Monday, July 30, 2007

काम से काम रखनेवालों सावधान

लक्ष्मीकान्त वर्मा जी ने सुनाई यह कथा


अपने इलाहाबाद की बात है। एक दिन किसी वजह से मैं बहुत चटा हुआ कॉफी हाउस गया पर वहाँ भी राहत नहीं मिली । आनन्द नहीं आया । बाहर निकल रहा था कि नई कविता वाले लक्ष्मीकान्त वर्मा जी मिल गये। पूछा कि मैं उदास क्यों हूँ। मैंने कुछ गोलमोल बताया तो वे अपने साथ फिर अंदर ले गये। कॉफी और इडली का ऑर्डर दिया और कहा कि एक लोक कथा सुनो।

एक राज्य में एक किसान रहता था। वह सिर्फ काम से काम रखता था। उसके पास काम भर की खेती लायक जमीन थी, एक गाय थी जो दूध देती थी। कोठार में थोड़ा अन्न बचा कर रखा था, भुसौल में जानवरों के लिए थोड़ा भूसा था । तभी उसके राज्य में भयानक अकाल पड़ा। उसने अपने परिवार वालों को अपने एक दूर के नातेदार के यहाँ भेज दिया। राज्य में लोग और पंछी पखेरू सब भूख प्यास से मरने लगे। पर वह वह दूध दही मक्खन रोटी में मस्त था। लोग पूछते कि कैसे हो तो बताता कि सब अच्छा है। वह अकाल की छाया से बाहर था। उस पर लोगों के दुख दर्द का कोई असर नहीं था। पर अकाल की छाया उस पर भी पड़ी। पहले भूसा खतम हुआ, फिर गाय मरी, फिर अनाज चुक गया। भूखों मरने लगा। फिर किसी ने पूछा कि क्या हाल है तो उसने कहा बड़ा भारी अकाल पड़ा है। लोग बेहाल हैं, भूखों मर रहे हैं। बड़े बुरे दिन हैं भैया। और वह रोने लगता पर लोग चुपचाप खिसक जाते।

कथा खतम होने तक मेज पर सब कुछ रखा जा चुका था। पेट भर जाने के बाद उन्होने कहा कि जो सिर्फ अपने से काम रखते हैं उनके दुख और सुख दोनो को लोग अपना नहीं मानते।
लक्ष्मीकान्त जी के कई कविता संग्रह और उपन्यास छपे हैं। जिनमे एक काफी प्रसिद्ध हुआ था अतुकांत। यह ज्ञानपीठ दिल्ली से छपा है। उनकी कुछ पंक्तिया पढ़े, जो आज के माहौल पर एक दम लागू होती हैं-

गणेश बिस्कुट चबा रहे हैं
वृहष्पति ट्यूशन पढ़ा रहे हैं
वीरों की पोशाकें पहन ली हैं बाजेवालों ने।

7 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

किसान काम से काम रखने वाला नहीं था. वह मायोपिया ग्रस्त था. ऐसे सोच वाले चारवाक के वंशज हैं और आजकल बहुत बढ़ रहे हैं! :)

लक्ष्मीकान्त जी की कविता की पंक्तियां तो बहुत सशक्त हैं.

बोधिसत्व said...

आगे कभी लक्ष्मीकान्त जी की कविताएं चढाऊँगा।
उनका मुझ पर अकारण बहुत स्नेह था, उस स्नेह की याद में बिंदु जी महाराज की निम्नांकित पंक्तियाँ याद आती हैं-
न जाने कौन से गुन पर दयानिधि रीझ जाते हैं।
बहुत उदार थे लक्ष्मीकान्त जी और कथाओं के भंडार। कल एक लोक कथा और पढ़ने को मिलेगी।

चंद्रभूषण said...

लक्ष्मीकांत वर्मा जी की पंक्तियां जानदार हैं। मेरी उनसे कोई वाकफियत नहीं रही लेकिन मेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार मनोहर नायक वर्मा जी के अंतरंग थे। उन्हीं से वर्मा जी के बारे में काफी कुछ सुनने को मिलता था। आपकी चौपाल में वर्मा जी का कहा कुछ और देखने का इंतजार रहेगा।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

पढ़ते रहिए बोधि भाई. मजा आ गया. लेकिन एक बात ज्ञान जी से. शायद उन्होने चार्वाक को सही संदर्भों में समझा नहीं है. यावज्जीवेत वाले श्लोक को लेकर उनके बारे में जो धरना प्रचलित है उसी आधार पर ज्ञान जी की भी सोच आधारित लगती है. मेरा ख़याल है चार्वाक पर आपकी की जानकारी अच्छी होगी. अगर चार्वाक परम्परा पर कभी कुछ लिख सकें तो .... प्रतीक्षा रहेगी.

ALOK PURANIK said...

भईया बोधिसत्वजी, हमें आप निर्लिप्तों से कुछ ज्यादा परेशान से दीख रहे हैं। यह आख्यान भी निर्लिप्त श्रंखला का सा ही दीख रहा है। जरा खुलकर नाम तो बताइये निर्लिप्तों के, अभी पंगेबाजजी को लगाते हैं उनके पीछे।

Rajesh Tripathi said...

सर जी यह पुरानी पुरानी कहानी, कविता, संस्मरण पढ़ कर हम नये लोगो को ज्ञान मिलता हैं कभी कभी अपनी भी कुछ कविताएं पढ़ने का मौका दे.

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया है यह संस्मरण!