Wednesday, August 15, 2007

दूबे मेरी इज्जत लूटना चाहता था


बच्चों को बचाएँ

बचपन की बहुत सारी बाते ऐसी हैं जिन्हे नहीं लिखा या कहा जा सकता। कुछ इसलिये कि जरूरत नहीं है और कुछ इसलिए कि शायद अभी समय नहीं आया है। पर एक वाकया उसी सुरियाँवा का है जिसका जिक्र मेरी कई कविताओं और ज्ञानदत्त की मानसिक हलचल और अभय तिवारी के निर्मल आनन्द में भी कुछ एक बार आया है। बात 1982 के सितंबर की है। मैं आठवीं पास कर नौवीं में गया ही गया था। एक दम कच्चा कोमल सुंदर सुकुमार पर मिलनसार था । मुझे नहीं याद आता कि बचपन में मैं कहीं या कभी हिचकिचाया होऊँ। यह खुल कर मिलना और बेधड़क पेश आना तब से अब तक तो चला ही आ रहा है। आगे भी शायद चलता रहे।

उस साल अकेले मेरे गाँव से कुल 21 लड़के सुरियाँवा के सेवाश्रम इंटर कॉलेज में दाखिल हुए थे। कुछ उसके पहले से भी पढ़ रहे थे। पर उस दिन पता नहीं क्या बात थी कि जब कॉलेज से निकला तो बाकी लड़के जा चुके थे। पर डर भय की कोई बात नहीं थी। अपनी पुरानी रेले सायकिल पर आरूढ़ दनदनाता चला जा रहा था । स्टेशन के पास वाली क्रासिंग पर पहुँचे कि मेरी सायकिल का फ्रेम टूट गया । गिरे पर चोट नहीं आई।

अब क्या करें। पिता जी के परिचित कराए हुआ बुद्धू मिस्त्री की दूकान पर गये तो वह बोले कि सायकिल तो कल ही मिल पाएगी । अब क्या करूँ। घर कैसे जाऊँ। बाजार में आस पास के गाँव वाले भी आते थे । उसी में एक थे मल्हे दूबे। पड़ोस के गाँव के एक बड़े बाप के बेटे। वे दिख गये अपनी बुलट मोटर सायकिल पर। मेरे पास आये और बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेर कर पूछा कि यहाँ क्यों बैठे हो। मैंने सायकिल की बात बताई तो वे बोले कि चलों मैं तुम्हें पहुँचा देता हूँ। मैं खुश कि मजे से घर पहुँच जाऊँगा।

वे मुझसे काफी बड़े थे। मेरे एक पड़ोसी के यहाँ आते थे। मैं उन्हे भैया बोलता था। और वे मुझे हमेशा प्यार दुलार करते थे। जब भी मिलते चूमा-चाटी की कोशिश जरूर करते। कुछ ना कुछ खिलाते। जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि तब मैं काफी कोमल और फिल्मी भाषा में कहूँ तो चिकना सा बच्चा था। भाभियाँ नहला कर स्कूल भेजती थी। कभी-कभी काजल भी लगा देती थीं। न भी लगाती तो भी मेरी आँखे थोड़ी कजरारी वैसे भी थीं आज भी हैं। मैं मल्हे के पीछे स्कूटर पर बैठ गया। मोटर सायकिल गाँव की तरफ चल पड़ी। लेकिन अचानक मल्हे ने कहा कि उनकी कोई दवा सरकारी अस्पताल के डॉक्टर के पास रह गई है। मल्हे ने मोटर सायकिल मोड़ दी । और सीधे डॉक्टर के घर पहुँचे। साथ में मैं भी लगा था। मजेदार बात यह कि उनके पास डॉक्टर के घर की चाभी थी। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि उनके पास डॉक्टर के घर की चाभी कैसे थी किस वजह से थी। फिलहाल मैं भी दवा उठाने मल्हे के पीछे अंदर गया।

