Tuesday, September 18, 2007

कहाँ जा रहे हो भाई

कुछ तय तो कर लो

आज उपदेश की प्रबल इच्छा जगी है। सुबह से मन कुछ समझाने समझने का कर रहा है। मैं औरों को नहीं खुद को जीवन का मंत्र देना चाह रहा हूँ। पर जीवन का मंत्र मेरे पास होता तो बात ही क्या थी । सुनता हूँ दूसरों को समझाना बहुत आसान होता है । मदर इंडिया में राधा देवी लक्ष्मी से कहती है कि देवी बन कर दुनिया का बोझ उठाती फिरती हो माँ बन कर देखो ममता का बोझ न उठाया जाएगा। राह दिखाना आसान है उस पर चलना मुश्किल।

यह चलना ही जीवन है। ऐतरेय ब्राह्मण के शनु शेप: उपाख्यान में एक वैदिक गीत है। जिसे इंद्र ने वरुण को उसके वनवास के दौरान सुनाया था। इस गीत में हर बार ठेका या अंतरा के रूप में आता है चरैवेति-चरैवेति जिसका मतलब है चलते रहो। क्योंकि चलना ही जीवन है। क्योंकि बैठे हुए का सौभाग्य बैठै रहता है, खड़े होनेवाले का सौभाग्य खड़ा हो जाता है, पड़े रहनेवाले का सौभाग्य सोता रहता है और उठ कर चल पड़ने वाले का सौभाग्य चल पड़ता है।

मंत्र में आगे कहा गया है कि सोनेवाले का नाम कलि है, अंगड़ाई लेनेवाले का नाम द्वापर है, उठकर खड़ा होनेवाले का नाम त्रेता है और चलनेवाले का नाम सतयुग है। इसलिए चलते रहो चलते रहो।

क्योंकि चलता हुआ मनुष्य ही मधुपाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है। सूर्य का परिश्रम देखो, जो रोज चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता। इसलिए चलते रहो-चलते रहो ।

सवाल यह है कि यह चलना कहाँ ले जाएगा। कहाँ किस राह पर क्या पाने के लिए चलते रहें। क्या टहलना भी चलना है। क्या विचरण करना भी चलना है। यह चलना कितना आध्यात्मिक है और कितना भौतिक यह प्रश्न भी अपनी जगह बना हुआ है। हम चल कर कहाँ पहुँच रहे हैं।

जैसे पानी में बहना तैरना नहीं है । जैसे बकबकाना बोलना नहीं है जैसे वैसे ही सिर्फ पैर बढ़ाते जाना भी चलना तो नहीं होगा। कुछ लोग जीवन भर बहते रहते हैं वे कहीं भी जाते या पहुँचते नहीं है। धारा का बहाव जहाँ ले जाता है उधर जाते हैं। वे भी कहीं पहुँचते हैं पर वह उनका गंतव्य शायद नहीं होता। कुछ लोग बकबकाते हैं पर वह बोलना अकारथ होता है । जैसे मैं खुद बहुत बोलता हूँ। पर उसमें सार तत्व कुछ भी नहीं होता।

तो चलना तो वही है जिसमें आप कुछ सार्थक यात्रा पूरी करें। कुछ हो कुछ बने कुछ कल्याणकारी हो जैसे सूर्य का चलना है अथक अविराम ।
तो चलो भाई चलो और चलते ही रहो।

इसी चलने को कई कवियों ने अपने तरीके सो कहा है। टैगोर गुरु कहते हैं
जब तुम्हारी पुकार सुन कर कोई ना आए
तब
भी अकले चलो।
कोई और कवि कहता है –

चल चला चल अकेला चल चला चल।

मेरा तमाम लेखकों से भी यह सवाल है कि क्यों लिखते हो। इतना जो लिख रहे हो उसके पीछे कोई उद्देश्य है या ऐसे ही लिख रहे हो। मेरा सिर्फ इतना ही कहना है कि लिखो खूब लिखो पर तय कर तो कि क्यों लिख रहे हो और अगर तय कर लिया है तो मेरे इस उपदेश पर कान मत दो।

