Tuesday, September 25, 2007

उऋण हो सकूँगा क्या उनसे

तुम कहाँ गए साथी ?

हर एक की अपनी दुनिया होती है। उसमें से कुछ लोग टूटते-छूटते जाते हैं हो तो कुछ नए लोग लगातार जुड़ते जाते हैं। इसी मिलने बिछुड़ने के क्रम में कुछ ऐसे भी होते हैं जो जीवन की यात्रा में काफी दूर और देर तक साथ चलते रहते हैं। जो हमारे साथ हो लेता है हम उसमें मीन मेख निकालने लगते हैं। दीर्घ काल तक साथ रहने के बाद उसकी बहुत सारी कमिया खामियाँ उजागर होने लगतीं हैं जो कभी कभी उसके गुणों और अच्छाइयों से भी अधिक दिखने लगती हैं। यहाँ पर एक कहावत लागू होती है जो शायद किसी अंग्रेजी कहावत का अनुवाद है कि दोस्ती और प्यार में कुछ भी दर्ज नहीं करते। यानी कौन किसके लिए क्या कर रहा है इसका हिसाब नहीं रखते।

पर कहावत अपनी जगह है सच्चाई यही है कि हममें से हर कोई पक्का हिसाबी होता है। आप हिसाब न रखे तो दूसरे आगाह कराने लगते हैं कि हिसाब रखना बहुत जरूरी है। फिर हम दोस्त या सहयात्री कम मुनीम अधिक हो जाते हैं।

अब तक के जीवन में कई ऐसे दोस्त मिले जिनसे कभी कोई अनबन नहीं हुई। बिना हिसाब-किताब के विना तकरार के जुदा हुए हम। मैं शुद्ध सांसारिक कारणों से जुदा होने को एक उत्सव की तरह मानता हूँ। ऐसा बिछुड़ना सच में उदासी भरा उत्सव ही तो होता है। कुछ कुछ मीर के अंदाज में ----

अब तो चलते हैं मैकदे से मीर
फिर मिलेंगे गर खुदा लाया।

कई बार बिछुड़े सह यात्रियों से मिलना नहीं हो पाता। जिन्हें अक्सर याद करता हूँ। जैसे मैं अपने प्रायमरी के कई दोस्तों से दोबारा नहीं मिल पाया। उनमें से एक मदन कुमार पाण्डे तो मेरा इतना खयाल रखता था कि मेरे लिए किसी से भी मारपीट कर लेने पर हरदम आमादा रहता। उसने पूरे पाँच साल मेरी हिफाजत की। मेरा पहरुआ बना रहा। मुझसे हर मामले में तेज। मैं उसकी नकल करके आगे बढ़ता रहा। मेरे बगल के गाँव में उसकी ननिहाल थी यानी वह अपने ननिहाल में रह कर पढ़ता था। घर था उसका विन्ध्याचल के आस पास कहीं। पांचवीं के आगे वह नहीं पढ़ पाया। मैं उसके लिए कभी कुछ नहीं कर पाया । एक बार मार पीट के बाद उसने मुझे बताया कि जिससे भिड़ रहे हो उसकी आँखों में देखो। उससे आँख मिला कर लड़ो। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि उसे यह सब किसने सिखाया था। उस उमर में उसे जीने और लड़ने का यह सलीका कहाँ से मिला कौन था उसका गुरु। लोग बताते थे कि जब वह माँ के पेट में था तभी उसके पिता की हत्या हो गई थी।

प्रायमरी में ही मेरे कुछ और दोस्त थे जो मेरे सच में दोस्त थे। जिनमें बनारसी, पुट्टुर, निजामू , तो आज भी मेरे सखा हैं। गाहे- ब- गाहे अब भी उनसे बात हो ही जाती है। पर यहाँ मैं सिर्फ उनकी बात कर रहा हूँ जो चले गए छोड़ कर । जिनसे उऋण नहीं हो पाया हूँ। मिडिल स्कूल में मेघनाथ यादव ने लंबी कूद का अनोखा गुर सिखाया। तो हाई स्कूल में दीनानाथ पाल ने गणित की उबाऊ दुनिया में रसों की बरसात कर दी .....आगे इन सब मित्रों पर बारी बारी ।

8 comments:

Unknown said...

badi muskil hai us dost ke pas internet hoga ki nahi, kya pata? khair aapne likha so bahut achchha.

बोधिसत्व said...

पता नहीं कहाँ होगा। होगा तो किस हाल में होगा। कहने को तो दुनिया छोटी है पर कभी-कबी बहुत बड़ी हो जाती है भाई।

अनिल रघुराज said...

दोस्तों के खास समय की छवि हमारे जेहन में छप जाती है जिनसे हम चिपके रहते हैं। लेकिन असल में होता यह है कि समय के साथ हम जितना चलते हैं, वो भी चलते रहते हैं। दूर-दूर रहने पर भ्रम बना रहता है। लेकिन कभी हकीकत में मिलकर देखिए तो फासलों का अहसास हो जाएगा।

chavannichap said...

मेरे खयाल से दोस्त कभी नहीं बिछुड़ते.हम कभी थोड़ा आगे-पीछे हो जाते हैं.समय,स्वार्थ और साहचर्य से ये सब होता है.

Neeraj Rohilla said...

बिछड़ते वक्त कोई बदगुमानी दिल में आ जाती,
मुझे भी रंज नहीं होता तुम्हें भी याद नहीं आती |

बोधिसत्व said...

अनिल भाई हो सकता है कि आप सही हों । पर हो तो यह भी सकता है कि दोस्त कबी न बदलें। मेरे लिए हर भ्रम का टूटना जरूरी पाता हूँ।
अजय जी आपने सही कहा कि दोस्त कभी नहीं छूटते।
नीरज जी शायद यह आप का पहला कमेंट है। अच्छा लगा। बदगुमानी पर एक बार कहीं सुना पद याद आया-
रहो न दूर दूर ये तो बदगुमानी है

shashi said...

बोधि भाई "कथावार्ता" को विनय पत्रिका से मेरे कहे बिना भी आपने लिंक कर दिया, इसके लिए सचमुच मैं आपका आभारी हूँ. यह आपका
बड़प्पन है. धन्यवाद. हमने इस रविवार कवि दिनकर पर एक पूरा पेज प्लान किया था. देखा होगा,. उसकी ख़ासी चर्चा रही. हाँ, अपनी कुछ कविताएँ फ़ौरन सहारा के लिए मुझे ईमेल कर दे. आभारी रहूँगा.
शशि भूषण द्विवेदी

बोधिसत्व said...

शशि भाई
अभी तो सारी कविताएँ संग्रह के लिए पठा दी हैं। होते ही कुछ करता हूँ।