इस बीच में दूबे जी मुझसे कुछ अपने घर और कुछ बनने वाले सिनेमा हाल की बात कर चुके थे। उन्होने यह वादा भी कर दिया था कि मेरे लिए हर फिल्म का हर शो फ्री रहेगा। बात कुछ ऐसी थी कि मुझे बहुत अच्छी लग रही थी। उसके पहले मैंने सिर्फ एक फिल्म देखी थी जय संतोषी माँ । वह भी अपनी माँ कि गोद में बैठ कर।

दवा उठाने के बाद दूबे जी का पेट खराब हो गया। फिर उन्होने पानी पिया और दवा भी खाई। फिर उन्होने कहा कि क्या वे थोड़ी देर आराम कर सकते हैं। मुझे क्या दिक्कत हो सकती थी मैंने कहा कि कर लें । फिर दूबे जी वहीं सोफे पर लेट गये। फिर उनकी आँखों पर धूप पड़ने लगी तो उन्होने मुझसे कहा कि क्या मैं खिड़की बंद कर सकता हूँ। मैंने खिड़की बंद कर दी। दरवाजा दूबे जी घर में घुसते ही बंद कर चुके थे।

जब सब कुछ बंद हो गया तो दूबे जी खुले। पहले उनका दिल खुला फिर जबान खुली। फिर उनका पायजामा खुला। फिर उनका हाथ खुला। आज भी मुझे याद है कि कैसे दूबे जी ने प्यार से मेरा सिर फिर माथा फिर गालों को सहलाया फिर उनका हाथ मेरे हाफ पैंट के बटन पर गया। मामला अब तक मैं पूरा समझ गया था। पर यह नहीं समझ पा रहा था कि करूँ क्या। मैं उससे लड़ नहीं सकता था। वह पूरा पहलवान था। मुझे मेरी इज्जत लुटती सी दिखी। मैं बचाव का रास्ता खोजने में उलझा था और वे मेरे बटन में। वह एक दो बटन ही खोल पाए थे कि मेरे मुह से निकला कि मुझे टीबी है। मैंने अपने डॉक्टर ताऊ से टीबी के बारे में सुन रखा था। और यह जानता था कि यह खतरनाक छूत की बीमारी है। मेरे मुँह से टीबी का नाम सुनते ही दूबे जी का श्रृंगार रस भंग हो गया। वे मुझे एक दम से छोड़ कर अलग हो गये। बेमन से अपना पायजामा चढ़ाने लगे। किसी तरह इतना ही पूछ पाए कि कब से है यह बीमारी और दवा ले रहे हो कि नहीं। मैंने कहा कि एक शादी में गया था वहीं खराब खाना खा लिया था तब से ही है। अब तक मैं अपना बटन बंद कर चुका था। न हुई टीबी ने मेरी लाज रख ली। दूबे जी हाथ धोने चले गये और मैं बिना कुछ बोले बाहर निकल गया।

6 किलोमीटर पैदल चल कर बाकी बच्चों से दो घंटे देर से घर पहुँचा। माँ परेशान थी कि कहाँ रह गया। घर पहुँचते ही उसने पूछा कहाँ रह गये थे। मैंने सायकिल के टूटने और पैदल आने की बताई। लेकिन दूबे जी की बात नहीं बोल पाया। माँ ने मेरे थके पैरों में तेल लगाया । बाद में मेरी मझली भाभी ने भी मेरा देह मर्दन किया और यह वादा किया कि कल तुझे नई सायकिल मिलेगी। मैं थका था सो जल्दी सो गया। अगले दिन मेरे बड़े भैया मुझे लेकर बाजार गये। नई रेले सायकिल मेरे सामने कसी गई। तब करीब 1120 रुपये में पड़ी थी। पुरानी सायकिल भी बन चुकी थी। पर उस दिन मैं अपनी चमचमाती रेले से घर लौटा।

