Monday, July 23, 2007

जिया जरत रहत दिन रैन

ऐसे थे ओम प्रकाश


इलाहाबाद में मेरे एक मित्र थे ओम प्रकाश सिंह। कहाँ के रहने वाले थे यह ठीक-ठीक नहीं याद आ रहा। शायद जौनपुर या प्रताप गढ़ के थे । उनके बड़े भाई उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में काम करते थे, और ओम प्रकाश अपने भैया और भाभी के साथ रहते थे। भैया-भाभी तो अपने थे ओम प्रकाश दीवारों के साथ भी रह सकते थे। बल्कि वह दीवारों के साथ ज्यादा सुख से रह सकते थे।

मेरे पास उनकी कोई फोटो होती मैं छाप कर आप को उन तीर्थ स्वरूप मित्र का दर्शन करवा देता । पर क्या करूँ नहीं है। तो शाव्दिक खाका देखिए । ओम प्रकाश की देह पर उतना ही मांस था जितने से उन्हे सुई लगाई जा सके । पतले-पतले हाथ, लंबी दुबली काया, ऊंची लंबी नाक उठा हुआ माथा, और चमकती हुई अंदर को धंसी सी आँखें, सिर पर कंघी किये बाल, मांग एक दम कोरी, सिंदूर भरने लायक और दाहिनी कलाई पर मैहर या विन्ध्याचल की देवियों के धाम से लाया हुआ कलावा हर दम बधा रहता था। वह कलावा भी ओम प्रकाश के शरीर का हिस्सा बन चुका था। कभी ऐसा नहीं हुआ कि ओम प्रकाश बिना कलावा के दिखे हों ।

ओम प्रकाश की कुछ आदतें थी। जैसे कि सब की कुछ ना कुछ होती हैं। वे कभी अपनी बात नहीं रखते थे। यानि कभी उनका कोई पक्ष नहीं होता था। कैसा भी संगीन मामला हो ओम प्रकाश बीच का कोई ना कोई रास्ता निकाल लेते थे। आप मान सकते हैं कि ओम प्रकाश हर एक के साथ थे, हर एक बात के समर्थन में थे । जब तक हम साथ रहे हमने कभी ओम प्रकाश को किसी से उलझते नहीं पाया।

साफ साफ लिखते थे। नंबर पाने की कोशिश करते थे। हर किताब पर कवर चढ़ा होता था। किताब में कभी भी पेन या पेंसिल से निशान नहीं तगाते थे। समय पर आते थे समय पर जाते थे । किसी से उधार नहीं लेते थे ना ही किसी को उधार देते थे । पर कोई उनसे नाराज नहीं था । वे किसी से झगड़ा नहीं करते थे और ना ही कभी ऐसी कोई स्थिति ही पैदा करते थे कि किसी को उनके लिए झगड़ा करना पड़े । पर हम आज तक नहीं समझ पाए कि उनके पक्ष में क्लास की सारी लड़कियाँ क्यों खड़ी रहती थीं। यही नहीं वे हमारे और क्लास की तमाम लड़कियों के बीच एक पुल की तरह थे। एक कमजोर दिखते से पुल की तरह थे, जिसे देख कर ऐसा लगता है कि यह अब गिरा कि तब गिरा, लेकिन नहीं, ओम प्रकाश नाम का वह पतला पुल कभी नहीं गिरा। वो अपनी ही गति में चलते रहे।

कैसा भी माहौल हो कैसा भी समारोह ओम प्रकाश गोदान फिल्म का गाना जरूर गाते थे-
जिया जरत रहत दिन रैन
और कभी मुकेश की आवाज में गाने की कोशिश नहीं की। इस गाने के लिए कभी भी ओम प्रकाश ने किसी से इजाजत नहीं मांगी, एक कलाकार के उतरने और दूसरे के मंच पर चढ़ने के बीच के अंतराल में ओम प्रकाश गाना शुरू कर देते और पूरी क्लास उन्हे सुन कर ही आगे के कार्यक्रम पर जाती थी। अपना गाना गाने के पहले और बाद भी ओम प्रकाश एक दम यथावत रहते। कोई फर्क नहीं देखा जा सकता था।

