Tuesday, August 14, 2007

ले लो तिरंगा प्यारा




तिरंगा प्यारा


आज पंद्रह अगस्त
ईसवी सन दो हजार सात है
मैं घर से अंधेरी के लिए निकला हूँ
कुछ काम है
अभी मिठ चौकी पर पहुँचा हूँ भीड़ है
ट्रैफिक जाम है
घिरे हैं गहरे काले बादल आसमान में
कुछ देर पहले बरसा है पानी
सड़क अभी तक गीली है।


बहुत सारे बच्चों
छोटे-छोटे बच्चों के साथ
एक बुढ़िया भी बेच रही है तिरंगे।
एक दस साल का लड़का
एक सात साल की लड़की
एक तीस पैंतीस का नौ जवान बेच रहा है झंडा
इन सब के साथ ही
यह बुढ़िया भी बेच रही है यह नया आइटम।


उम्र होगी पैंसठ से सत्तर के बीच
आँख में चमक से ज्यादा है कीच
नंगे पाँव में फटी बिवाई है
यह किसकी बहन बेटी माई है ?
यह किस घर पैदा हुई
कैसे कैसे यहाँ तक आई है ?


परसों तक बेच रही थी
टोने-टोटके से बचानेवाला नीबू-मिर्च
उसके पहले कभी बेचती थी कंघी
कभी चूरन कभी गुब्बारे।


कई दाम के तिरंगे हैं इसके पास
कुछ एकदम सस्ते कुछ अच्छे खास

उस पर भी तैयार है वह मोल-भाव के लिए
हर एक से गिड़गिड़ाती
कभी दिखा कर पिचका पेट
लगा रही है खरीदने की गुहार
कभी दे रही है बुढ़ापे पर तरस की सीख
ऐसे जैसे झंडे के बदले
मांग रही है भीख।


मैं आगे निकल आया हूँ
पीछे घिरे हैं काले-काले बादल
बरस सकता है पानी
भीड़ में अलग से सुनाई दे रही है
अब भी बुढ़िया की गुहार थकी पुरानी।

सड़क के कीचड़ पांक में सनी बुढ़िया
कलेजे से लगा कर
बचा रही रही होगी झंडे की चमक को
और पुकार रही होगी लगातार
हर एक को-

‘ले लो तिरंगा प्यारा ले लो’

12 comments:

Pankaj Oudhia said...

'सड़क के कीचड़ पांक में सनी बुढ़िया
कलेजे से लगा कर बचा कर
बचा रही रही होगी झंडे की चमक को
और पुकार रही होगी लगातार
हर एक को-

‘ले लो तिरंगा प्यारा ले लो’'


बहुत सुन्दर और ह्र्दयस्पर्शी रचना। उम्मीद है बूढी माँ को कल अच्छे पैसे मिले होंगे। आइये उनके लिये दुआ करे।

आपको स्वतंत्र्र्ता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए।

अफ़लातून said...

बोधिसत्व ,
कविता अच्छी है।आज लंका चौराहे पर करीब १७ साल का एक लड़का भी तिरंगे बेच रहा था-जालीदार सफ़ेद टोपी पर भी उसने तीनों रंग की धारियाँ रँगी थी। मैंने पूछा ,'टोपी भी बेच रहे हो?' उसने कहा,' नहीं।अपनी टोपी रंग ली है।

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सही भैय्या, बहुत सही!!
यह पढ़ने के बाद कहने का मन नही हो रहा कि
स्वतंत्रता दिवस की बधाई व शुभकामनाएं

Gyan Dutt Pandey said...

करुणा और उमंग,

स्वतंत्रता दिवस एक
हैं कई रंग!

sanjay patel said...