दो एक दिन बाद दूबे जी दिखे कुछ डरे कुछ परेशान से । पर न वो बोले न मैं। दस साल के बाद एक दिन एक रामायण के आयोजन में दूबे जी बरामद हो गये। तब तक उनका सिनेमा घर बन चुका था और मैं शरीर बल में दूबे जी से कुछ बढ़ चुका था। दूबे जी तब तक बड़े नेता बन गये थे। सब उनकी आव भगत में लगे थे । कि मैंने उनसे पूछा कि मुझे पहचान रहे हैं कि नहीं। दूबे ने काफी लिर्लज्ज सा हाँ में उत्तर दिया और मैंने उन्हे कस कर एक तमाचा मारा। हाँ-हाँ के बीच से दूबे जी ने रास्ता लिया। पिता जी ने पूछा कि क्या बात थी । मैंने कहा कि एक हिसाब बाकी था।

उस प्रसंग को लेकर लज्जित मैं तब भी नहीं था अब भी नहीं हूँ। हो सकता है कि आप का सामना ऐसे किसी दूबे जी से न पड़ा हो। पर आप के आस पास बच्चे होंगे जिनके फेर में कोई ना कोई दबा हुआ दूबे आस-पास चक्कर काट रहा होगा। मेरा इतना ही निवेदन है कि आप अपने अंदर किसी दूबे को न पैदा होने दें साथ ही अपने मासूम बच्चे के आस-पास भी दूबे जैसे किसी को न फटकने दें। बस ।
नोट- ऊपर के दो चित्र जब मैं आठवीं और नौवीं में पढ़ता था। पहला प्रकाश स्टूडियो और दूसरा रूपतारा स्टूडियो, सुरियाँवा में खिचे हैं।

15 comments:

ePandit said...

दुबे जैसे बाल यौन शोषक लोग समाज के नाम पर कलंक हैं। आपकी तारीफ करनी होगी कि आपने उससे बचने के लिए कैसे दिमाग का इस्तेमाल किया।

आपके निवेदन में मुझे भी शामिल समझें।

अफ़लातून said...

बोधीसत्वजी,
इस ऐतिहासिक पोस्ट के लिए बधाई।आपका अनुभव इसे ऐतिहासिक नहीं बनाता,चिट्ठे पर देना ऐतिहासिक काम हुआ।मल्हे दूबे अपने रुझान वाले समवयस्क साथी क्यों नहीं ढूँढ पाते?
दरजा आठ में मेरे मौसा ने रैले दिलाई थी तब ३२२ रुपए की थी !
आपके चिट्ठे पर अभी गैर ब्लॉगर पाठक टिप्पणी नहीं दे सकते कृपया उसका विकल्प खुला रखें।

अभय तिवारी said...

ऐसी कहानी सभी के पास एक दो होंगी..आपने शर्म की बाधा को पार कर के इसे सार्वजनिक किया.. बड़ी बात है.. यौन शिक्षा में भी ऐसी ही शर्म आड़े आती है.. और बच्चों के ऐसे दुष्टों से बचाने में रुकावट बनी रहती है..
आप ने प्रत्युत्पन्नमति की सहायता से खुद को बचा लिया.. मगर बहुत सारे दूसरे मासूम बच्चे नहीं बच पाते.. और जीवन भर की ग्रंथियों का शिकार बन जाते हैं..शायद यौन शिक्षा उन्हे बचाने में कामयाब हो सके..

Jitendra Chaudhary said...

सच है, इस तरह के किस्से हर किसी के जीवन मे घटित हुए होंगे। बाल यौन शोषण, अक्सर पहचान वाले व्यक्ति द्वारा ही होता है।

आपके साहस और बुद्दि की तारीफ़ करनी पड़ेगी। ऐसे दुबे आपको हर गली नुक्कड़ पर मिल जाएंगे, ऐसे लोगो को सबक सिखाना बहुत जरुरी है।

आप अच्छा लिखते हो, आज शायद पहली/दूसरी बार इधर आना हुआ, इस लेखन को लगातार जारी रखिए।

परमजीत सिहँ बाली said...

पहले तो आपकी बुद्धि व साहस की दाद देते हैं।ऐसे लोग बहुत हैं हमारे चारों ओर।ऐसे लोगो को तो नंगा कर के चौराहों पर जूते मारने चाहिए।ताकि दूसरों को भी सबक मिले।

अनामदास said...

