Friday, September 7, 2007

शादी के पहले का प्रेम-भाव

प्रेम का पंथ

शादी के पहले प्रेम का भाव क्या शादी के बाद के प्रेम भाव से अलग होता है। इसका निर्णय तो आप करें। यहाँ शादी के पहले की अपनी दो प्रेम कविताएँ छाप रहा हूँ। वैसे ये मेरे लिए प्रेम की भावनाएँ हैं। जिन्हें मैं इसी तरह कह सकता था। यहाँ दूसरी कविता मेरी पत्नी आभा को मुखातिब हैं जो तब मेरी सहपाठिनी - प्रेमिका हुआ करती थी ।

बो दूँ कविता

मैं चाहता हूँ
कि तुम मुझे ले लो
अपने भीतर
मैं ठंडा हो जाऊँ
और तुम्हें दे दूँ
अपनी सारी ऊर्जा

तुम मुजे कुछ
दो या न दो
युद्ध का आभास दो
अपने नाखून
अपने दाँत
धँसा दो मुझमें
छोड़ दो
अपनी साँस मेरे भीतर,

तुम मुझे तापो
तुम मुझे छुओ,
इतनी छूट दो कि
तुम्हारे बालों में
अँगुलियाँ फेर सकूँ
तोड़ सकूँ तुम्हारी अँगुलियाँ
नाप सकूँ तुम्हारी पीठ,

तुम मुझे
कुछ पल कुछ दिन की मुहलत दो
मैं तुम्हारे खेतों में
बो दूँ कविता
और खो जाऊँ
तुम्हारे जंगल में।


आएगा वह दिन

आएगा वह दिन भी
जब हम एक ही चूल्हे से
आग तापेंगे।

आएगा वह दिन भी
जब मेरा बुखार उतरता-चढ़ता रहेगा
और तुम छटपटाती रहोगी रात भर।

अभी यह पृथ्वी
हमारी तरह युवा है
अभी यह सूर्य महज तेईस-चौबीस साल का है
हमारी ही तरह,

इकतीस दिसंबर की गुनगुनी धूप की तरह
देर-सबेरे आएगा वह दिन भी
जब किलकारियों से भरा
हमारा घर होगा कहीं।

नोट- कल की पोस्ट में पढ़े शादी के बाद के प्रेम भाव पर मेरी कुछ कविताएँ ।

8 comments:

Priyankar said...

दोनों कविताएं बहुत अच्छी हैं . पर 'आएगा वह दिन' की 'ड्रीमी क्वालिटी',घरोआ शब्दावली और उत्कट आशावाद बहुत भाया . सच में! क्या जबर्दस्त कविता है . जब तक ऐसी कविताएं और ऐसा प्रेम है विवाह नाम की यह संस्था बची रहेगी, दाम्पत्य-प्रेम वे वे सुंदर दृश्य भी बचे रहेंगे जो हमें केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन से लेकर बोधिसत्व तक की कविताओं में मिलते हैं .

नए लफंटड़ प्रेमी पहली कविता का दुरुपयोग कर सकते हैं नखक्षत और दंतक्षत के अयाचित विशेष अनुरोध के जरिये .

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा कविता है. सटीक भाव लिये हुये. पसंद आई.

अनूप शुक्ल said...

अच्छा है शादी के पहले का हिसाब किताब और योजनायें :) प्रियंकरजी की चिंता देखिये जरा। आगे विवाह बाद की कविताओं का इंतजार है। :)

अभय तिवारी said...

साहसी कविताएं.. ऐसी कविताएं लिखने में लोग सकुचाते हैं.. पर बात ईमानदारी की है..

Unknown said...

kavita hai ki bawal hai? lage rahiye, kuchh n kuchh to naya hai hi,sai-shaffak v.

बोधिसत्व said...

जो बात मैंने खुद लिखी है या कही है उसे बदल तो नहीं सकता।
वह एक अलग और अजीब दौर था। अच्छा भी था। आप भी लगे रहें हरे भाई।

आशुतोष कुमार said...

ye dono kavitayen tumhari sabse sundar kavitaon me se hain.priyankar chahe ise durupayog kahen, lekin prasangvash bataa doon ki tumharee yah pahle kavitaa maine apnee ekaadhik premikaon ko bhent kee hai, aur tumhe yah jaan kar achchaa lagegaa ki un sabne inhe pasand kiya tha aur sambhal kar rakha tha.
ham hinsa men hee janm lete aur marte hain.manushya hone ke nate.manushya hone kee astitvagat vidambanaa hai yah.prem hee hai jo use roopantarit kar ke hmare astitva ko sundar aur sukh kaa arth detaa hai.kya yah kavitaa aisaa hee kuchh kahtee hai?

kya is par anya mitra kuchh kahenge?


lekin wo shaadee ke baad ke prem waalee kavitayen kahan hain?

we waisee hee adrishya jaan padatee hai jaise khud shadee ke baad ka prem!

ASHUTOSH

बोधिसत्व said...

बेपता भाई आशुतोष जी
आपकी प्रेमिकाओं के प्रति मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। वे जहाँ भी हो सुखी रहें।
हिंदी की दरिद्र कविता उनका आसरा बने।