जो नहीं हो सके पूर्णकाम, उनको प्रणाम
क्या हमारी दुनिया सिर्फ जीवितों के भरोसे चल रही है। जो नहीं हो सके पूर्णकाम, क्या उनका इस धरती की सजावट में कोई योगदान नहीं है। मेरा मानना है कि ऐसा नहीं है। इसीलिए आज विनय पत्रिका में प्रस्तुत है स्वर्गीय शरद बिल्लौरे की एक कविता।
शरद बिल्लौरे का जन्म 1955 में मध्य प्रदेश के रेहट गाँव में हुआ था। 3 मई 1980 को मात्र 25 साल की उम्र में शरद की लू लगने से कटनी में मौत हो गई। तब तक शरद की कोई किताब नहीं छपी थी। बाद में राजेश जोशी ने शरद की कविताओं का संकलन “तय तो यही हुआ था” नाम से परिमल प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित कराया।शरद का “अमरू का कुर्ता” नामक एक नाटक भी छपा है। आज दोनों किताबें बाजार में नहीं हैं ।
शरद को मरणोपरांत 1983 का भारत भूषण सम्मान दिया गया । सम्मान के निर्णायक थे नामवर सिंह जी । पहले आप शरद की वह कविता पढ़े फिर नामवर जी का मत।
तय तो यही हुआ था
सबसे पहले बायाँ हाथ कटा
फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए
टुकड़ों में कटते चले गए
खून दर्द के धक्के खा-खा कर
नशों से बाहर निकल आया था
तय तो यही हुआ था कि मैं
कबूतर की तौल के बराबर
अपने शरीर का मांस काट कर
बाज को सौंप दूँ
और वह कबूतर को छोड़ दे
सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था
शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराजू पर था
और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था
हार कर मैं
समूचा ही तराजू पर चढ़ गया
आसमान से फूल नहीं बरसे
कबूतर ने कोई दूसरा रूप नहीं लिया
और मैंने देखा
बाज की दाढ़ में
आदमी का खून लग चुका है।
इस कविता पर नामवर जी ने अपने मत में कहा था-
“जब तक शरद बिल्लौरे जीवित रहे उनका लिखा हुआ बहुत कम प्रकाशित हो पाया था, किन्तु उनकी कुछ छिटपुट कविताओ से उनकी विलक्षण प्रतिभा का अहसास होता था। केवल पच्चीस वर्ष की अल्पायु में उनकी दुखद मृत्यु के दो वर्ष बाद जब उनका संग्रह तय तो .ही हुआ था प्रकाशित हुआ तब हिंदी जगत् इस अपूरणीय क्षति का पूरी तरह अंदाजा लगा सका। स्पष्ट है कि स्वर्गीय शरद बिल्लौरे आज के युवा कवियों में एकदम अलग मिजाज, भाषा और शैली रखते थे। उनकी इस कविता में आज के भूखे आदमी के यातनापूर्ण संघर्ष तथा सब कुछ दे चुकने के बाद भी रक्त मांस की भूख न मिटा पाने की मर्मान्तक मोहभंग को जिस तरह एक पौराणिक आख्यान में केवल संकेत से जोड़ा गया है वह वर्तमान और अतीत के संबंधों और अर्थों को नए और प्रासंगिक ढंग से आलोकित करता है।”
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8 comments:
तय तो यहीं हुआ था...जबरदस्त कविता है। कल की कहानियां आज प्रतीक बनकर विडंबना को कैसे उद्घाटित कर सकती हैं, इसका सबूत है ये कविता। पहली बार इस कवि से परिचित कराने के लिए धन्यवाद।
मुझे उम्मीद है कि ऐसी कुछ और कविताओं से परिचित होने के बाद आप भी हिंदी कविता के पक्षधर हो जाएंगे। यानि सब कूड़ा ही नहीं है।
धन्यबाद बोधिसत्व जी । आपने एक बहुत अच्छे कवि और कविता से सबको परिचित कराया। शरद बिल्लोरे थोड़े ही समय में बहुत सी और बहुत अच्छी रचनायें दे गये हैं । वे मेरे परमप्रिय मित्र शिवअनुज बिल्लोरे के छोटे भाई थे । उनकी स्मृति में हम लोग रहटगाँव में प्रति वर्ष कविसंमेलन करते हैं और उनकी कविताओं से लोगों को परिचित कराते हैं।
शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
अच्छी लगी कविता और उसकी सच्चाई ...धन्यवाद
कटारे जी,
सादर प्रणाम
आप की रचना बहुत अच्छी लगी । बस पहली पंक्ति से ख हटालें।
आप से एक निवेदन है।
मेरे पास कभी (तय तो यही हुआ था) कि एक प्रति थी। पर वो गुम गई है। मैंने शरद जी के तमाम जानकारों से उस संग्रह की मांग की पर नहीं मिला। उनके नामोल्लेख की यहां कोई आवश्यकता नहीं समझता।
आप कैसे भी क्या
1- वह संग्रह मुझे दिला सकते हैं
2- क्या आप शरद की एक जैसी भी फोटो हो मुहैया करा सकते हैं।
3-उनके परिजनों का पता भी दें,
मुझे शरद पर एक लेख लिखना है, कुछ कविताए याद हैं लेकिन मात्र स्मृति के सहारे लेख लिखना ठीक नहीं रहेगा।
मेरा मो.नं.
0-9820212573
भाई यह काम हो जाएगा तो अच्छा रहेगा। आप का उपकार मानूँगा।
शरद बिल्लौर और उनकी कविता से परिचय कराने के लिये शुक्रिया।
आदरणीय बोधिसत्व जी नमस्कार
बहुत शीघ्र ही शरद का फोटो और परिवार का परिचय भेजता हूँ । पुस्तक भी उपलब्ध है ।किस पते पर भेजना है ? फोन पर उनके अग्रज से बात कराऊंगा। उन्हें जब मैंने आपके विषय में बताया तो बहुत द्रवित हो गये । आपको किसी कार्यक्रम में आमन्त्रित करना चाहते हैं ।
कटारे भाई
आप की बातों से मेरा मन भी द्रवित है। आप भाई साहब को मेरा पता दें । आप लोग जो कहेंगे करूँगा।
बोधिसत्व
श्री गणेश कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी
सेक्टर नं.3,प्लॉट नं.223, फ्लैट नं.3
चारकोप, कांदिवली (पश्चिम) मुंबई-400067
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