अभय भाई ने सही कहा. बहुत दुबे और बहुत थप्पड़ बाक़ी हैं. हाँ, लिख डालने के लिए बहुत बधाई और आभार. इन मुद्दों पर चर्चा से कतराना हमारी फितरत बन गई है, उसे तोड़ने की हर कोशिश का स्वागत होना चाहिए.

Priyankar said...

बहुत साहसी,बेहद ज़रूरी और सतर्क करने वाली पोस्ट . हम जो अब बच्चों के मां-बाप हैं उन्हें अतिरिक्त सावधानी तो बरतनी ही होगी .बच्चों को अच्छे और बुरे स्पर्श में फ़र्क करना सिखाना होगा . विदेशों में यह काम आसान है पर हम बहुत ही भावप्रवण और स्पर्श करके प्रेम जताने वाला समाज हैं अतः यह काम मुश्किल हो जाता है . पर करना तो होगा ही .

यौन शिक्षा बहुत ज़रूरी है . पर हमारे यहां काम कम और हो हल्ला ज्यादा होता है. लोग 'यौन' नाम से ही बिदक जाते हैं . क्या इसे पाठ्यक्रम में स्वास्थ्य शिक्षा के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता ?

कुछ वर्ष पहले पिंकी विरानी की पुस्तक 'बिटर चॉकलेट' पढी थी और माथा सुन्न-सा होने लगा था घर के भीतर के दुष्चक्र को देखकर . इस पोस्ट से वह किताब पुनः दिमाग में घूम गई .

Gyan Dutt Pandey said...

यह लिख कर बहुत अच्छा किया. समस्या पर चर्चा तो हो.

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

बिना हिचक ऐसे अनुभव बच्चों तक पहुंचना चाहिये ताकि वे ऐसे खतरों से सावधान रहे व खुद को बचायें. ज़ब में आई आई टी कानपुर का विद्यार्थी था, तब मेरे होस्टल मे केंटीन चला रहे ठेकेदार ने वहां काम करने वाले छोटू के साथ ऐसा दुषप्र्यास किया था. होस्टल के छात्रों ने ऐसा मारा कि केंटीन का ठेका ही छोड्कर भाग गया था.

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म, तारीफ़ स्वीकार करें, तब वह कदम उठाने के लिए और आज यह कदम उठाने के लिए!!

ऐसा ही एक संस्मरण हमारे पास भी है, तब हम तो उन महाशय पे हमला कर के कल्टी हो गए थे। पानी का भरा गिलास सीधे उनके मुंह पे दे मारा और फ़टाक से कमरे से बाहर हो लिए थे!!

mamta said...

काबिले तारीफ़ है आपका साहस । कितनी सरलता से आपने अपनी बात सभी तक पहुँचा दी है।

बोधिसत्व said...

मित्रों
बड़े ही दारुण और दुखद रास्तों से चल कर हम बड़े हुए। कभी-कभी अजीब लगता है कि हम बच कैसे गये। हमें तो कहीं सुरियाँवा, भदोही, ज्ञानपुर या विंध्याचल में बह बिला जाना था। पीछे पलट कर देखता हूँ तो दुख नहीं कटुता से मन खिन्न हो जाता है। पर मुझे लगता है कि पूरा देश ही ऐसा है। मैं सुरियाँवा नहीं सोनभद्र में होता तो भी यही सब होता। कोशिश करूँगा कि कभी और कुछ अनुभवों से आप सब को परिचित कराऊँ।

विजेंद्र एस विज said...

आपकी बेबाकी, साह्स और निडरता को सलाम करता हँ...

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

आपकी प्रत्युत्पन्नमति के साथ-साथ तमाचा जड़ने का आपका कदम भी प्रशंसनीय है. बेहतर होता कि उसे भरे समाज में वैसे ही नंगा करके पीटते.

विवेक रस्तोगी said...

हम तो आज पहुँच पाये आपकी इस पोस्ट पर, वाकई इस तरह के वाकये देश के हर हिस्से में पाये जाते हैं, समाज में दुबे जैसे बहुत सारे लोग हैं और उनसे बच्चों को बचाना बहुत जरुरी है और ऐसे लोगों को नंगा करना भी बहुत जरुरी है।