अभय तिवारी ने भी अपने बलॉग पर एक खच्चर सवार का फोटू चिपका कर नारा दे रखा है यूँ ही चला चल यानी चलते रहो। ज्ञान जी ने भी एक बंदे को यह कह कर हाँक रखा है कि अटको मत चलते चलो। मैं भी यही कह रहा हूँ चलते रहो। पर चलने के पहले कुछ तय कर लो कि कहाँ के लिए। किस लिए चल रहे हो। क्योंकि बैठे हुए आदमी के पाप धर दबाता है। जो श्रम करके थक नहीं जाता उसे लक्ष्मी नहीं मिलती है। जो चलता रहता है उसकी आत्मा भूषित होकर फल प्राप्त करती है।
आत्मा के होने न होने पर फिर कभी विचार करेंगे आप चाहें तो उसे मन मान लें।

10 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

कहते हैं कि यह दुनियाँ तेजी से चल रही है. आप न चले तो वहीं नहीं रह जायेंगे - पीछे छूटते जायेंगे. मैने फ्लिंस्टन का चित्र लगाया था तब वही भाव था.
पर आप सही कह रहे हैं बगटुट चलने की तरह बगटुट लिखना मायने नहीं रखता.
मैं अपनी बात बताऊं - मैं इसलिये लिखता हूं कि अवसाद से बचा रहूं.

अनिल रघुराज said...

प्रकृति में कुछ भी पूछ कर नहीं चलता। आप चलते रहते हैं यही प्रमाण होता है आपके जीवित रहने का। आपके पास भाषा है तो कहने का सलीका न भी आए तो आप बोलेंगे ही। इसी तरह आप ठहरे नहीं हैं तो लिखेंगे ही। इसमें कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। क्या लिखेंगे इस पर जरूर सोचने की जरूरत पड़ती है।

Ashish Maharishi said...

गुरू देव थोड़ा बहुत मुझे भी आप जेसा लिखना सिखा दीजिये

बोधिसत्व said...

बगटुट लेखन से कोई दिक्कत नहीं है ज्ञान भाई उद्देश्य तो है न।
अनिल जी आपने तो मुझे ही उपदेश दे दिया आज तो मुझे छोड़ देते इस व्यास के आसन पर ।
आशीष प्यारे अभी तो हम खुद ही गुरु का चरण धो रहे हैं। सीख लेंगे तो बता देंगे। फिर भी मंत्र है-
करत-करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजान।
लगे रहो। बस।

काकेश said...

कोई भी काम क्यों कर रहे हैं ये देखने सुनने में जितना छोटा प्रश्न लगता है असल में उससे कहीं बड़ा प्रश्न है. जैसे युधिष्ठिर ने यक्ष को कहा था कि सब को मालूम है कि एक दिन जाना है फिर भी सब कुछ समेट लेने की इच्छा यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है. यही माया है.

माया मरी ना मन मरा मर मर गये शरीर
आशा ,तृष्णा ना मरे कह गये दास कबीर.

चंद्रभूषण said...

क्या बात है, सब जगह धकापेल फिलासफी चल रही है। कोई मठ खोल लें?

बोधिसत्व said...

हम तैयार हैं भाई। मठ का मार्केट आज सबसे तगड़ा है। कोई दुविधा हो तो बताएँ। हम कई और प्रवचन कर्तां का जुगाड़ कर देंगे।

अभय तिवारी said...

चलते चलते आया.. चलताऊ टिप्पणी कर के चलता हो रहा हूँ..चलो भाई..मैं चला..

Unknown said...

pravachankarta ko koi post ho to avasar dijiyega sir j.

Udan Tashtari said...

स्वामी बोधी महाराज की जय!!

कुछ कुछ ज्ञान ऐसे ही ठेलते रहिये समय समय पर. :)