बाबा नागार्जुन कहते थे कि वे कविताएँ सुहागन या सधवा होती हैं जो कहीं पाठ्यक्रम में लग जाएँ। इसका मतलब यह नहीं कि बाकी कविताएँ अभागन या विधवा होती हैं। यहाँ चिपकी मेरी कविता तमाशा बाबा के उस कथन के आधार पर फिलहाल सुहागन कविता है। मेरी दो कविताएँ विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में 1993-94 में लगाई गई थीं । पता नहीं अभी है या नहीं। आप भी पढ़ें ।
तमाशा
तमाशा हो रहा है
और हम ताली बजा रहे हैं
मदारी
पैसे से पैसा बना रहा है
हम ताली बजा रहे हैं
मदारी साँप को
दूध पिला रहा हैं
हम ताली बजा रहे हैं
मदारी हमारा लिंग बदल रहा है
हम ताली बजा रहे हैं
अपने जमूरे का गला काट कर
मदारी कह रहा है-
'ताली बजाओ जोर से'
और हम ताली बजा रहे हैं।
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8 comments:
कविता लगी रहे ,सधवा रहे ।
क्या बात है...और हम ताली बजा रहे हैं, मैं भी ताली बजा रहा हूं आपकी कविता पर।
आप कविता छपा रहे हैं.. हम टिप्पणी सजा रहे हैं.. :)
ये सच्चाई है.. ये मीडिया है... वही मदारी है.. ठीक सोच रहा हूं?
नीरज जी सिर्फ मीडिया ही क्यों हम सब क्यों नहीं भाई। हम सब मदारी हैं। किसी भी बात पर ताली बजाने लगते हैं।
आज तक कविता के लगने और निकलने का गणित नहीं समझ पाया हूँ। पाठ्यक्रम बनाने वाले चाहें तो तो कुछ भी हो जाता है। कोई भी कविता सधवा हो कर विधवा हो सकती है। मेरी कुछ और सुहागन कविताएँ है कभी फिर छापूँगा ।
आपकी सारी कविताओं के सुहाग बनें रहें।
आपकी सारी कविताओं के सुहाग बनें रहें।
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