बिना शब्दों वाली बातें
हिंदी के युवा कवियों में एक अलग सुर के कवि हैं रमेश पाण्डेय। वे मेरे कुछ प्रिय कवियों में से हैं। 13 मई 1970 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के अहिरौली गाँव में पैदा हुए रमेश आज कल बहराइच के जंगलों में तैनात हैं। वे 1996 से भारतीय वन सेवा में हैं और कविता में जंगलों की अनसुनी आवाजों को चुपचाप दर्ज कर रहे हैं। उनका एक कविता संग्रह कागज की जमीन पर अनामिका प्रकाशन इलाहाबाद से 2004 में प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं के बारे में त्रिलोचन जी का कहना है कि कागज की जमीन पर संग्रह में बिना शब्दों वाली बाते हैं। आप भी यहाँ रमेश पाण्डेय की चार छोटी कविताएँ पढ़े।
यह केवल शब्द है
यह केवल शब्द है
जिसने उठा रखा है कंधों पर
पीर का बोझ
वाक्य में बिना पहले से तय जगह पर
हमेशा सावधान की मुद्रा में
खड़े कर दिए जाने के बाद तक
यह विचार है
जो बाजार में अकेला तन कर खड़ा है
सीने में उतरे छुरे की मूठ की तरह
यह सिर्फ कविता है
जो धमनियों में रक्त की तरह दौड़ती है
आँखों से तेजाब की तरह
झरती है।
सानिध्य
अमलतास की तरह खिलती हो
गुलमोहर सी
छा जाती हो
रात की खामोशी में
रातरानी बन महकती हो तुम
कठिन समय में।
नाम में क्या रखा है
बहुत पंछी पिद्दी भर हैं
जिनसे मेरी कोई जान-पहचान नहीं
कुछ ऐसे हैं कि उनके लगे हैं
सुरखाब के पर
काले भुजंग कई
वैसे तो वक्त नहीं होता कि
इन पर निगाह पड़े
देख भी लूँ तो
ज्यादातर इनके नाम नहीं मालूम
और फिर इनके नाम में
रखा ही क्या है
आपका इस बारे में खयाल
क्या कुछ पेश्तर है।
जंगल
यहाँ कई जानवर रहते हैं
मेरे साथ आस-पास
जिन्हें मैं जानता हूँ
मेरे चारों ओर जंगल है
मेरी अँगुलियों के नाखून कुतरे हुए हैं
दाँत भी नुकीले नहीं हैं की चीथ सकूँ
खा सकूँ कच्चा माँस
देखूँ कितनी दूर जा सकता हूँ इस घने जंगल में
हाथ की मुट्ठियाँ भींचे।
यह केवल शब्द है
जिसने उठा रखा है कंधों पर
पीर का बोझ
वाक्य में बिना पहले से तय जगह पर
हमेशा सावधान की मुद्रा में
खड़े कर दिए जाने के बाद तक
यह विचार है
जो बाजार में अकेला तन कर खड़ा है
सीने में उतरे छुरे की मूठ की तरह
यह सिर्फ कविता है
जो धमनियों में रक्त की तरह दौड़ती है
आँखों से तेजाब की तरह
झरती है।
सानिध्य
अमलतास की तरह खिलती हो
गुलमोहर सी
छा जाती हो
रात की खामोशी में
रातरानी बन महकती हो तुम
कठिन समय में।
नाम में क्या रखा है
बहुत पंछी पिद्दी भर हैं
जिनसे मेरी कोई जान-पहचान नहीं
कुछ ऐसे हैं कि उनके लगे हैं
सुरखाब के पर
काले भुजंग कई
वैसे तो वक्त नहीं होता कि
इन पर निगाह पड़े
देख भी लूँ तो
ज्यादातर इनके नाम नहीं मालूम
और फिर इनके नाम में
रखा ही क्या है
आपका इस बारे में खयाल
क्या कुछ पेश्तर है।
जंगल
यहाँ कई जानवर रहते हैं
मेरे साथ आस-पास
जिन्हें मैं जानता हूँ
मेरे चारों ओर जंगल है
मेरी अँगुलियों के नाखून कुतरे हुए हैं
दाँत भी नुकीले नहीं हैं की चीथ सकूँ
खा सकूँ कच्चा माँस
देखूँ कितनी दूर जा सकता हूँ इस घने जंगल में
हाथ की मुट्ठियाँ भींचे।
ऊपर - त्रिलोचन जी के साथ रमेश पाण्डेय, बीच में हैं त्रिलोचन जी के एक पाठक। फोटो मैंने खींची है।
8 comments:
Unka Sangrah Dekha hai. Achche Kavi hain.
अच्छे व्यक्ति की अच्छी कविताएँ।
यह कविताऐं पढ़ना एक अच्छा अनुभव रहा.
वैसे आप तस्वीर अच्छी खींच लेते हैं, बधाई.
कविताएँ अच्छी हैं पर समीर भाई फोटो पर आपने अच्छी चुटकी ली।
अपने एक मित्र महेन्द्र सिंह पूनिया के सौजन्य से यह संकलन पढने का मौका मिला था . वे और रमेश पाण्डेय एल.बी.एस.एन.ए.ए. में प्रशिक्षण के दौरान रूममेट थे . महेन्द्र के अनुसार तब तक यह कविताई का रोग उन्हें नहीं लगा था . बाद में उनके कवि रूप का खासा विकास हुआ .
प्रियंकर भाई
आपके पास भवानी भाई की नीली रेखा तक होगी। उसमें एक कविता थी जिसका भाव कुछ ऐसा ही था कि लिखना एक बीमारी है और इसका इलाज भी है लिखते जाना। हो सके तो उसे भी छापे।
यह एक ऐसी बीमारी है जो बचपन जवानी बुढ़ापा किसी में भी धर लेती है।
ऐसे मरीजों की हमे और जरूरत है।
अच्छी हैं कवितायें खासकर सानिध्य कविता बहुत अच्छी लगी।
rameshji mere bhi priy kvi hain. unke es sangrah pr maine kahin likha bhi tha
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