उसी बीच हल्ला हुआ कि ओम प्रकाश की शादी हो रही हैं। लड़की क्या थी हूर थी। क्लास की ही किसी लड़की ने यह शादी तय कराई थी। पूरी क्लास एक्साइटेड है, पर ओम प्रकाश आते हैं क्लास में बैठते हैं । लड़कियों से बात करते हैं । पढ़ते हैं ।
संगठन के दफ्तर जाते हैं । फीस बढ़ाने के विरोध में पोस्टर बनाते हैं । चिपकाने के लिए लेकर निकलते हैं। पर शादी पर कोई बात नहीं । रास्ते में दूसरे संगठन के लोग मिल गये तो उनका भी दो पोस्टर चिपका दिया या उनके पक्ष में भी दो नारे लगा दिए। वो भी खुश। ओम प्रकाश को किसी कोई खतरा नहीं ओम प्रकाश का कोई दुश्मन नहीं।
कैंपस में आग लगी हो, गोलियाँ चलीं हो, कोई मर गया हो या घायल हुआ हो। ओम प्रकाश आते, माहौल देखते पढ़ाई होगी या नहीं होगी पता करते और चलते बनते । वे कभी पुलिस की लाठियों की जद में नहीं आए। कभी कोई गोली उन्हे छूकर नहीं निकली। कबी उन्हे खोजते हुए कोई नहीं आया। कभी उन्होने खुद को खोजने का सुअवसर ही नहीं दिया।ओम प्रकाश से किसी को कोई तकलीफ नहीं थी। वे किसी के लिए दुख, तनाव या परेशानी के कारक नहीं थे।

एक वक्त आया कि हम सब को लगा कि अब हम बिखर जाएंगे। एम ए की पढ़ाई खतम हो गई थी। सब लोग एक दूसरे का स्थाई पता ठिकाना दर्ज कर रहे थे। पर ओम प्रकाश ने न किसी से पता लिया न दिया। बस एक किनारे बैठे रहे। सब के चले जाने के बाद उठे और घर चले गये। पलट कर एक बार भी दरो दीवार को नहीं देखा , बस जाते रहे जाते रहे।
आज लगभग 15 साल हो गये हैं पर मैं अब भी नहीं समझ पाया हूँ कि आखिर ओम प्रकाश इतना शांत कैसे रह लेते थे । औवल तो वो मिलने से रहे, पर अगर वह मिलेंगे तो पूछूँगा कि भाई इतना निर्लिप्त कैसे रह लेते हैं। हमे भी तो बताइये। पर मुझे नहीं लगता कि वो कुछ बताएंगे।

8 comments:

ALOK PURANIK said...

पता लगे तो हमें भी बताइए। और जल्दी ही पूछ लीजिये।

परमजीत सिहँ बाली said...

सच मे बहुत अनोखा स्वाभाव है ओम प्रकाश जी का का।ऐसे महानुभव से हमे भी मिलवाएं अगर आप को मिल जाए तो।

Sanjeet Tripathi said...

पूछ के हमें भी बताईए भैय्या!!

बोधिसत्व said...

यही तो मुश्किल है। न पता दिया न लिया। वो खुद तो आने से रहे।
वैसे एक बात बताऊँ आप लोग अपने आस-पास नजर डालिए। ऐसे लोग हर वक्त और हर जगह पाए जाते हैं। जिसे पहले मिले वही बताए ऐसे निर्लिप्त का पता।

Gyan Dutt Pandey said...

बोधिसत्वजी, आज आपका ब्लॉग उलटा-पलटा. बहुत अच्छा लगा. किसी पोस्ट विशेष पर तो नहीं कहूंगा. सभी अच्छी लगीं. हिन्दी सहित्य मेरा फोर्ट नहीं है - पर पढ़ना अच्छा लगता है. पहला काम तो आपके ब्लॉग को अपने गूगल रीडर में जोड़ लिया है, जिससे कि नया कुछ बिना नोटिस न रह जाये.

अभय तिवारी said...

इस तरह के संस्मरण और चाहिये..पाँच सौ से हज़ार शब्दों के भीतर रोज़ाना दस से बारह के बीच विनय पत्रिका पर पोस्ट करें.. बिना वर्तनी की अशुद्धियों के.. पसंद आने पर टिप्पणी प्रेषित की जाएगी..

संजय @ मो सम कौन... said...

भगवन,
कहीं से चिरकीन के बारे में जाना, भटकते हुये यहां आये हैं। अब यहाँ भटक रहे हैं। सब बांच डालना है, टिप्पणी हर पोस्ट पर संभव नहीं। कहीं कहीं या कहीं भी नहीं भी हो सकती, लेकिन अफ़सोस हो रहा है कि ये ब्लॉग निष्क्रिय क्यों है? और हमें अब तक क्यों नहीं पता चला इस ब्लॉग का?

संजय @ मो सम कौन... said...

ये लिखना तो भूल ही गया था कि ओमी भैया से बहुत प्रभावित हुये हम:)