Friday, August 3, 2007

मथुरा में बुद्ध की दुर्दशा

मथुरा नहीं जाना !


इस घटना का पूरा पाठ मैंने भगवान बुद्ध की किसी जीवनी में पढ़ा था। याद नहीं आ रहा है कि कहाँ पर वाकया पूरा याद है। बुद्ध बूढ़े हो गये थे। शरीर हड्डी का ढ़ांचा भर रह गया था। जरा ने उन्हे थका दिया था। उनके साथ बाकी शिष्य थे और आनन्द भी । आप सब तो जानते ही हैं कि आनन्द महात्मा बुद्ध के मौसेरे भाई भी थे और मुह लगे शिष्य तो वे थे ही । वे हमेशा बुद्ध के साथ रहे। बिल्कुल छाया की तरह। आनन्द बुद्ध के इतने करीब थे कि वे कैसे भी सवाल उनसे कर लेते थे। और बुद्ध उनका उत्तर देते ही थे।

वर्षा बीत चुकी थी। दोनों भाई या गुरु शिष्य वैशाली के पास किसी वन में विश्राम कर रहे थे। साँझ हो गई थी और चलते-चलते बुद्ध थक भी गये थे। आनन्द के लिए यह थकान दुखी करने वाली थी। दर असल वे बुद्ध की थकान में उनका अंत करीब आया देख रहे थे। हमेशा की तरह आनन्द ने एक अटपटा सवाल किया। आनन्द ने पूछा भगवन ऐसा भी कोई नगर या राज्य है जिसमें आप न जाना चाहते हों। जिसमें जाना निषेध करते हों। बुद्ध आँखें बंद किये लेटे रहे। कुछ देर बाद बोले कि मैं मथुरा नहीं जाना चाहूँगा आनन्द। आनन्द चौंक पड़े और पूछा कि मथुरा से परहेज क्यों। बुद्ध ने कहा कि मथुरा न जाने के कई कारण हैं। एक तो वहां के रास्ते पथरीले और ऊबड़-खाबड़ हैं दूसरे वहाँ के लोग भिक्षा नहीं देते। तीसरे स्त्रियाँ परछत्ते से गंदा पानी और कूड़ा-कर्कट फेंकती हैं। मामला यही तक रुक जाता आनन्द तो कुछ नहीं था। मथुरा के बच्चे और लोग पीछे से पत्थर मारते हैं और कुत्तों को लुहकार देते हैं । ऐसे में ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्ते पर दौड़ कर भागना मुश्किल हो जाता है। कभी–कभी कुत्ते काट भी लेते हैं। इसलिए आनन्द मैं मथुरा नहीं जाना चाहूँगा।

आपबीती सुना कर बुद्ध मथुरा में हुई दुर्दशा को भुलाने का यत्न करने लगे। उनकी आपबीती सुन कर आनन्द का अंतर्मन बिलख उठा। उनकी आँखे भर आईं। बुद्ध ने कहा कि रात इसी वन में बिताएंगे । आनन्द वन में बाकी का इंतजाम करने में लग गये।

5 comments:

अफ़लातून said...

यह हुई न 'बोधिसत्त्व' की कथा ! धन्यवाद।

बोधिसत्व said...

अफलातून भाई
बुद्ध के जीवन की ऐसी कितनी ही घटनाएं हैं जिनको पढ़कर हम उनके संघर्ष को समझ सकते हैं कि कैसे माहौल में बुद्ध ने धम्म का प्रचार किया । क्यो-क्या नहीं सहा और ऐसा कौन सा आरोप हो सकता है जिसका सामना बुद्ध को नहीं करना पड़ा।
अगर आप लोगों ने पढ़ा तो आगो और कथाए जोड़ूँगा।

अभय तिवारी said...

ऐसी कथाएं और चाहिए.. जो मैं श्रुति परम्परा में सुनता रहा हूँ मित्र आप से.. अब लिपि परम्परा में पढ़्ने की भी इच्छा है..

अनिल रघुराज said...

जो बुद्ध को कभी होने का डर सता रहा था, वह उत्तर प्रदेश में चुनावों के दौरान जय गुरुदेव के चेलों के साथ हो चुका है। ये चेले टाट पहनकर चुनाव प्रचार में जाते थे तो कुत्ते उनके टाट के पीछे पड़ जाते थे, उन्हें खूब दौड़ाते थे। फिर तो जय गुरुदेव के प्रत्याशियों ने चुनाव आयोग से शिकायत कर डाली कि विपक्षी उनके पीछे कुत्ते दौड़ा रहे हैं। इस वाकये को सुनाने का मेरा मकसद कहीं से भी बुद्ध के संघर्ष को कम आंकने का नहीं है।

Sanjeet Tripathi said...

शुक्रिया! ऐसी ही "बोधि" कथाओं का और इंतजार रहेगा!