये.. अगर आप ज्ञानी हो गये हो तो बात अलग है..

बोधिसत्व said...

आप की मुध पर विशेष कृपा बनी रहे और आप की सोच का यह तरीका भी। इसमें ना कल्पना है ना सोच। लगता है आप ने स्मृति को कल्पना समझ लिया है। अगर आप को लगे तो मैं उन सभी मूल श्रोतों का हवाला दे सकता हूँ। और आप थोड़ी कोशिश करें तो आप भी उन श्रोतों तक पहुँच सकते हैं।
हमने तो सोवियत के गिरने की कुछ और वजह पढ़ी-सुनी थी आपने तो हमें चक्कर में डाल दिया।

Pranesh said...

यह मान लेना गलत होगा कि बुद्ध ने अपने भोजन में सुअर का माँस खाया था। क्या आप जानते हैं कि शूकर मद्दव कुकुरमुत्ते की एक प्रजाति से बनता था ना कि सुअर के माँस से? ब्लॉग पर प्रविष्टियाँ प्रकाशित करने के पूर्व पूरी पड़ताल कर लेनी चाहिये।

तथ्यों का अपने फायदे के लिये अनुवाद करने से होने वाले नुकसान के लिये ही अनुनाद जी ने सोवियत संघ का रूपक पेश किया है।

iqbal said...

सुरेन्‍द्र सिंह अज्ञात ने सरिता के किसी पुराने अंक महात्‍मा की मृत्‍यु का कारण सुअर का भोजन ही बताया है