Thursday, August 2, 2007

आफत में धर्म

दूसरी लोक कथा

मैंने अपनी एक पोस्ट में एक लोक कथा पढ़वाई थी । आज दूसरी लोक कथा पढ़े । इसमें भी मैं श्रोता हूँ और आदरणीय लक्ष्मी कान्त वर्मा जी सुना रहे हैं।

बात 1997 की है। मेरे पास कोई काम नहीं था और पैसों की कुछ खास दरकार थी। पर कुछ उपाय नहीं दिख रहा था कि लक्ष्मी कान्त जी फिर मिल गये । हालचाल के बाद मैंने बताया कि किसी संकट में हूँ । उन्होने किसी प्रकाशक से 6 हजार का एक काम और उस काम का पूरा दाम तत्काल दिलाया। मेरा काम हो गया और मैं उस प्रकाशक को बहुत उम्मीद से देखने लगा। मेरी निगाह का खोट लक्ष्मी कान्त जी ने पढ़ लिया और बोले इसके चक्कर में मत पड़ना। जोंक है। मैं कुछ बोल नहीं पाया । कुछ देर की चुप के बाद उन्होने कहा कि एक कथा सुनों।

यह कथा आपद् धर्म पर है।

किसी राज्य में एक विद्वान ब्राह्मण रहा करता था। सब कुछ ढीक-ठाक चल रहा था कि उसके राज्य में अकाल पड़ गया । प्रजा भूखी थी तो धर्म के सभी काम रुक गये। दान दक्षिणा का सवाल ही नहीं उठता था। ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से कहा कि आप ही के किसी पूर्वज का कहना है कि जिस राज्य में जीविका का उपाय न हो उसे छोड़ देना चाहिए।

ब्राह्मण ने राज्य और ब्राह्मणी को छोड़ कर दूसरे राज्य की ओर रुख किया । वह परदेश की ओर लपक पड़ा। ब्राह्मणी दुखी थी की रास्ते में खाने के लिए कुछ सीधा नहीं दे पाई । आगे जा कर ब्राह्मण को भूख लगी पर क्या करता कुछ मिले तब ना खाए। दूसरे राज्य की सीमा में घुसते ही उसने देखा कि एक पीलवान अपने हाथी को नहला रहा था। पास ही में एक कड़ाहे में हाथी का रातिब उड़द रखा था। रातिब जानवरों के खाने को कहते हैं। अन्न देख कर ब्राह्मण की भूख जाग पड़ी। उसने पीलवान से ब्राह्मण यानी खुद को भोग लगवाने को कहा और गंगा में घुस कर नहाने लगा। तब तक पीलवान ने पत्तल पर ब्राह्मण के लिए दो किलो उड़द परोस दिया था।

नहाने के बाद सूर्य को अर्ध्य देकर ब्राह्मण खाने बैठ गया । थोड़ा रातिब अगले दिन के लिए बचा कर ब्राह्मण ने भोग लगाया। श्रद्धालु पीलवान तब तक ब्राह्मण के सामने पीने के लिए एक लोटा पानी भी रख दिया। खा लेने के बाद ब्राह्मण ने लोटे को लात मार कर नदी में फेंक दिया और बोला कि तुम मेरा अपमान कर रहे हो। पीलवान ने कहा कि आप हाथी का खाना खा रहे हैं यह अपमान नहीं है और एक लोटा पानी दे रहा हूँ तो यह आप का अपमान है। ब्राह्मण ने कहा कि रातिब इसलिए का रहा हूँ कि और कुछ खाने को मिल नहीं रहा मूर्ख । पानी मैं लोटे से क्यों पीऊँगा, जब सामने गंगा जी बह रही हैं। रातिब मेरा आपद् धर्म है पानी नहीं।

पीलवान पता नहीं आपद् धर्म का कुछ मतलब समझ पाया कि नहीं पर उसे यह जरूर लगा होगा कि ब्राह्मण की सेवा करके उसने कोई आफत मोल ले लिया है।

इतना कह कर ब्राह्मण ने अपनी राह ली, पीलवान उसे जाते देखता रहा। बाद में अपना लोटा खोजने नही में उतरा ही होगा बेचारा।
लक्ष्मी कान्त जी ने कहा कि प्रकाशक से मिली यह मदद सिर्फ आपद् धर्म है। देश में बहुत सारी द्रव्य. की बड़ी नदियाँ बह रही हैं।

पाठकों
दिक्कत हो तो पीलवान को फीलवान या महावत पढ़े और रातिब को चारा या कुछ भी। पर प्रकाशक को प्रकाशक ही पढ़े। क्योंकि हिंदी के सभी प्रकाशक जोंक नहीं हैं।

6 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

भाई वाह! आपने तो इस लोक कथा को बिल्कुल नया अर्थ दे दिया.

azdak said...

बड़ी इंटेलेक्‍चुअल किस्‍म की लोककथा है, भई? पीलवान और रातिब तो समझ गया, बाकी समझने के लिए सिर खुजला रहा हूं..

Gyan Dutt Pandey said...

विश्वामित्र ने भी श्वान का मांस खाया था - जीवित रहने को. शायद उसके बाद कुत्ता नहीं खाया होगा!
हां, कुछ लोग आपातकाल को ही सतत चलाते रहते हैं - वह गलत है.

बसंत आर्य said...

बोधिसत्वजी, आपका आपद्काल खत्म हो गया होगा. पर जो अभी भी आपदकाल से गुजर रहे है उनके लिए उस प्रकाशक का पता भी दे देते तो अच्छा होता

बोधिसत्व said...

बसंत जी
प्रकाशक का पता बता कर मुझे आफत में नहीं पड़ना

विवेक रस्तोगी said...

हमें भी सीख मिल गई इससे जब नदी सामने बह रही हो तो :)