Tuesday, August 28, 2007

मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ


आज विनय-पत्रिका के 6 महीने पूरे हुए। आधा साल पूरा होने पर मैं अपनी एक पुरानी पोस्ट को चिपका रहा हूँ।







छोटा आदमी

छोटी-छोटी बातों पर
नाराज हो जाता हूँ ,
भूल नहीं पाता हूँ कोई उधार,
जोड़ता रहता हूँ
पाई-पाई का हिसाब

छोटा आदमी हूँ
बड़ी बातें कैसे करूँ ?

माफी मांगने पर भी
माफ़ नहीं कर पाता हूँ
छोटे-छोटे दुखों से उबर नहीं पाता हूँ ।

पाव भर दूध बिगड़ने पर
कई दिन फटा रहता है मन,
कमीज पर नन्हीं खरोंच
देह के घाव से ज्यादा
देती है दुख ।

एक ख़राब मूली
बिगाड़ देती है खाने का स्वाद
एक चिट्ठी का जवाब नहीं
देने को याद रखता हूं उम्र भर

छोटा आदमी और कर ही क्या सकता हूँ
सिवाय छोटी-छोटी बातों को याद रखने के ।

सौ ग्राम हल्दी,
पचास ग्राम जीरा
छींट जाने से तबाह नहीं होती ज़िंदगी,
पर क्या करूँ
छोटे-छोटे नुकसानों को गाता रहता हूँ
हर अपने बेगाने को सुनाता रहता हूँ
अपने छोटे-छोटे दुख ।

क्षुद्र आदमी हूँ
इन्कार नहीं करता,
एक छोटा सा ताना,
एक मामूली बात,
एक छोटी सी गाली
एक जरा सी घात
काफी है मुझे मिटाने के लिए,

मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ
हल्की हवा भी बहुत है
मुझे बुझाने के लिए।

छोटा हूँ,
पर रहने दो,
छोटी-छोटी बातें कहता हूँ- कहने दो ।

16 comments:

अभय तिवारी said...

छोटे दुखों की अच्छी सूची..हम सब यही लिए फिर रहे हैं.. फिर भी बड़े होने का, महान होने का नाटक..

ghughutibasuti said...

बहुत सही बात कही है आपने । यह बात हममें से बहुतों पर लागू होती होगी, मुझपर तो होती है ।
घुघूती बासूती

Gyan Dutt Pandey said...

बिल्कुल, फलनवां बहुत दिन से टिप्पणी करने नहीं आया, याद रहता है.

Priyankar said...

क्या बात है !

महानता होती होगी गगनचुम्बी पर साधारणता की अपनी गाथा है -- अपनी मज़बूरियों की,अपनी कमजोरियों की गाथा .

छोटे आदमी के सरोकार छोटे नहीं होते पर वह रोज़मर्रा की छोटी-छोटी जद्दोजहद में ही अपनी सारी ऊर्जा गवां देता है .

आप उसकी त्रासदी के प्रति सहानुभूति रख पाये यह बड़ा काम है .

मुझे तो यह आदमी किसी ग्रीक त्रासदी के हीरो से कम कभी नहीं लगा .

Shiv said...

छोटा आदमी हूँ. इतनी बड़ी कविता पर टिप्पणी करना, मेरे बस की बात नहीं.

बोधिसत्व जी बहुत-बहुत धन्यवाद इस 'पुरानी' पोस्ट को फिर से चिपकाने के लिए.

अफ़लातून said...

बोधिसत्व ,
बहुत खूब ! बतायें कि कविता कितने साल पहले लिखी गयी थी?

VIMAL VERMA said...

कब की कविता है इससे क्या?पर मैने अभी अभी ही पढा है, क्यों पढ़ लिया? पढ़कर अपने को छोटा महसूस कर रहा हूं.ब्ड़ी राहत है..अपने बारे में कुछ तो पता चला.

बोधिसत्व said...

अफलातून भाई
यह कविता 12 जून 2006 को लिखी गई फिर 14 जून को इसमें बाद वाला हिस्सा यानी
एक छोटा सा ताना एक छोटी सी बात
और दीये वाला हिस्सा जोड़ा। यानी अंत का काफी कुछ 14 जून को लिखा गया।
आप मान सकते हैं कि यह कविता दो दिनों में लिखी गई।
पहली बार यह प्रयाग शुक्ल के संपादन में लिकलने वाली राष्ट्रीय नाट्य विद्यालट की पत्रिका रंग-प्रसंग के अक्टूबर-दिसंबर 2006 के अंक में छपी ।

अजित वडनेरकर said...

सुंदर .... अतिसुंदर...ईमानदार शब्द, ईमानदार उद्गगार, ईमानदार अभिव्यक्ति...इसके अलावा और कुछ नहीं कह सकता...बोधिभाई. अच्छी कविता पढ़वाने का शुक्रिया।

चंद्रभूषण said...

छोटे हैं
पर इतने भी नहीं
कि बड़ा सोच न सकें
और
बड़ा कौन है-
हर तरफ बढ़ती जाती
कैंसर की गांठों के सिवाय?

Yunus Khan said...

कहते रहिये हम छोटे छोटे लोग आपकी बड़ी सी लगने वाली छोटी छोटी बातों को मनोयोग से सुन रहे हैं ।

Udan Tashtari said...

वाह भाई, बड़ी सहजता से कह गये. हिसाब किताब तो हर वक्त लगा ही रहता है...बहुत बढ़िया.

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सही!!

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया कविता है।

बोधिसत्व said...

समीर लाल जी, प्यारे यूनुस , संजीत और परमजीत भाई
आप लोग पढ़ रहे हैं यही मेरे लिए बहुत है। वैसे मैं खुद अपनी और हिंदी कविता की स्थिति को लेकर बहुत शर्मिंदा हूँ। कोई और धंधा नहीं जानता मजबूरी में लिखता रहता हूँ।

mamta said...

आधा साल पूरा करने की बधाई और शुभकामनायें।