Tuesday, July 17, 2007

ज्ञानेन्द्रपति की प्रेम कविता

ज्ञानेन्द्रपति हिंदी के विरले कवियों में हैं। उनका यह विरलापन कई स्तरों पर साफ-साफ देखा जा सकता है। भाषा और कहन का उनका अपना ही ढंग है । इसी वजह से न वे किसी कवि-परंपरा में आते हैं और नाही कोई कवि उनकी परंपरा में दिखता है। यहाँ प्रस्तुत उनकी एक प्रेम कविता ट्राम में एक याद भी बेजोड़ है । प्रेम की अनुभूति का यह पक्ष यहीं भर है । स्मृतियों से उपजी छटपटाहट प्रश्नों की बौछार बन कर आती है। झारखंड के पथरगामा में जन्मे ज्ञानेन्द्रपति अकेले कवि हैं जो कुलवक्ती कवि हैं, उन्हे पहल और साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त है । यह कविता उनके संग्रह भिनसार से है। यह उनके पहले दो संग्रहों, आँख हाथ बनते हुए, और शव्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है के अलावा फुटकर असंकलित कविताओं का संयुक्त प्रकाशन है । गंगातट और संशयात्मा उनके दो और काव्य संग्रह है। वे स्थाई रूप से बनारस में रहते हैं । पढ़िये उनकी यह प्रेम कविता।

ट्राम में एक याद


चेतना पारीक कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?

तुम्हे मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?
नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?
मुझ-से घुमंतू कवि से होती है टक्कर ?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?
उतनी ही हरी हो ?

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?

4 comments:

अनामदास said...

धन्यवाद, लगभग बीस बरस पहले दूरदर्शन पर कवि सम्मेलन में सुना था. बेहतरीन है, सबसे अलग है और बहुत सुंदर है.

Yunus Khan said...

अच्‍छी कविता है

अफ़लातून said...

आभार।दो टूथब्रशों वाली भी दीजिए।

बोधिसत्व said...

पढ़ने के लिए धन्यवाद नहीं कहूँगा भाई । एक दो दिन में छापता हूँ। यह मेरी कुछेक प्रिय कविताओं में भी है।