मेरे शहर के चौराहे पर खडे़ बच्चे का इंटरव्यू:
-क्या कर रहे हो
+झंडा बेच रहा हूँ
-क्यों ?
+कुछ पैसा कमा लेंगे बाबूजी
-घर में कोई और नहीं कमाने वाला ?
+अम्मा बरतन मांजती है..पिता चल बसे.
-और कौन कौन है घर में
+इक छोटी बहन है
-वह कहाँ है
+अगले चौराहे पर झंडा बेच रही है.
-कितने पैसे कमा लोगे शाम तक
+वही कोई..पच्चीस तीस रूपया
-पढ़ते क्यों नहीं
+फीस कहाँ से लावै
-कल (१६ अगस्त को) को क्या बेचोगे
+यहाँ पास में एक होटल में काम करता हूँ.
कल वही साफ़ सफ़ाई..सेठ की मार..फ़टकार
-आज क्यों बिक रहे हैं झंडे
+देश का तेवार (त्योहार) है
_तुम नहीं गए कहीं झंडा फ़हराने
+सुबह से हम ही तो फ़हरा रहे हैं..सबसे पहले आ गए थे यहाँ ...रात को दो बजे होटल से छूटे..खूब सराब बिकी थी कल सो देर हो गई..माँ को कह कर आए थे ...रात को घर नहीं गए..दिन में झंडे खरीद लाए थे..रात यहीं होटल के शटर के बाहर गुजारी..और चौकीदार दादा ने उठा दिया था सुबह पहले..सो झंडा लेकर खड़े हैं तब से..
-खाना वाना ?
+आज होटल बंद है..सो खाया नहीं..दिन में नेता लोगन निकरे थे इहाँ से वो मिठाई खिला दिये...बस चल गया काम.

-पैसे का क्या करोगे ?
+राखी आ रही है न बहना को एक टी सरट दिलवाने का वादा किया हूँ.

आगे पूछा नहीं गया इस ख़ाकसार से..आप भी इजाज़त दें...चलते चलते सुनाई दिया उसी बच्चे का स्वर...
लो झंडा ले लो...भारत माता का झंडा.

बोधिसत्व said...

दर्द भाई 60 साल में बदलाव हुए हैं पर जो अमीर थे वे और अमीर हुए हैं और जो गरीब थे वे और गरीब।
अफलातून जी उस लड़के को सलाम कहें जो आज भी अपनी टोपी नहीं बेचना चाहता।
अच्छा है उसने किसी किसी तरह अपनी टोपी या पगड़ी बचा रखी है।
ज्ञान जी सचमुच स्वतंत्रता के कई रंग हैं।
संजीत भाई फिर भी स्वतंत्रता का अपना महत्व है
बधाई देने में क्या जाता है दें।
संजय भाई आपने तो दूसरी और अच्छी कविता रच दी. आप को बधाई

mamta said...

स्वतंत्रता दिवस की पावन संध्या पर हार्दिक बधाई।

VIMAL VERMA said...

ये तो तय है कि झंडे की चमक अब फीकी पड़ती जा रही है,देश के "कर्णधारों" की चमक और बढी है,पर आपकी कविता बहुत कुछ कह डालती है- अच्छी कविता के शुक्रिया,

आभा said...

इन समस्याओं का केया होगा। कविता लिखने से तो हल नहीं होंगी। वैसे कविता अच्छी है।

बोधिसत्व said...

विमल भाई लिखते तो जा रहे पर कभी-कभी लगता है कि लिखने से कुछ हो भी रहा या नहीं।
मन चट जाता है और तगता है कि कुछ और करते जिससे कुछ बदल पाता। पर क्या करें कि कुछ बदले। लगता है भटक गये हैं। कहीं पहुँच नहीं रहे हैं बस चल रहे है।
आप को कविता अच्छी लगी उसके लिए बधाई देते भी लज्जित हूँ।

VIMAL VERMA said...

बोधि भाई हमको आपको अपना अपना काम ही तो करना है.. इस मुगालते में न रहे कि कुछ बदल नहीं रहा.. ये पल जो इस वक्त हमारे बीच मेंहै दुबारा नही आयेगा.. और दुनिया बहुतै बड़ी है मतलब कि बहुतै बडी़ है..अब कम से कम एक बात अच्छी है कि अपनी बात कहने का मंच तो आपने तलाश लिया है लिखिये मन की बात तलाशिये अपने मन के लोग...देख नही रहे आपके स्थाई पाठकों की संख्या पूरी दुनिया मे फैल रही है ऐसा पहले तो नही था.. लिखिये,लोग अच्छी रचना वाकई पढ्ना चाहते हैं...

Priyankar said...

मन का दर्पण बहुत साफ़ रखने की कोशिश करता हूं . पर तिरंगे के स्वप्न और कीच पांक में सनी बुढिया की आंखों के बीच की दूरी बढती ही जा रही है . इस देश पर अपना अनन्य भरोसा बचाए और बनाए रखना चाहता हूं पर सच्चाइयां बहुत कड़वी हैं . मन बहुत बेचैन रहता है .ऊपर से आपकी यह कविता उस बेचैनी को और बढा देती है . आंखें मींच भी लूं तो भी झपट्टा मारने वाला बिलार तो सामने से जाने से रहा .

बहुत सच्ची और बेचैन करने वाली रचना . शायद इस बेचैनी से ही कोई तोड़ निकले .