यह शुरुआत के दिनों की एक कविता है। जिसे आप मेरी पसंद की कविता भी कह सकते हैं। मैंने सर्वाधिक पाठ इसी का किया है। सप्ताह भर से वाम हस्त की तर्जनी के घायल होने से चुप था तो बहुत लंबा न छाप कर इसे चिपका डाला। अब यह आप सब के हवाले है। जो चाहें करें इस पुरानी चाहत का।
चाहता हूँ
बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,
वहीं पाना चाहता हूँ
मैं अपने सवालों का जवाब
जहाँ लोग वर्षों से चुप हैं
चुप हैं कि
उन्हें बोलने नहीं दिया गया
चुप हैं कि
क्या होगा बोल कर
चुप हैं कि
वे चुप्पीवादी हैं,
मैं उन्हीं आँखों में
अपने को खोजता हूँ
जिनमें कोई भी आकृति
नहीं उभरती
मैं उन्हीं आवाजों में
चाहता हूँ अपना नाम
जिनमें नहीं रखता मायने
नामों का होना न होना,
मैं उन्ही का साथ चाहता हूँ
जो भूल जाते हैं
मिलने के ठीक बाद
कि कभी मिले थे किसी से।
बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,
Sunday, September 30, 2007
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7 comments:
मैं उन्ही का साथ चाहता हूँ
जो भूल जाते हैं
मिलने के ठीक बाद
कि कभी मिले थे किसी से।
बहुत बढ़िया....तबियत प्रसन्न हो गई..
बढ़िया!!
कुछ लिखना सिर्फ़ लिखना नही होता , लिखना हमारे भावों को शब्दों में ढालना ही है और इसमें आप पूर्ण सफ़ल होते हैं।
सृजन की अपनी एक पीड़ा होती है शायद, पर आप इस पीड़ा के बाद भी भावों को बहुत आसान से शब्द दे जाते हैं।
बनाए रखें
आप तो सवालों के जवाब पाना चाहते हैं.
हम तो सिर्फ तोलना चाहते हैं लोगों को
पर जब निकालते हैं तराजू
तो उस पर खुद ही तुल जाते हैं
औरों की क्या
खुद में उलझ जाते हैं
-------------
आप की कविता ने कविता मय सोचने को प्रेरित किया. आपको धन्यवाद.
कविता के भाव शायद संक्रामक होते हैं! :)
मैं उन्ही का साथ चाहता हूँ
जो भूल जाते हैं
मिलने के ठीक बाद
कि कभी मिले थे किसी से।
बोधि बाबा, क्यों बूढे लोगों से ही मिलते रहते हैं। जवानों की संगत पालिए। सब ठीक हो जाएगा। वैसे, कविता सुंदर है।
मैं उन्हीं आवाजों में
चाहता हूँ अपना नाम
जिनमें नहीं रखता मायने
नामों का होना न होना,
--वाह जी, बहुत गहरी बात कह गये. जबरदस्त.
उम्मीद है चोट जल्द ही ठीक होगी और आप पुनः पूरी ताकत से लिखते नजर आयेंगे.
अजी हम से मिलिये ना, फिर कहेंगे
भूलना चाहता हूं
उन लोगों को, जिनसे मिला था
शिव जी खुश हो लीजिए...अच्छा लगता है...
सृजन की पीड़ा अब कम हो गई है संजीत जी...
ज्ञान भाई कविता मेरे लिए छोड़ें....करते रहें....
अनिल भाई आपने अबी तक मुझे याद रखा है क्या यहीं बड़ी बात नहीं है
समीर भाई....ठीक हो गया हूँ...
आलोक जी दिल्ली आऊँगा तो मिलूँगा.....जरूर..से
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